स्कूल का चपरासी रोज़ भूखे छात्र को खिलाता था अपने टिफिन से खाना, जब छात्र का सच सामने आया तो होश उड़

राम प्रसाद जी और गुमनाम टिफिन – इंसानियत की सबसे बड़ी शिक्षा

क्या होता है जब भूख इंसान के स्वाभिमान से बड़ी हो जाती है? क्या होता है जब इंसानियत किसी वर्दी या पद की मोहताज नहीं रहती, बल्कि एक साधारण टिफिन के डिब्बे में अपनी खुशबू बिखेर देती है?

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यह कहानी है लखनऊ के सिटी मॉन्टेसरी स्कूल के सबसे पुराने चपरासी राम प्रसाद जी की। उम्र साठ के पार, चेहरे पर झुर्रियाँ, लेकिन आँखों में पिता जैसी चमक। स्कूल उनके लिए सिर्फ नौकरी नहीं, परिवार था। हर बच्चे को वे अपने पोते-पोती जैसा मानते थे।

इसी स्कूल में पढ़ता था रोहन – 12वीं का सबसे होनहार छात्र। हर विषय में अव्वल, क्रिकेट टीम का कप्तान, वाद-विवाद प्रतियोगिता का विजेता। सबको लगता था, वह किसी बहुत बड़े और सुखी परिवार का बेटा है। लेकिन राम प्रसाद जी की अनुभवी आँखों ने उसकी मुस्कान के पीछे छुपी उदासी को पढ़ लिया था।

राम प्रसाद जी ने देखा, रोहन कभी लंच ब्रेक में कुछ नहीं खाता। जब सारे बच्चे महंगे टिफिन खोलकर लजीज पकवान खाते, रोहन किताबों में खोया रहता। अगर कोई पूछता, तो मुस्कुरा कर कहता – “सुबह ज्यादा नाश्ता कर लिया था” या “माँ टिफिन रखना भूल गई।” यह रोज का सिलसिला था।

एक दिन लंच ब्रेक में रोहन क्लास में अकेला बैठा था, अचानक चक्कर खाकर गिर पड़ा। राम प्रसाद जी दौड़ते हुए पहुंचे, पानी पिलाया – “बेटा, कुछ खाया है?”
रोहन ने हाथ छुड़ाते हुए कहा – “मुझे भूख नहीं है काका!” उसकी आँखों में शर्मिंदगी और दर्द था।

अगले दिन रोहन ने अपनी डेस्क में एक पुराना स्टील का टिफिन देखा। खोला तो दो मोटी रोटियाँ, आलू की सूखी सब्जी और थोड़ा अचार था। उसकी भूख तर्कों पर भारी पड़ गई। उसने छुपकर खाना खा लिया, जैसे अमृत मिल गया हो। छुट्टी के वक्त डिब्बा गायब था।

अब रोज लंच ब्रेक से पहले वही गुमनाम टिफिन उसकी डेस्क में आ जाता। रोहन कभी नहीं जान पाया कि टिफिन कौन रखता है। दूसरी तरफ, राम प्रसाद जी रोज अपने घर से दो लोगों का खाना लाते। पत्नी पूछती, “इतना खाना क्यों?”
वो हँसकर कहते – “बुढ़ापे में भूख ज्यादा लगती है।”

राम प्रसाद जी की गुमनाम सेवा का असर दिखने लगा। रोहन का चेहरा खिल उठा, पढ़ाई में और भी आगे बढ़ गया।
फिर आई बोर्ड परीक्षा – रोहन ने राज्य में टॉप किया। स्कूल में जश्न हुआ, सम्मान समारोह तय हुआ। रोहन को माता-पिता के साथ मंच पर बुलाना था।

समारोह के दिन पूरा ऑडिटोरियम खचाखच भरा था। सब रोहन और उसके माता-पिता का इंतजार कर रहे थे। रोहन समय पर पहुँच गया, लेकिन उसके माता-पिता कहीं नहीं थे।
प्रिंसिपल ने गुस्से में पूछा – “तुम्हारे पेरेंट्स कहाँ हैं?”
रोहन की आँखों से आँसू बहने लगे – “सर, मेरे कोई माता-पिता नहीं हैं।”

पूरा हॉल सन्न रह गया। रोहन ने अपनी कहानी सुनाई – पिता का व्यापार डूब गया, हार्ट अटैक से निधन। माँ भी दुख में चली गई। बंगला, गाड़ियाँ सब बिक गया। एक वफादार नौकर ने झुग्गी में जगह दी। रात को ट्यूशन पढ़ाकर फीस भरता, लेकिन पेट भर खाना नहीं मिलता। कई दिन भूखा रहता।

“अगर एक फरिश्ते ने मेरा हाथ न थामा होता, तो मैं आज जिंदा भी नहीं होता। वो गुमनाम फरिश्ता, जिसने दो साल तक रोज मेरे लिए टिफिन रखा। आज मैं अपनी ये कामयाबी उसी को समर्पित करना चाहता हूँ।”

पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंज उठा।
तभी पिछले दरवाजे पर राम प्रसाद जी खड़े थे, आँखों में आँसू। रोहन ने उन्हें देख लिया। “काका, रुकिए!”
वो मंच से कूदकर उनके पैरों में गिर गया – “आप थे मेरे फरिश्ते!”

राम प्रसाद जी ने उसे गले से लगा लिया – “बेटा, मैंने तो बस एक बाप का फर्ज निभाया था।”

उस दिन शिक्षा मंत्री और चेयरमैन ने सिर्फ रोहन को नहीं, राम प्रसाद जी को भी सम्मानित किया। उन्हें स्कूल का संरक्षक बना दिया गया, जीवन भर की पेंशन और रहने के लिए घर दिया गया।

रोहन स्कॉलरशिप से विदेश गया, लेकिन कभी अपने दूसरे पिता को नहीं भूला। लौटकर सबसे पहला काम किया – “राम प्रसाद चैरिटेबल ट्रस्ट” शुरू किया, जो आज हजारों गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा और भोजन देता है।

दोस्तों, यह कहानी सिखाती है –
नेकी और करुणा किसी पद या हैसियत की मोहताज नहीं होती।
हर मुस्कुराते चेहरे के पीछे एक संघर्ष छुपा हो सकता है।
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