IPS अधिकारी भेष बदल कर साधु बनकर थाने पहुँचा मचा गया हड़कंप फिर जो हुआ…
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भेष बदलकर साधु बने IPS अधिकारी की कहानी – “मौत के बाद जन्मा इंसाफ”
गर्मियों की एक अलसाई सुबह थी। पुलिस लाइन में गहरा सन्नाटा पसरा था। हर अफसर के चेहरे पर बेचैनी थी, मोबाइलों पर एक ही खबर – “एसपी अजय राणा की मौत।” गंगापुर जिले की सीमा पर नदी के किनारे एक शव मिला था, गेरुआ कपड़ों में, माथे पर चंदन, हाथ में वही अंगूठी जो अजय राणा हमेशा पहनते थे। पूरे जिले में शोक की लहर दौड़ गई। डीआईजी साहब ने आपात बैठक बुलाई – “हमने अपना सबसे ईमानदार अफसर खो दिया।”
लेकिन कोई नहीं जानता था, यह मौत एक नाटक थी।
एसपी अजय राणा ने खुद को मरा हुआ घोषित कर गुमनामी का चोला ओढ़ लिया था। उनका मकसद था – भ्रष्ट थानों की असली हकीकत जानना, जो वर्दी में रहते कभी नहीं जान सकते थे। अब वे बन चुके थे बाबा अमरगिरी – उलझे बाल, लंबी दाढ़ी, गेरुआ वस्त्र और हाथ में कमंडल। कोई नहीं पहचान सकता था कि यह वही अफसर है, जिसकी तस्वीरें अखबारों में छप रही थीं।
गांव-गांव, थाना-थाना घूमते हुए बाबा अमरगिरी भीखनपुर पहुंचे – जिले का सबसे बदनाम थाना। कहते थे, यहाँ बिना रिश्वत के एफआईआर नहीं लिखती। गरीबों को झूठे केस में फंसा दिया जाता, और दरोगा सुरेश यादव इलाके के गुंडों का मददगार था। बाबा थाने के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ गए, भीख का कटोरा सामने रखा, पर नजरें हर आने-जाने वाले पर थीं।
एक महिला रोती हुई थाने से निकली, कपड़े फटे, गाल पर लाल निशान। पीछे एक सिपाही हँस रहा था। तभी एक जीप से राजू भैया – इलाके के नेता का बेटा – उतरा, दरोगा से मिलकर बोला, “माल का इंतजाम ठीक से हो, बाबा को हटवा देना।” सिपाही आया, “ओ बाबा, निकलो यहाँ से!” बाबा ने सिर झुकाया, कमंडल उठाया, लेकिन दूर नहीं गए। पास की दुकान से दो रुपये की चाय ली, फिर थाने के गेट के पास बैठ गए।
शाम होते-होते बाबा को सब समझ में आ गया – कौन पैसे देता है, कौन मार खाता है, किसे गाली मिलती है।
रात को थाने के गेट बंद हुए। बाबा बरामदे में बैठ गए। दो सिपाही आए – “क्यों बाबा, यहीं डेरा जमा लिया है?” बाबा ने आँखें बंद कर लीं। एक सिपाही ने लाठी मारी – “सुनाई नहीं देता क्या?” बाबा ने सिर्फ आँखें खोलीं, गहरी नजर से देखा। सिपाही घबरा गया, फिर झुंझलाकर बोला, “चलो अंदर, दरोगा जी से मिलाते हैं।”
अंदर दरोगा सुरेश यादव बैठा था, घुटका चबा रहा था। “क्यों रे बाबा, मुंह सिल लिया है? कहीं भगवा पहनकर गिरोह के आदमी तो नहीं हो?” अचानक उसने एक तमाचा जड़ दिया। बाबा लड़खड़ाए, फिर सिपाहियों ने धक्का दिया। पहली बार अजय राणा को किसी ने यूं पीटा, लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उनका मिशन शुरू हो चुका था।
बाबा को बिना किसी मुकदमे के लॉकअप में डाल दिया गया। वहाँ एक कोने में, टपकती छत के नीचे, बाबा ने चादर बिछाई। पास ही रमेश नाम का युवक पड़ा था, पीठ पर पट्टियाँ, चेहरा पीला। बाबा ने पूछा, “क्यों लाया गया तुम्हें?” रमेश बोला, “बहन के साथ छेड़छाड़ की रिपोर्ट लिखवाने आया था, मुझे ही अंदर डाल दिया।” बाबा बोले, “कोई डर नहीं, एक दिन ये दीवारें खुद बोलेंगी।”
सुबह बाबा को बाहर निकाला गया। दरोगा ने पूछा, “तुम्हारा असली मकसद क्या है?” बाबा मुस्कुराए – “जिस दिन सच्चाई पकड़ ली, खुद को पहचान नहीं पाओगे।” सुरेश गुस्से में बोला, “दो दिन और हवालात में डालो।” बाबा फिर अंदर गए। इस बार दो और कैदी थे – एक बूढ़ा, एक लड़का। सभी ने अपनी दर्द भरी कहानियाँ सुनाईं – “इंसाफ माँगा, डंडा मिला, गाली मिली, जेल मिली।”
