बेटे को मंगलसूत्र बेचकर IAS बनाया..मां को कहा – मैं इनको नहीं जानता.. फिर जो हुआ🤔
“मां का त्याग और बेटे की भूल”
जहां बड़े-बड़े अफसर और अमीर लोग रहते थे, वहां एक शानदार बंगला था – वर्मा विला। ऊंचा गेट, चमचमाती कारें और चारों ओर फैली रौनक देखकर कोई भी समझ जाता कि यह घर किसी बड़े ओहदे वाले का है।
इसी गेट के सामने सड़क किनारे एक बूढ़ी औरत आकर ठहर गई। उसकी उम्र साठ के पार रही होगी। सिर पर एक पुरानी लेकिन साफ साड़ी का पल्लू, कंधे पर कपड़े की गठरी जिसमें शायद उसकी सारी पूंजी और जरूरत का सामान था। पैर में घिसी हुई चप्पलें और चेहरे पर थकान की गहरी लकीरें।
पर उस थकान के पीछे भी एक अजीब सी चमक थी – वो चमक जो सिर्फ मां की आंखों में होती है। कांपते हाथों से गेट पर लगी नेमप्लेट पढ़ने लगी – “अमित वर्मा, IAS कलेक्टर”।
यह नाम देखते ही उसकी आंखें भर आईं। होठों पर अनायास मुस्कान फैल गई – “मेरा बेटा, मेरा अमित, कलेक्टर साहब!”
उसकी आंखों में यादों की बाढ़ उमड़ पड़ी। जाने कितनी रातें जागकर, भूखे पेट काटकर उसने इस नाम के पीछे अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी थी। और आज वही नाम इस ऊंचे बंगले की पहचान बन गया था।
वह हिम्मत जुटाकर गेट की तरफ बढ़ी। गार्ड ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और नागभ सिकोड़ते हुए बोला,
“अरे अम्मा, कहां चली आ रही हो? यह कोई भीख देने की जगह नहीं है। समझी?”
बूढ़ी औरत ने कांपती आवाज में कहा, “बेटा, मैं यहां भीख मांगने नहीं आई। मैं तो अपने बेटे से मिलने आई हूं। यही तो उसका घर है ना?”
गार्ड ने हंसते हुए कहा, “तुम्हारा बेटा? यह कलेक्टर साहब का बंगला है। जाओ-जाओ, यहां से हटो वरना डंडा पड़ेगा।”
उसकी आंखों में आंसू छलक आए। मगर उसने हिम्मत नहीं हारी। कांपते पैरों से धीरे-धीरे चलकर वो गेट के अंदर घुस गई।
गार्ड कुछ कहता उससे पहले ही गाड़ी का हॉर्न बजा। सफेद रंग की सरकारी गाड़ी बंगले के बाहर आकर रुकी। गाड़ी से एक लंबा चौड़ा आदमी निकला – 32 साल का, कोट-पैंट पहने, चेहरे पर तेज और आंखों में आत्मविश्वास।
गार्ड ने तुरंत सलामी ठोकी – “जय हिंद साहब।”
वो शख्स और कोई नहीं बल्कि अमित वर्मा, रांची का नया कलेक्टर था।
बूढ़ी औरत ने उसे देखते ही गठरी जमीन पर रख दी और दौड़ते हुए उसके पास पहुंची। आंसू भरी आंखों से बोली,
“अमित, बेटा अमित, देख आज तेरी मां तुझसे मिलने आई है।”
उसने कांपते हाथों से अमित का चेहरा छूना चाहा। अमित ने एक पल के लिए ठिठक कर उसे देखा, फिर आंखें सिकोड़ते हुए बोला,
“कौन? कौन हो तुम? किस अधिकार से मुझे बेटा कह रही हो?”
उसकी बात सुनकर बूढ़ी औरत का दिल कांप उठा।
“बेटा, मैं तेरी मां हूं। तेरी गोमती। तेरी मां जिसने तुझे पाल-पोस कर बड़ा किया। जिसने तुझे पढ़ाया-लिखाया। तू मुझे नहीं पहचान रहा?”
अमित के चेहरे पर एक अजीब सा भाव आया। उसने चारों ओर देखा – गार्ड, ड्राइवर और गली से गुजरते लोग सब देख रहे थे।
वो तुरंत गुस्से में बोला, “गार्ड, इस औरत को यहां से बाहर करो। यह शायद कोई पागल है। मुझे परेशान मत करो।”
गोमती देवी को जैसे बिजली का झटका लगा।
“अमित, तू अपनी मां को नहीं पहचान रहा?”
