“सब्ज़ी मंडी में बुजुर्ग को धक्का देकर गिराया गया, लेकिन नाम सुनते ही सब हैरान रह गए!”

सब्ज़ी मंडी में एक नाम जिसने सबको झुका दिया

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सुबह का वक्त था। सर्दियों की हल्की धूप पूरे शहर पर सुनहरी चादर बिछा रही थी। शहर की सबसे बड़ी सब्ज़ी मंडी आज रोज़ से भी ज़्यादा भीड़-भाड़ वाली थी। ठेलों की आवाजें, दुकानदारों की पुकार, खरीदारों की हलचल – हर तरफ सिर्फ भागदौड़ और शोर था। इसी मंडी की भीड़ में एक बूढ़ा आदमी धीरे-धीरे चलता जा रहा था। करीब 75 साल की उम्र, झुकी हुई कमर, सफेद बिखरे बाल, चेहरे पर गहरी झुर्रियां, कपड़े पुराने और जगह-जगह से फटे हुए। उसके हाथ में सिर्फ एक छोटा सा थैला था जिसमें कुछ आलू, टमाटर और हरी मिर्च थीं।

भीड़ में धक्कामुक्की बढ़ती जा रही थी। किसी ने उसके कंधे से टकरा कर घूरा, किसी ने ताना मार दिया – “ए बुजुर्ग, रास्ता रोक कर क्यों खड़े हो?” तभी एक सब्ज़ी वाला चिल्लाया, “अरे हटो हटो! ये तो भिखारी लग रहा है। सब्ज़ी खरीदने आया है या भीख मांगने?” पास के दुकानदार हंस पड़े, किसी ने कहा, “कपड़े देखो जरा इसके।” भीड़ में हंसी गूंज उठी, लोग उसकी ओर हिकारत से देखने लगे।

बूढ़े आदमी ने कुछ नहीं कहा। बस अपनी धीमी चाल में आगे बढ़ने की कोशिश करता रहा। तभी एक दुकानदार ने झुझलाकर उसे जोर से धक्का दे दिया। वो लड़खड़ाकर जमीन पर गिर गया। उसका थैला फट गया, सब्जियां कीचड़ में बिखर गईं। भीड़ हंसने लगी, किसी ने मज़ाक उड़ाया, “देखो सब्जियां भी इसे छोड़कर भाग रही हैं!”

पूरी मंडी तमाशा देख रही थी, लेकिन कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। बूढ़ा कांपते हाथों से अपनी सब्जियां उठाने लगा। तभी भीड़ में से एक छोटा सा लड़का आगे बढ़ा, उसने टमाटर उठाए और कहा, “दादा जी, आप मत घबराइए, मैं मदद करता हूं।” बूढ़े ने मुस्कुरा कर सिर पर हाथ रखा और बोला, “नहीं बेटा, रहने दो।”

भीड़ अब भी ताना कस रही थी। लेकिन तभी बूढ़ा ठहर गया। उसने गहरी सांस ली और कांपती आवाज़ में बस एक नाम बोला – “मैं हूं रघुनाथ प्रसाद।” पूरा बाजार सन्न रह गया। दुकानदारों की आवाजें रुक गईं, शोर पल भर में गायब हो गया। लोग एक दूसरे का चेहरा देखने लगे, फुसफुसाहट फैलने लगी – “क्या ये वही रघुनाथ प्रसाद है?”

एक बुजुर्ग दुकानदार आगे आया, कांपते हुए बोला – “हे भगवान! सचमुच वही हैं, जिन्होंने हमें ये जमीन दी थी, जिनकी वजह से आज ये मंडी खड़ी है।” सुनते ही बाकी दुकानदारों के चेहरे पीले पड़ गए। जिन्होंने अभी-अभी धक्का दिया था, वे सब पीछे हटने लगे।

एक महिला बोली, “अरे, ये वही रघुनाथ प्रसाद हैं जिन्होंने बरसों पहले सरकार को जमीन दान की थी, ताकि ये मंडी बने और हम सबको रोजीरोटी मिल सके।” नौजवान हैरान रह गए। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि जिस आदमी को उन्होंने भिखारी समझकर धक्का दिया, वही इस मंडी के असली दाता हैं।

