ARMY जवान ड्यूटी से घर जा रहा था तभी स्टेशन पर एक लड़की से प्यार हो गया
एक भावनात्मक और आकर्षक कहानी: “टिकट से परे – विक्रांत और आर्या की यात्रा”
शाम का वक्त था। सूर्य अपनी छांव की तरफ बढ़ रही थी। लखनऊ स्टेशन पर भीड़ अपने चरम पर थी, मगर कुछ चेहरे बहुत अकेले लग रहे थे। उसी भीड़ में एक चेहरा था – जवान, हट्ठा-कट्ठा, चमकीली वर्दी में लिपटा आर्मी जवान, लेफ्टिनेंट विक्रांत राणा। चार साल की पोस्टिंग के बाद आज वह अपने घर बिहार के दरभंगा लौट रहा था। मां के हाथ की रोटियों की खुशबू, पिताजी की खामोश मुस्कान और बहन की नटखट बातों का इंतजार था।
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ट्रेन आने में अभी बीस मिनट थे। प्लेटफार्म पर बैठा विक्रांत बस यूं ही आसपास देख रहा था। तभी उसकी नजर गई एक पीली साड़ी पहने लड़की पर, जो एक बेंच पर अकेली बैठी थी। नाम था – आर्या सिंह। हाथ में टिकट थी, पर नजरें कहीं और थीं। विक्रांत ने करीब पांच मिनट तक उसे देखा, फिर खुद से हार गया। सोल्जर था, पर संवेदनशील भी। वह पास गया और हौले से बोला,
“माफ कीजिए, सब ठीक है?”
लड़की ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी आंखें लाल थीं। कुछ पल वो चुप रही, फिर धीमे स्वर में बोली,
“जिसे देखना चाहती थी, वो शायद अब कभी नहीं आएगा।”
विक्रांत चुप रहा, फिर बोला,
“तो क्या अब आप यहां ऐसे ही बैठी रहेंगी? कोई ट्रेन पकड़ी आपने?”
लड़की ने टिकट दिखाया,
“हां, बिहार जाना था, पर अब सोच रही हूं कि वापस नहीं जाऊं।”
विक्रांत मुस्कुराया,
“क्या इत्तेफाक है, मैं भी बिहार जा रहा हूं – समस्तीपुर।”
दोनों की नजरें टकराई। कुछ तो था उस एक पल में – एक अनकही सी पहचान, एक अनसुना सा वादा।
ट्रेन आई। प्लेटफार्म नंबर पांच पर किस्मत की पटरी पर दोनों सवार हो गए। एक ही डिब्बा। ट्रेन अपनी चाल से चल रही थी। डिब्बा थोड़ा खाली था। खिड़की से आती हवा में हल्की ठंडक घुली थी। आमने-सामने बैठे थे दोनों।
विक्रांत ने कुछ देर चुप रहकर आर्या की तरफ देखा, फिर हौले से पूछा,
“आप उदास क्यों हैं?”
आर्या एक पल को चुप रही, फिर उसने निगाहें खिड़की से हटाकर जवान की आंखों में डाली,
“कभी किसी को बहुत अपना मान लिया था, इतना कि खुद से ज्यादा।”
“फिर?”
“वो चला गया। कहते हैं वक्त के साथ लोग बदलते हैं, मगर कभी-कभी लोग वक्त से पहले ही बदल जाते हैं।”
विक्रांत ध्यान से सुन रहा था। कोई रोक नहीं रहा था उसे। और आर्या पहली बार अपने टूटे हुए पन्ने किसी को पढ़ा रही थी।
“मेरे घर वालों को वह पसंद नहीं था, लेकिन मैंने सब छोड़ दिया, सपनों के साथ उसके शहर चली आई।
दो साल बाद जब उसकी जिंदगी में नौकरी, पैसा और शोहरत आ गया, तो मैं उसके लिए सिर्फ एक बोझ रह गई।
उसने कहा, ‘तुम मुझे पीछे खींचती हो। मैं अब किसी और को पसंद करता हूं।’
और बस एक झोले में सामान डालकर मुझे घर से बाहर कर दिया।”
आर्या की आवाज भर आई। वो बोलते-बोलते थम गई। शायद दिल की दीवारें और नहीं संभाल पा रही थीं। विक्रांत समझ गया था – यह सिर्फ आंसू नहीं है, यह उन सपनों की राख है जो किसी ने जला दिए थे।
वो धीरे से उठा, उसकी बगल वाली सीट पर आकर बैठ गया। आर्या ने सिर झुका लिया, मगर कांपते कंधे सब कह रहे थे।
विक्रांत ने बहुत धीरे से अपना हाथ उसके कंधे पर रखा और बोला,
“कोई बात नहीं। हम हैं ना?”