अमित ने मुंह फेर लिया और बंगले के अंदर चला गया।
गोमती वही जमीन पर बैठ गई। आंसुओं की धार गालों से बहने लगी। गठरी उसके पास पड़ी थी जिसमें गांव की मिट्टी, कुछ पुरानी तस्वीरें और वह चिट्ठी थी जो उसने सालों पहले अमित को लिखी थी।
लोग इकट्ठा होने लगे। कोई ताने मार रहा था, कोई हंस रहा था – “देखो-देखो, कलेक्टर साहब की मां आई है और बेटा पहचान ही नहीं रहा। अरे यह जमाना ही ऐसा है। मां-बाप को पालो, फिर वही बच्चे मुंह फेर लेते हैं।”
गोमती ने भीड़ की परवाह नहीं की। उसकी आंखें बंगले के दरवाजे पर टिकी थी। शायद अमित एक बार लौट कर देख ले।
पर वो नहीं लौटा। उसका दिल टूट चुका था।
वो बुदबुदाई – “यह वही बेटा है ना जिसके लिए मैंने अपना सब कुछ दांव पर लगाया। भूखी रही, लेकिन उसे कभी भूखा नहीं सुलाया।”
अतीत की यादें
गोमती की आंखों में धुंधली परत उतर आई।
उसे वह दिन याद आने लगे जब गांव गया की तंग गलियों में उसका छोटा सा घर हुआ करता था।
मिट्टी की दीवारें, टपकती छत और जीवन की मुश्किलें।
उसका पति धनंजय वर्मा एक साधारण किसान था। पर शराब की लत ने उसे बर्बाद कर दिया।
रोज शाम को दारू पीकर घर आता, मारपीट करता और फिर बिस्तर पर ढेर हो जाता।
गोमती अक्सर भगवान से प्रार्थना करती – “हे प्रभु, मुझे कुछ भी दे या ले ले, पर मेरे बेटे अमित का भविष्य सवार देना।”
और सचमुच उसने वही किया।
अपने बेटे को हर हाल में पढ़ाया।
रात-दिन मेहनत करने लगी – कभी किसी के घर गोबर लिपना, कभी खेत में मजदूरी।
अमित को देखते हुए उनके दिल में बस एक ही ख्वाहिश थी – “मेरा बेटा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने।”
गांव की औरतें ताना देती – “अरे गोमती, यह पढ़ाई-लिखाई करवा कर क्या होगा? मजदूरी सिखा इसे।”
लेकिन गोमती मुस्कुरा देती। अंदर से टूटती मगर बेटे के सामने कभी कमजोरी ना दिखाती।
अमित भी मां का दुख समझता। शाम को जब घर लौटता तो किताब खोलते हुए कहता,
“मां, एक दिन मैं बड़ा अफसर बनूंगा। तब देखना सब लोग आपकी इज्जत करेंगे।”
गोमती का दिल भर आता। माथे पर हाथ फेर कर आशीर्वाद देती – “बस बेटा, तू सही राह पर चलना।”
गांव में गरीबी बढ़ती गई। कई बार ऐसा हुआ कि तीन दिन तक पेट भरकर खाना नहीं मिला।
कभी सिर्फ चावल का माड़, कभी सूखी रोटी और प्याज।
एक रात अमित रो पड़ा – “मां, मुझे भूख लगी है।”
गोमती का दिल छलनी हो गया। वह बाहर निकली और पड़ोसी के दरवाजे पर चुपचाप लकड़ी काटने का काम कराई।
बदले में मिली एक थाली खिचड़ी। बेटे के आगे रखते हुए बोली,
“खा ले बेटा। देखो मां ने तेरे लिए कितनी मेहनत की है।”
अमित मासूमियत से बोला, “मां, एक दिन मैं भी आपके लिए मेहनत करूंगा।”
अमित पढ़ाई में तेज था। गांव के मास्टर जी भी कहते – “लड़का बहुत होशियार है। सही मौके पर इसे शहर भेजो।”
गोमती के मन में उथल-पुथल मच जाती। पैसे कहां से लाए?
