SP ऑफिस में आई एक थकी हारी लड़की….जैसे ही उसने नाम बताया,ऑफिस की रंगे कांप उठी!

विवेक राठौर और उसकी बहनों की कहानी – किस्मत, संघर्ष और परिवार की जीत

शाम के छह बजे थे। दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में रोशनी जल चुकी थी। दिनभर की भागदौड़ के बाद अब वहां एक अजीब सी शांति थी। बड़े हॉल में पंखा धीमी आवाज में घूम रहा था। कुछ सिपाही ड्यूटी खत्म होने का इंतजार कर रहे थे।
पांडे जी आराम से अखबार पढ़ रहे थे, शर्मा मोबाइल पर वीडियो देख रहा था। माहौल में सुस्ती थी।

.

.

.

तभी दरवाजे पर सरसराहट हुई।
एक दुबली-पतली लड़की अंदर झांकती है—उम्र यही कोई 18-19 साल। चेहरे पर थकान, आंखों में डर। बिखरे बाल, नंगे पांव, फटे कपड़े।
उसकी हालत देखकर कोई भी समझ सकता था कि वह कई दिनों से भूखी-प्यासी है।

लड़की कांपती आवाज में बोली, “साहब मेरी मदद कीजिए।”
शर्मा ने नजर उठाई, पांडे जी ने तिरस्कार से कहा, “यहां क्या मेला लगा है? भागो बाहर!”
लड़की डर के मारे दरवाजे पर ही जम गई, लेकिन हिली नहीं।
उसकी आंखों में आंसू थे। उसने हिम्मत करके कहा, “मैं भीख नहीं मांग रही साहब। मेरी छोटी बहन गायब हो गई है। प्लीज़ उसे ढूंढ दो।”

हॉल में सुस्ती टूट गई।
शर्मा ने ताना मारा, “वाह, बहन भी गायब हो गई।”
पांडे जी बोले, “यह काम थाने का है, यहां बड़े साहब बैठते हैं। चल हट यहां से।”
लड़की टूट चुकी थी, वह वहीं बैठने वाली थी कि तभी केबिन से आवाज आई—

“क्या हो रहा है बाहर?”
यह थे ASP विवेक राठौर।
उनका नाम जिले में ईमानदारी और इंसानियत के लिए मशहूर था।
विवेक ने पांडे जी से कहा, “किसी का गायब होना मामूली बात नहीं है। फरियादी की शिकायत और भीख में फर्क करना सीखो। भेजो उसे अंदर।”

लड़की—मीरा—कांपते हुए केबिन में गई।
विवेक ने उसे पानी दिया, बैठाया, प्यार से पूछा—”क्या हुआ बिटिया?”
मीरा ने अपनी कहानी सुनाई—गुड़िया, उसकी छोटी बहन, कल रात बस्ती से गायब हो गई।
थाने गई तो भिखारी बोलकर भगा दिया गया।

विवेक ने मीरा की फोटो देखी, उसकी हालत देखी।
फिर पूछा, “तुम्हारे पिता का नाम?”
“रघुवीर सिंह,” मीरा बोली।
यह नाम सुनते ही विवेक सन्न रह गए।
यही नाम उन्होंने अपने बचपन में सुना था—वही हादसा, वही आग, वही बिछड़ना।

मीरा की बाह पर जलने का निशान देखा।
विवेक के मन में पुरानी यादें लौट आईं—वह भी उसी हादसे में जख्मी हुआ था, अनाथालय पहुंच गया था, उसे लगा था उसका परिवार नहीं बचा।

विवेक ने कांपती आवाज में पूछा, “मीरा, तुम्हें अपने पिताजी की शक्ल याद है?”
मीरा बोली, “बस थोड़ा-थोड़ा, वह हमें छोड़ गए।”
विवेक की आंखों में आंसू थे।
वह बोले, “नहीं, वह तुम्हें छोड़कर नहीं गए थे। शायद तुम्हारे पिताजी मेरे भी पिताजी हैं। मैं भी रघुवीर सिंह का बेटा हूं—तुम्हारा बड़ा भाई विवेक!”

मीरा चौंक गई, “आप सच कह रहे हैं?”
विवेक ने उसका हाथ थाम लिया, “मैं जिंदा था, मुझे मरा हुआ समझ लिया गया। आज इतने सालों बाद हम फिर मिले हैं।”

दोनों फूट-फूटकर रो पड़े।
सालों का दर्द, अकेलापन, सब बह गया।
बाहर सिपाही यह सब देख रहे थे—जिस लड़की को भिखारी समझकर दुत्कार रहे थे, वह उनके साहब की बहन निकली।

अब मामला सिर्फ एक लापता बच्ची का नहीं था, यह परिवार की अधूरी गाथा थी।

विवेक बोले, “चुप हो जा मीरा। अब मैं आ गया हूं। गुड़िया को कुछ नहीं होगा। चाहे जमीन के नीचे हो या आसमान में, मैं उसे ढूंढ निकालूंगा।”

फिर पूरे जिले में अलर्ट जारी हुआ।
हर चौकी, हर थाने में फोटो भेजी गई।
विवेक ने खुद केस की निगरानी की।
रात 11 बजे खबर आई—गुड़िया मिल गई, थोड़ी डरी हुई है, पर सही सलामत है।
दो अपराधी गिरफ्तार हुए।

मीरा खुशी से उछल पड़ी।
आधे घंटे बाद पुलिस गुड़िया को लेकर आई।
गुड़िया दौड़ कर मीरा से लिपट गई।
दोनों बहनें बहुत देर तक रोती रहीं—यह खुशी के आंसू थे।

विवेक ने गुड़िया को गोद में उठा लिया।
उस रात वह सिर्फ अफसर नहीं, एक भाई था, एक परिवार का मुखिया था।

विवेक दोनों बहनों को लेकर घर पहुंचे।
उनकी पत्नी सोनिया ने दोनों को गले लगा लिया—”आज से यह घर तुम्हारा भी है।”

सालों बाद एक पूरा परिवार एक साथ बैठकर खाना खा रहा था।
मीरा और गुड़िया को यकीन नहीं हो रहा था कि किस्मत ऐसे बदल सकती है।

गुड़िया ने पूछा, “भैया, क्या हम यहीं रहेंगे?”
विवेक ने कहा, “कभी नहीं जाओगी। तुम स्कूल जाओगी, पढ़ोगी, अफसर बनोगी।”

उस रात घर में सिर्फ एक बल्ब नहीं, बुझे रिश्तों की लौ जल रही थी।
कहानी शुरू हुई थी एक बेबस लड़की की आंखों से, खत्म हुई एक भाई की आंखों में खुशी के आंसुओं से।

अगर इरादे नेक हों, तो बंद दरवाजे भी खुल जाते हैं और बिछड़े हुए रास्ते एक दिन मंजिल पर मिल ही जाते हैं।

अगर आपको यह कहानी पसंद आई हो, तो लाइक करें, शेयर करें और कमेंट में बताएं—
एसपी विवेक के बारे में आपकी क्या राय है?
मिलते हैं एक और दिल को छू लेने वाली कहानी के साथ।
जय हिंद!