आर्या चौंक कर उसकी ओर देखने लगी। उसकी आवाज में हैरानी थी। विक्रांत की आंखों में सुकून था,
“हां, अब अकेली नहीं हो तुम।”
आर्या की पलकों से आंसू फिर लुढ़के,
“आप तो आज मिले हैं।”
“यह सब शायद आज मिला हूं, पर जो तुम्हारे साथ हुआ है उसे महसूस करने के लिए सालों की पहचान नहीं चाहिए, बस दिल चाहिए।”
आर्या का दिल जैसे सिसकियों से भर गया था,
“कभी-कभी लगता है मैं सच में बुरी हूं, इसलिए सबने छोड़ दिया।”
विक्रांत ने फौरन कहा,
“बिल्कुल नहीं। बुरे वो थे जो तुम्हारा साथ नहीं निभा सके। तुम सिर्फ जरा ज्यादा सच्ची थी, इसलिए टूटी हो।”
आर्या ने उसकी तरफ देखा। पहली बार उसे किसी ने गलत नहीं कहा था।
विक्रांत ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया,
“अगर कोई प्यार से थामे तो हर चीज जुड़ सकती है – दिल भी, भरोसा भी।”
कांपते हाथों से उसने उसे थाम लिया। ट्रेन अब किसी पुल से गुजर रही थी। नीचे बहता पानी, ऊपर बहते जज्बात।
कुछ देर दोनों चुप थे। फिर आर्या बोली,
“आपके जैसे लोग बहुत कम होते हैं, सर।”
विक्रांत ने बोला,
“मुझे सर मत बुलाओ। मेरा नाम विक्रांत है।”
“और मेरा नाम आर्या।”
दोनों मिलकर बहुत खुश थे। दोनों मुस्कुरा रहे थे। विक्रांत ने आर्या को पहली बार खुलकर हंसते हुए देखा। जैसे बरसों से किसी ने उसके अंदर की मासूम लड़की को बाहर आने ही नहीं दिया था।
खिड़की से दरभंगा की मिट्टी की खुशबू आ रही थी। ट्रेन अब बस 15 किलोमीटर दूर थी।
आर्या ने कहा,
“यह सफर कभी खत्म ना होता।”
विक्रांत ने हाथ पकड़ते हुए कहा,
“शायद यही तो शुरुआत है।”
लेकिन तभी ट्रेन अचानक झटके से रुक गई। एक पल को सब हिल गए। जैसे वक्त थम गया हो।
आर्या घबरा गई और तुरंत विक्रांत के गले से लग गई। उसका सिर उसके सीने से टिक गया। उसके दिल की धड़कनें तेज थीं। जैसे कोई तूफान भी अब उसमें चैन पा गया हो।
विक्रांत ने दोनों हाथों से उसे थाम लिया। कुछ पल चुपी रही। फिर दोनों की आंखें मिलीं। एक लंबा, गहरा और भरोसे से भरा लम्हा।
“डरो मत। मैं जब तक साथ हूं, कुछ नहीं होगा।”
आर्या ने धीमे से पूछा,
“क्या सब कुछ सच है या फिर यह भी किसी सफर के साथ खत्म हो जाएगा?”
विक्रांत ने उसकी ठंडी उंगलियों को अपने हाथ में लिया,
“अगर सब कुछ सपना होता, तो इतनी सच्ची धड़कनें महसूस नहीं होतीं।”
वो थोड़ी और करीब आई,
“मैं बहुत टूटी हूं विक्रांत। अगर फिर बिखरी तो खुद को समेट नहीं पाऊंगी।”
विक्रांत की आंखें गीली हो गईं,
“तुम्हें अब समेटने का काम मेरा है। तुम्हारे टूटे हिस्सों को मैं अपने अंदर जगह दूंगा।”
फिर अचानक उसने आर्या का चेहरा दोनों हथेलियों में लिया,
“तुम मेरे साथ चलो। मेरे घर, मेरी मां-पापा तुम्हें देखकर बहुत खुश होंगे। मैं नहीं जानता कि तुम क्या बन पाओगी मेरे जीवन में। लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि बिना तुम्हारे अधूरा रहूंगा।”
आर्या की आंखें भर आईं,
“इतनी जल्दी फैसला कर लिया?”
उसकी आवाज में खुशी भी थी, डर भी। विक्रांत कुछ कहने ही वाला था कि तभी टिकट दिखाइए मैडम – एक तेज आवाज गूंजी।
लेडीज टीटी लगभग 40-45 की महिला, साड़ी में पैनी निगाहों के साथ सामने खड़ी थी।
आर्या थोड़ा घबरा गई।
“जी, एक मिनट।”
उसने पर्स में टिकट ढूंढना शुरू किया, मगर पर्स खाली लग रहा था। बार-बार देखा, हर जेब टटोली। चेहरा उतरता गया।
“टिकट शायद स्टेशन पर गिर गया।” उसकी आवाज कांपने लगी।
टीटी की नजरें अब थोड़ी सख्त हो गईं,
“बिना टिकट सफर करना कानूनन जुर्म है। मैडम आपको फाइन देना पड़ेगा।”
विक्रांत ने तुरंत जेब से अपना टिकट और आर्मी आईडी निकाल ली,
“यह मेरा टिकट है और मैं भारतीय सेना में हूं – लेफ्टिनेंट विक्रांत राणा।”
टीटी ने एक नजर आईडी पर डाली,
“ठीक है, आप फौजी हैं, लेकिन इनके पास टिकट नहीं है। नियम सबके लिए बराबर है।”
आर्या ने घबराकर कहा,
“मैंने टिकट लिया था, शायद वही प्लेटफार्म पर गिर गया। प्लीज, मुझे जुर्माना दे दूंगी।”
विक्रांत ने लंबी सांस ली, फिर सीधा खड़ा होकर दृढ़ता से बोला,
“यह मेरी बीवी है। इसके लिए टिकट की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह मेरी जिम्मेदारी है।”
आर्या चौंक कर उसकी तरफ देखने लगी। उसकी आंखें भर आईं। दिल धड़कने लगा।
टीटी भी थोड़ी स्तब्ध हुई,
“बीवी?”
विक्रांत ने एक पल आर्या की ओर देखा,
“अभी ब्याह नहीं हुआ, पर मन, आत्मा और भरोसे से यह मेरी पत्नी ही है। और अगर आप चाहे तो मैं इसके नाम से टिकट भी कटवा सकता हूं, डबल किराया दे दूंगा। पर यह मेरी बीवी है। यह सच कोई कागज साबित नहीं कर सकता, सिर्फ मेरा विश्वास।”…
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