वो छोटा लड़का मासूमियत से पूछता है, “दादा जी, आप कौन हैं सच में?” बूढ़े ने उसकी ओर देखा, उनकी आंखों में न आंसू थे न गुस्सा, बस एक गहरी थकान और सच्चाई थी। बाजार में सन्नाटा छा गया।

बच्चा फिर पूछता है, “क्या सच में ये मंडी आपकी वजह से बनी है?” बूढ़े ने सिर हिलाया, “हां बेटा, बहुत साल पहले जब मेरे पास थोड़ा धन था, मैंने ये जमीन नगर को दे दी थी। मेरा सपना था कि यहां बाजार बने, ताकि हर गरीब को रोजीरोटी मिल सके।”

लोगों के चेहरे शर्म से झुक गए। दुकानदार आगे बढ़े, बोले, “बाबूजी, हमसे भूल हो गई, हमें पहचानना चाहिए था।” बूढ़े ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “बेटा, पहचान तो इंसान को इंसान के रूप में होनी चाहिए, नाम और ओहदे से नहीं।”

एक बुजुर्ग सब्ज़ी वाला आगे आया, “तुम नहीं जानते, रघुनाथ बाबू ने सिर्फ जमीन ही नहीं दी थी, जब शहर में अकाल पड़ा था, तब अपने गोदाम खोल दिए थे, गांव-गांव जाकर अनाज बांटा था। लोग कहते थे, ये शहर का रखवाला है।”

बच्चा फिर पूछता है, “दादा जी, जब आपने सबको इतना दिया तो आज आप अकेले क्यों हैं? आपके अपने कहां हैं?” बूढ़े की आंखें भीग गईं, “अपने तो थे बेटा, लेकिन शायद मेरी ईमानदारी उनके काम नहीं आई। मैंने कभी रिश्वत नहीं ली, कभी झूठा सौदा नहीं किया। सबने मुझे अकेला छोड़ दिया, जिनके लिए जमीन और अनाज दिया, वही आज मुझे भिखारी समझ रहे हैं।”

भीड़ में कई लोग रो पड़े। दुकानदार अपना गल्ला खोलकर बोले, “बाबूजी, यह सब आपका है। अगर आप ना होते, तो हम आज यहां खड़े भी ना होते।” बूढ़े ने हाथ उठाकर मना कर दिया, “मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस इतना याद रखना, किसी को उसके कपड़ों से मत तोलना। इंसान की कीमत उसकी सोच और कर्म से होती है, जेब से नहीं।”

पूरा बाजार थर्रा गया। लोग समझ चुके थे कि उन्होंने क्या खोया और क्या पाया। मंडी का माहौल बदल चुका था। अब वहां सिर्फ सन्नाटा और पश्चाताप था। हर कोई बूढ़े की ओर देख रहा था, जैसे उनकी आंखों में अब कोई साधारण इंसान नहीं, बल्कि जिंदगी का सबसे बड़ा सबक खड़ा हो।

बच्चा बोला, “दादा जी, आपने सबको दिया, बदले में आपको यह दर्द मिला, फिर भी आप सबको माफ कर रहे हैं, क्या सचमुच इंसान इतना बड़ा हो सकता है?” बूढ़ा मुस्कुरा कर बोला, “बेटा, जीवन में सबसे बड़ी ताकत माफ करना है। अगर मैं भी इनकी तरह नफरत करूं, तो मेरे और इनमें फर्क क्या रह जाएगा?”

मंडी में सन्नाटा और गहरा हो गया। लोग झुकने लगे, किसी ने पैर छुए, किसी ने हाथ जोड़े। बूढ़ा अब साधारण नहीं लग रहा था, वह एक जीवित शिक्षा था – एक ऐसा सबक जिसे आने वाली पीढ़ियां भी नहीं भूलेंगी। भीड़ की तरफ देखते हुए उन्होंने ऊंची आवाज़ में कहा, “याद रखो, इज्जत कपड़ों से नहीं, पैसे से नहीं, बल्कि इंसानियत से मिलती है।”

यह कहानी हमें सिखाती है कि असली पहचान और इज्जत इंसान के कपड़ों या हालात से नहीं, उसके दिल और कर्म से होती है।