लेकिन बेटे का सपना उनकी आंखों में बस चुका था।
उन्होंने अपने गहने गिरवी रख दिए, दो बैल जो धनंजय ने छोड़े थे उन्हें भी बेच दिया।
बस अमित पढ़ेगा, चाहे मुझे कुछ भी सहना पड़े।
जब अमित मैट्रिक पास हुआ तो उसके टीचर ने कहा, “गोमती बहन, इसे गया शहर भेज दो। वहां कॉलेज है। अगर मौका मिला तो यह बड़ा अफसर बनेगा।”
गोमती का दिल कांप गया। बेटा मुझसे दूर चला जाएगा।
पर मां का दिल अपने बेटे के भविष्य के आगे हार गया।
उन्होंने गठरी बांधी, उसमें कुछ कपड़े रखे और बेटे का हाथ पकड़कर गया शहर रवाना हो गई।
शहर उनके लिए बिल्कुल नया था – शोर, भीड़, मकानों की कतारें।
किराए का छोटा सा कमरा लिया। खुद लोगों के घर बर्तन मांझने और झाड़ू लगाने लगी।
अमित को कॉलेज में दाखिला दिलाया।
किताबों और फीस के लिए कभी दिन में दो जगह काम करती, कभी रात को भी चौका-बर्तन।
कभी-कभी थक कर बैठ जाती, तो बस एक ही ख्याल आता – “मेरा बेटा पढ़ रहा है, मेरी मेहनत बेकार नहीं जाएगी।”
किराए के घर वाले ताने देते – “अरे यह बाई अपने बेटे को पढ़ा रही है। कल को बड़ा आदमी बनेगा क्या?”
गोमती सिर्फ मुस्कुरा देती।
एक दिन अमित ने मां से कहा, “मां, लोग आपको तंग करते हैं तो मैं नौकरी कर लूं।”
गोमती ने डांट दिया, “चुप कर! पढ़ाई छोड़ने का नाम मत लेना। तेरी किताब ही तेरी तलवार है।”
धीरे-धीरे साल गुजरते गए।
अमित कॉलेज से पास होकर सिविल सेवा की तैयारी करने लगा।
मां और बेटे दोनों के सपनों में अब सिर्फ एक ही मंजिल थी – अफसर बनना।
संघर्ष और सफलता
बरामदे में गठरी पर बैठी गोमती की आंखें भीग गईं।
उन्हें याद आया कि कितनी ठोकरें खाकर उन्होंने बेटे को इस मुकाम तक पहुंचाया था।
लेकिन आज वही बेटा उनके सामने खड़ा होकर कह चुका था – “आप कौन हैं? मुझे नहीं जानते।”
उनकी छाती में दर्द और गहरा हो गया।
अमित ने दसवीं में पूरे जिले में टॉप किया था।
गांव के मास्टर जी ने कहा था, “अमित, तुम IAS बन सकते हो। बस लगन चाहिए।”
यह सुनकर अमित की आंखें चमक उठीं।
लेकिन गोमती को भीतर ही भीतर डर था – “IAS क्या हमारी हैसियत से बाहर तो नहीं?”
पढ़ाई के लिए अमित को गया से पटना जाना पड़ा।
वहां कोचिंग, रहना, किताबें – सबके लिए पैसे चाहिए थे।
गोमती ने घर का एकमात्र गहना – अपनी शादी का मंगलसूत्र – बेच दिया।
बिचोलिया ज्वेलर ने कहा, “अम्मा, यह पुराना है, ज्यादा दाम नहीं मिलेगा।”
लेकिन गोमती ने बिना बहस किए मंगलसूत्र थमा दिया।
वो रात जब अमित सोया हुआ था, गोमती आंचल में सिर दबाकर चुपचाप रो रही थी – “भगवान, मैं विधवा हूं, पर मेरा बेटा कभी जिंदगी की आंखों में विधवा ना हो। उसका सपना कभी अधूरा ना रहे।”
पटना की भीड़-भाड़ में अमित खो गया था।
किराए का छोटा सा कमरा, जहां खिड़की से सिर्फ दीवार दिखती थी।
दिन-रात पढ़ाई, नोट्स बनाना और मां की चिट्ठियां पढ़कर मोटिवेशन लेना – यही उसकी जिंदगी थी।
गोमती हर महीने पैसे भेजती – कभी खेतों में मजदूरी करके, कभी दूसरों के घरों में काम करके।
पड़ोस की औरतें ताना मारतीं – “अरे गोमती, बेटा तो कलेक्टर बनेगा, तू तो मजदूरी में ही मरी जाएगी।”
