बेटी DM बनकर घर लौट रही थी ; लेकिन बूढ़ा बाप स्टेशन पर भीख मांगता मिला फिर जो हुआ ….
सुबह की ठंडी बयार चल रही थी। शहर की भागदौड़ से दूर, दिल्ली के एक छोटे से कोचिंग सेंटर के बाहर भीड़ जमा थी। हाथ में किताबें लिए छात्र-छात्राएँ अपने-अपने सपनों के साथ अंदर जा रहे थे। उन्हीं में से एक लड़की थी – नेहा। दुबली-पतली, साधारण कपड़े पहने, लेकिन आँखों में कुछ कर दिखाने की चमक थी।
नेहा का सपना सिर्फ़ उसका नहीं था, बल्कि उसके पापा का भी था। गाँव का एक गरीब किसान, जिसके पास केवल आधा बीघा जमीन थी, लेकिन बेटी को अफसर बनाने का हौसला भी था।
बचपन की जड़ें
नेहा का जन्म बिहार के छोटे से गाँव बखरीपुर में हुआ था। परिवार बहुत गरीब था। पिताजी खेती के साथ-साथ गाँव में मजदूरी करते थे, और माँ दूसरों के घरों में बर्तन माँजती थी। परिवार की हालत ऐसी थी कि कभी-कभी दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम भी मुश्किल हो जाता।
लेकिन पिताजी की सोच बड़ी थी। वह अक्सर कहा करते,
“बेटी, गरीबी किस्मत से आती है लेकिन उसे बदलना हमारे हाथ में है। तू पढ़ लिखकर बड़ा अफसर बनेगी।”
नेहा बचपन से ही पढ़ाई में तेज़ थी। गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ती थी, लेकिन हमेशा क्लास में अव्वल आती। जब भी पिताजी खेत से थककर लौटते, नेहा उन्हें अपनी कॉपियाँ दिखाकर कहती – “देखो पापा, फिर से पूरे नंबर लाए हैं।” पिताजी का चेहरा गर्व से चमक उठता।
संघर्ष का दौर
समय बीतता गया। नेहा दसवीं कक्षा तक पहुँच गई। अब खर्चे बढ़ने लगे थे। किताबें, कोचिंग, परीक्षा शुल्क – सब कुछ पैसों की माँग करता। पिताजी ने दिन-रात मेहनत करना शुरू कर दिया। खेत में काम करने के बाद वह ईंट भट्ठे पर मजदूरी करने भी जाने लगे।
इसी बीच नेहा की माँ बीमार पड़ गई। दवा और इलाज के लिए घर का थोड़ा-बहुत बचा पैसा भी खर्च हो गया। कई बार पिताजी खुद भूखे रह जाते, लेकिन नेहा की फीस समय पर भरते।
नेहा ने अपने पिता की मेहनत देखी और ठान लिया कि चाहे जितनी मुश्किलें आएँ, वह पढ़ाई नहीं छोड़ेगी।
दिल्ली की राह
बारहवीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास करने के बाद नेहा ने यूपीएससी की तैयारी करने का फैसला किया। लेकिन इसके लिए उसे दिल्ली जाना जरूरी था। यह सुनकर पिताजी चिंतित हो गए।
“बेटा, दिल्ली में रहना बहुत महँगा है। तेरा खर्चा कैसे उठाऊँगा?”
नेहा चुप हो गई। लेकिन पिताजी ने उसी रात बड़ा निर्णय लिया। उन्होंने अपनी आधी बीघा जमीन गिरवी रख दी और मिले पैसों से नेहा को दिल्ली भेज दिया।
जाते समय पिताजी ने नेहा का हाथ पकड़कर कहा –
“बेटी, यह हमारी आखिरी पूँजी है। इसे बर्बाद मत करना। बस अफसर बनकर लौटना।”
नेहा की आँखों में आँसू थे, लेकिन मन में दृढ़ संकल्प भी।
दिल्ली का संघर्ष
दिल्ली पहुँचकर नेहा ने एक छोटे से कमरे में रहना शुरू किया। सुबह कोचिंग, दोपहर में पढ़ाई, और शाम को पार्ट टाइम ट्यूशन – यही उसकी दिनचर्या थी। कई बार उसे दो-दो दिन तक पेट भर खाना नसीब नहीं होता, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी।
पहली बार जब उसने प्री परीक्षा दी, वह असफल हो गई। यह खबर सुनकर वह टूट गई। लेकिन पिताजी ने फोन पर कहा –
“बेटी, याद रख, असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी होती है।”
पिताजी के इन शब्दों ने उसे फिर से खड़ा कर दिया।
त्याग की पराकाष्ठा
इसी बीच गाँव से खबर आई कि पिताजी ने अपना घर भी बेच दिया है। नेहा हैरान रह गई। उसने तुरंत फोन किया –
“पापा, आपने यह क्या किया? हम कहाँ रहेंगे?”
पिताजी हँसते हुए बोले –
“बेटा, घर तो दोबारा बन जाएगा। लेकिन अगर तू अफसर बन गई, तो यह पूरे गाँव का मान बढ़ेगा।”
नेहा ने उसी दिन कसम खाई कि वह पापा का सपना जरूर पूरा करेगी।
जीत की घड़ी
तीसरी कोशिश में नेहा ने प्री, मेन और इंटरव्यू – तीनों क्लियर कर लिए। जब रिज़ल्ट आया और उसका नाम सूची में सबसे ऊपर था, तो वह खुशी से रो पड़ी।
उसने तुरंत पिताजी को फोन लगाया –
“पापा, आपका सपना पूरा हो गया। आपकी बेटी अब कलेक्टर बन गई है।”
पिताजी दूसरी तरफ फूट-फूट कर रो रहे थे। उनके शब्द गले में अटक गए। उन्होंने सिर्फ इतना कहा –
“बेटी, अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए।”
गाँव की वापसी
नियुक्ति पत्र मिलने के बाद नेहा पहली बार अपने गाँव लौटी। पूरे गाँव ने उसका स्वागत किया। लोग कहते थे –
“देखो, लालो की बेटी अब कलेक्टर बन गई।”
नेहा ने स्टेज पर जाकर सभी को संबोधित किया और सबके सामने अपने पिता का हाथ पकड़कर कहा –
“अगर मैं यहाँ तक पहुँची हूँ, तो सिर्फ मेरे पापा की वजह से। उन्होंने मेरे लिए अपना सब कुछ त्याग दिया।”
गाँव वाले तालियाँ बजाने लगे और पिताजी की आँखें गर्व से चमक उठीं।
नई शुरुआत
नेहा ने नौकरी ज्वॉइन कर ली और अपने पिताजी को अपने साथ सरकारी आवास में ले आई। अब वह हर दिन अपने पापा की सेवा करती, जैसे उन्होंने उसके सपनों की सेवा की थी।
वह अक्सर कहा करती –
“पापा, यह अफसर की कुर्सी मेरी नहीं, आपकी है। आपने ही इसे खरीदा है – अपने पसीने और अपने त्याग से।”
सीख
नेहा की कहानी सिर्फ एक लड़की की सफलता की कहानी नहीं है। यह उस पिता के त्याग की गाथा है जिसने अपनी बेटी को ऊँचाइयों तक पहुँचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया।
गरीबी ने उन्हें रोकने की कोशिश की, समाज ने ताने दिए, हालात ने कई बार हार मानने पर मजबूर किया। लेकिन एक पिता का सपना और एक बेटी की मेहनत – दोनों ने मिलकर नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया।
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