दोपहर की तपती धूप में भारत-पाकिस्तान की सीमा पर रेगिस्तान की रेत आग उगल रही थी। ऊंची चौकियों पर जवान सतर्क निगरानी कर रहे थे, राइफलें कंधों पर और निगाहें दूर तक फैली वीरानी में चौकस। सन्नाटा पसरा था, बस कभी-कभी ऊंट की घंटियों की आवाज और रेत की सरसराहट।

अचानक एक जवान की नजर सीमा पार गई। उसने सतर्कता से आवाज लगाई — “ओए, देखो उधर!”
बाकी जवान चौकन्ने हो गए। उन्होंने देखा, भेड़ों का झुंड धीरे-धीरे सीमा की ओर बढ़ रहा था, और उनके पीछे एक छोटी सी परछाई — मुश्किल से 10 साल की बच्ची, हाथ में पतली लाठी।

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सीमा पर हर हलचल शक के घेरे में होती है। जवानों ने घेरा बना लिया — “रुको वहीं!”
बच्ची डर गई, कांपते होठों से बोली — “मैं रास्ता भटक गई। भेड़े चराते-चराते इधर आ गई।”
लेकिन जवानों को यकीन नहीं हुआ। क्या पता कोई चाल हो?
आदेश मिला — “पकड़ लो, चौकी ले चलो।”
बच्ची जोर-जोर से रोने लगी — “मुझे छोड़ दो, मेरी अम्मी मेरा इंतजार कर रही होंगी।”
जवानों ने उसकी छोटी कलाई पकड़ ली, चौकी की ओर ले गए।

चौकी पर कैप्टन अरुण सिंह सामने आए — अनुशासन और सख्ती का दूसरा नाम, लेकिन दिल में एक अनकही पीड़ा भी।
जवान बोले — “सर, बच्ची सीमा पार से आई है। शक है, जासूस हो सकती है।”
अरुण ने बच्ची को देखा, कांपती मासूम आंखें। गुस्से में बोले — “शर्म नहीं आती? 10 साल की बच्ची में तुम्हें आतंकवादी दिख रहा है?”
अरुण बच्ची के पास झुके, नरम आवाज में बोले — “बेटा, डर मत। बताओ, तुम यहां कैसे आई?”
बच्ची बोली — “मेरा नाम सायरा है। मैं पाकिस्तान के गांव धनक से आई हूं। भेड़े चराते-चराते रास्ता भटक गई।”

अरुण ने उसकी आंखों में झांका — वहां डर था, लेकिन झूठ नहीं।
उन्होंने आदेश दिया — “इसे कोई चोट नहीं पहुंचेगी। इसे खाना-पानी दो, आराम करने दो।”
सायरा कांपते हाथों से पानी पीती रही, लाठी कसकर पकड़े रही। जवानों के बीच चर्चा थी — “पता नहीं सच बोल रही है या कोई चाल है।”
लेकिन अरुण के मन में युद्ध चल रहा था — कर्तव्य बनाम इंसानियत।

सायरा के घर का दृश्य — बीमार अम्मी, मजदूरी करता पिता, दो रोटियों के लिए संघर्ष।
सायरा अपने घर का बोझ उठाती थी, भेड़ों के सहारे जीती थी।
चौकी पर उसे रोटी-दाल दी गई। वह कांपते हाथों से खाने लगी, आंखों से आंसू टपकते रहे।

रात का सन्नाटा। सायरा कोने में सिकुड़ कर सोने की कोशिश कर रही थी, लेकिन अम्मी का चेहरा बार-बार आंखों में आ जाता।
अरुण अकेले बैठे नक्शा देख रहे थे, लेकिन सोच रहे थे अपनी खोई बहन मीरा के बारे में — जो कभी इसी सरहद पर खेलते-खेलते पाकिस्तान चली गई थी और फिर कभी लौटकर नहीं आई।
सायरा की मासूमियत अरुण के घावों पर मरहम लगाती थी।

सुबह जवान चाय पी रहे थे। एक ने सायरा को बिस्कुट दिए — उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आई।
अरुण ने पूछा — “बेटा, क्या देख रही हो?”
सायरा बोली — “वो सूरज… अम्मी कहती थी, जब सूरज उगता है, अल्लाह नई उम्मीद भेजता है।”
अरुण का दिल पिघल गया।

सायरा धीरे-धीरे जवानों से घुलने-मिलने लगी। उसकी मासूम बातें सबको छू जातीं।
एक जवान ने पूछा — “तुम्हें डर नहीं लगता?”
सायरा बोली — “डरता तो हूं, लेकिन अम्मी कहती थी, ‘अच्छे लोग हर जगह होते हैं। बस पहचानना आना चाहिए।’”

अरुण अकेले छत पर बैठे थे। सायरा पास आकर बोली — “आप क्यों उदास हैं?”
अरुण बोले — “बस पुराने दिनों की बातें याद आ रही हैं। मेरी भी एक छोटी बहन थी…”
सायरा ने हाथ पकड़ लिया — दोनों की आंखें नम थीं।

इसी बीच मुख्यालय से आदेश आया — बच्ची को इंटेरोगेशन यूनिट को सौंपो।
अरुण बोले — “सर, यह बच्ची है। हमें इसे इंसानियत से देखना चाहिए, शक की नजर से नहीं।”
अफसर बोले — “सरहद पर दया कमजोरी होती है।”
अरुण ने कहा — “मैं फौजी हूं, ड्यूटी निभाना मेरा फर्ज है। लेकिन मैं इंसान भी हूं। यह बच्ची दुश्मन नहीं, सिर्फ अपनी मां की गोद में लौटना चाहती है।”

अफसर ने आखिरकार कहा — “ठीक है, बच्ची को सरहद तक छोड़ आओ। अगर कुछ गलत हुआ, जिम्मेदारी तुम्हारी होगी।”

शाम को अरुण ने सायरा का हाथ थामा — “तुम कभी अकेली नहीं होगी।”
दोनों कंटीले तारों तक पहुंचे। पाकिस्तान की ओर से भी अधिकारी आए।
जैसे ही सायरा ने पाकिस्तान की जमीन पर कदम रखा, उसकी मां दौड़ती हुई आई, गले लगा लिया।
सायरा ने मुड़कर अरुण को देखा — “अल्लाह आपको खुश रखे, अंकल। आप मेरी जान बचाने वाले फरिश्ता हो।”
अरुण की आंखें भर आईं। उन्होंने सलाम ठोका।

उस दिन अरुण ने समझा — सरहदें देशों को बांट सकती हैं, लेकिन इंसानियत दिलों को जोड़ देती है।
कभी-कभी एक मासूम की मुस्कान जीत जाती है और बंदूकें हार जाती हैं।

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जय हिंद!