गोमती बस मुस्कुरा देती – “अगर मेरी हड्डियां घिसकर भी उसका भविष्य बन जाए तो यह सौदा मंजूर है।”
तीन साल की मेहनत के बाद अमित पहली बार UPSC की परीक्षा में बैठा।
परिणाम आया – फेल।
अमित ने मां को पत्र लिखा – “अम्मा, शायद मैं इस काबिल नहीं हूं।”
गोमती ने जवाब दिया – “बेटा, अगर बीज को जमीन में डाला जाए और वह तुरंत ना अंकुराए तो क्या किसान उसे फेंक देता है? नहीं, पानी देता है, इंतजार करता है। तू मेरा बीज है अमित, तुझे अंकुराना ही होगा।”
अब घर का राशन चलाना भी मुश्किल हो गया।
गोमती ने अपना छोटा घर भी गिरवी रख दिया।
पड़ोसी बोले – “पगली है यह औरत, बेटे के पीछे सब कुछ लुटा रही है।”
लेकिन गोमती का विश्वास अडिग था – “मेरा बेटा जब अफसर बनेगा, तब यही पड़ोसी सिर झुकाकर सलाम करेंगे।”
अमित ने और ज्यादा जी-जान लगाई।
रात-रात भर जागकर पढ़ना, अखबार काटकर नोट्स बनाना और हर सुबह मां की चिट्ठी पढ़ना – यही उसकी ताकत बन गया।
फिर वो दिन आया – नतीजे की सुबह।
अमित की आंखों से आंसू बह निकले। उसकी रैंक थी – ऑल इंडिया रैंक पांच।
उसने मां को फोन किया – “अम्मा, तुम्हारा बेटा अब अफसर बन गया है।”
गोमती ने फोन पकड़ते हुए जमीन को छूकर माथे से लगाया – “आज तेरे बापू की आत्मा भी चैन से सोएगी बेटा।”
पूरा गांव उमड़ पड़ा। ढोल-नगाड़े बजने लगे।
लोग कहते – “यह देखो, गोमती का बेटा IAS बन गया। हम सोचते थे यह औरत पगली है, पर आज सबको जवाब मिल गया।”
लेकिन उस भीड़ में गोमती बस चुपचाप अपने आंचल में आंसू छुपा रही थी।
वह जानती थी – यह सफलता उसकी नहीं, बल्कि उसके त्याग की कीमत थी।
नई दुनिया, नई दूरी
अब अमित की पोस्टिंग रांची में हुई।
वहां उसकी नई जिंदगी शुरू हुई – बड़ा घर, चमचमाती गाड़ी, अफसरों की मीटिंग्स, सब कुछ।
लेकिन इस नई दुनिया में धीरे-धीरे एक फासला बढ़ने लगा।
अमित की शादी हुई नेहा से – जो एक बड़े बिजनेस घराने की बेटी थी।
शादी में गांव की ज्यादा पहचान का कोई नहीं बुलाया गया।
गोमती को कोने में बैठा दिया गया।
नेहा की नजरें नीचे झुक जाती जब कोई पूछता – “यह बुजुर्ग औरत कौन है?”
अमित अक्सर कह देता – “वो मेरी दूर की रिश्तेदार है।”
गोमती का दिल रो पड़ा।
जिस बेटे को पालने में मैंने अपनी पूरी जिंदगी दे दी, आज वह मुझे पहचान से भी दूर कर रहा है।
रांची के पुराने मोहल्ले में वह दिन किसी त्यौहार से कम नहीं था।
मोहल्ले के हर बच्चे, बूढ़े और औरत की आंखों में चमक थी – क्योंकि उसी मोहल्ले का बेटा अमित वर्मा आज IAS अफसर बन गया था।
लोग ढोल बजा रहे थे, पटाखे फूट रहे थे, और भीड़ उमड़ पड़ी थी।
“देखो-देखो, गोमती बहन का बेटा कलेक्टर बन गया। हमारे मोहल्ले का नाम रोशन कर दिया रे अमित ने।”
मगर इस भीड़ में एक और चेहरा था – गोमती देवी।
सफेद साड़ी में, चेहरे पर झुर्रियां और थकी आंखों के बावजूद उस दिन उनकी आंखों में भी चमक थी।
उनकी हथेलियों से आंसू गिरते जा रहे थे और वह बार-बार हाथ जोड़कर आसमान की तरफ देखती – “हे प्रभु, तेरे ही भरोसे था यह सफर। आज मेरे बेटे को मुकाम मिला है।”
अमित मंच पर बैठा था। मालाओं से लदा, फूलों की बारिश हो रही थी।