तीसरे दिन बाबा को छोड़ने का आदेश आया। पंचायत के दबाव में दरोगा ने सोचा, “यह साधु मुझे कोई खतरा नहीं देगा।” बाबा बाहर आए, सूरज की रोशनी चेहरे पर पड़ी। उन्होंने गहरी सांस ली, मन ही मन बोले – “अब अगला थाना, अगला चेहरा, अगला पर्दाफाश।”
राजापुर थाना – कुख्यात अपने फर्जी एनकाउंटर के लिए। बाबा पैदल चलते हुए पहुँचे, चोटों के निशान अब भी शरीर पर थे, पर दिल में आग और तेज थी। थाने के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठे, फिर पानी माँगने अंदर गए। दीवार के पार से चीखें आ रही थीं। सिपाही ने कहा, “सरकार के खिलाफ हवा बना रहे हैं, उनसे पूछताछ हो रही है।” बाबा समझ गए – तीन युवक कल आंदोलन में शामिल थे, बिना केस के उठा लिए गए, मारपीट जारी थी।
रात को बाबा थाना परिसर के पीछे गए, टूटी ईंट से झाँका – तीन युवक लोहे की चैनों से बँधे, एक की पीठ से खून, दूसरे की आँखों पर पट्टी। बाबा ने सब देखा, सुबह मंदिर के सामने बैठकर तीन पन्नों का पत्र पुलिस मुख्यालय के नाम लिखा – पूरा ब्यौरा, दिन, समय, पीड़ितों के नाम, चोटें, थाने का नाम। लेकिन पत्र नहीं भेजा – “अब वक्त है सामने आने का।”
तीन महीने बीत चुके थे। राज्य को विश्वास था कि अजय राणा मर चुके हैं। लेकिन अब उनका दूसरा जन्म हो चुका था। बाबा अमरगिरी, जिनका नाम अब रहस्य बन चुका था। जिन थानों में वे गए, वहाँ अचानक गुप्त शिकायतें पहुँचने लगीं – सबूत, वीडियो, गवाह। कुछ अधिकारी डर गए, कुछ ने जांच के आदेश दिए, लेकिन कोई नाम नहीं जान पाया।
राजधानी में नए डीजीपी की नियुक्ति हुई। बाबा ने पहली बार खुद को उनके सामने उजागर करने की ठानी। डीजीपी निवास पर एक लिफाफा पहुँचा – “मैं जिंदा हूँ, लौट रहा हूँ, इस बार बिना खामोशी के।” साथ में पेनड्राइव – तीन थानों की रिकॉर्डिंग, पीड़ितों के बयान, गवाहों की आवाजें। डीजीपी ने रातभर सबूत देखे, सुबह मीटिंग बुलाई – “अगर यह अजय राणा है, तो हमारे पास मौका है सिस्टम को साफ करने का।”
बाबा अमरगिरी गंगा किनारे एक गांव पहुँचे, चौकी में बूढ़ा सिपाही उन्हें पहचान गया – “साहब, आपकी आँखें वही हैं, पर मैंने किसी को कुछ नहीं बताया।” बाबा बोले, “नाम मत ले बेटा, मैं अब साधु हूँ। तुझे तय करना है कि तू वर्दी है या इंसाफ का साथी।” उसी रात, गाँव के मंदिर में सभा बुलाई गई – “अब वक्त है, लोग खामोश रहना छोड़ें।”
एक हफ्ते बाद राजधानी के मुख्य थाने पर सीबीआई ने रेड डाली। दरोगा, जो बाबा को लात मारता था, अब हाथ जोड़कर माफी माँग रहा था। तीन थानों के दरोगा सस्पेंड, चार सिपाही गिरफ्तार, छह पीड़ित परिवारों को न्याय मिला।
अखबारों में हेडलाइन – “कौन है ये साधु?”
टीवी पर बहस – “क्या ये बाबा ही एसपी अजय राणा हैं?”
पुलिस मुख्यालय में आज खास मीटिंग थी। दरवाजा खुला – वहाँ वर्दी में लौटे अजय राणा खड़े थे, चेहरे पर कठोर दृढ़ता, कंधों पर चमकते सितारे। डीजीपी ने गले लगा लिया। कोई कुछ नहीं बोला, सब बस देख रहे थे – वह साधु अब अफसर था, लेकिन अब वही अफसर नहीं था जो तीन महीने पहले था।
“मुझे कोई अवार्ड नहीं चाहिए,” अजय राणा ने कहा, “बस इतना चाहता हूँ, अब हम बंद दरवाजों से बाहर निकलें, जनता को इंसाफ मिले।”
अगले कुछ दिनों में उन थानों में सीधी कार्रवाई हुई, जिनके खिलाफ सबूत थे। बेगुनाहों को मुआवजा मिला। मीडिया ने उन्हें “इंसाफ का फकीर” कहा।
एक शाम अजय राणा फिर उसी पेड़ के नीचे बैठे – अब उनके हाथ में भीख का कटोरा नहीं, बल्कि एक रिपोर्ट थी उस सफर की जिसने उन्हें मारकर दोबारा जन्म दिया। पास ही एक बच्चा बोला, “आप वह बाबा हैं ना जो अब पुलिस वाले बन गए?”
अजय राणा मुस्कुराए, सिर पर हाथ रखा –
“ना बेटा, मैं बस वह आदमी हूँ जिसने चुप रहना छोड़ दिया।”
अब वर्दी में सिर्फ ताकत नहीं, तपस्या भी थी। और इसी के साथ खत्म हुआ एक सफर, शुरू हुई एक नई क्रांति।
जय हिंद।
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