मीडिया वाले उसकी तस्वीरें ले रहे थे।
लोग उसकी तारीफ करते नहीं थक रहे थे – “अमित बाबू, आप हमारे शहर का गर्व हो।”
भीड़ में खड़ी गोमती देवी की आंखें बार-बार बेटे को खोज रही थी।
उनका मन कह रहा था – “बस एक बार मेरी तरफ देख ले, बस एक बार मां कह दे।”
मगर उस मंच से अमित की नजरें बार-बार भीड़ में जाकर भी अपनी मां से मिलने से कतराती।
क्योंकि अब उसके दिल में एक डर था –
डर कि अगर मां को सबके सामने गले लगाया तो उसकी झुग्गी-झोपड़ी वाली असली कहानी सबके सामने खुल जाएगी।
अमित अब IAS ट्रेनी था।
उसे नई दुनिया मिली थी – बड़े अफसरों की पार्टियां, अंग्रेजी में बातें करने वाले दोस्त और रांची के हाई प्रोफाइल लोगों का साथ।
वहीं दूसरी तरफ मां अभी भी उसी टूटी हुई कोठरी में रहती थी – मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाना, रोजाना के ताने सुनना और अकेलेपन से जूझना।
मोहल्ले वाले अब भी उनका सम्मान करते थे।
लेकिन गोमती देवी के दिल को यह चुभता था – जिस बेटे के लिए मैंने सब कुछ सहा, वही बेटा अब मुझे छुपाने लगा है।
अंतिम मिलन
रांची के उस विशाल बंगले के सामने, जिसकी दीवारें संगमरमर से सजी थीं और छतों पर क्रिस्टल की झूमरें चमकती थीं,
आज एक बूढ़ी औरत अपने कांपते पैरों के सहारे खड़ी थी।
गोमती देवी – उम्र ने चेहरा झुर्रियों से ढक दिया था, आंखों की रोशनी धुंधली पड़ चुकी थी और हाथ में एक पुरानी गठरी थी, जिसमें ना तो कोई गहना था, ना कीमती कपड़ा – सिर्फ उनकी पूरी जिंदगी की यादें थीं।
दरवाजे पर खड़ा चौकीदार जब उन्हें देखता है तो हंसकर कहता है,
“अरे अम्मा, कहां चली आई? यह कोई झोपड़ी नहीं है, यह तो बड़े साहब का बंगला है।”
गोमती देवी धीमी आवाज में बोली,
“बेटा, साहब ही तो मेरा बेटा है। अमित वर्मा – वही मेरा लाल है।”
चौकीदार ठठा कर हंस पड़ा – “क्या अम्मा, आप जैसे तो रोज आते हैं। हर कोई कहता है मैं उसका बाप हूं, मैं उसकी मां हूं। चलिए कहीं और जाइए।”
लेकिन तभी भीतर से नेहा की आवाज आई – “कौन है बाहर इतना शोर मचा रहा है?”
दरवाजा खुला और सामने खड़ी थी नेहा – सजीध भारी गहनों में लिपटी हुई।
उसने जैसे ही उस बूढ़ी औरत को देखा, उसका चेहरा सख्त हो गया – “कौन हो तुम?”
गोमती देवी ने कांपती आवाज में कहा,
“बहू, मैं तेरी सास हूं। अमित की मां, गांव से आई हूं।”
नेहा का चेहरा लाल हो गया। उसने गुस्से से चौकीदार को इशारा किया – “इनको बाहर करो। यह पागल औरत है। अमित की मां गांव में कब की मर चुकी है। हमने खुद सुना था।”
गोमती देवी की आंखों से आंसू बहने लगे – “नहीं बहू, मैं जिंदा हूं। मैंने ही अमित को बड़ा किया है। भूखी रहकर उसे पढ़ाया है। एक बार बुला दो, मेरा बेटा मुझे पहचान लेगा।”
इतने में अमित वर्मा सीढ़ियों से उतरता है – सफेद शर्ट, ब्लैक पैंट, हाथ में मोबाइल, पूरी तरह अफसर की शान लिए।
उसने जैसे ही मां को देखा, उसके कदम रुक गए। चेहरा तंग गया – “कौन है यह औरत?”
नेहा ने तुरंत कहा, “यह पागल औरत खुद को तुम्हारी मां कह रही है। कहती है गांव से आई है।”
अमित कुछ पल चुप रहा, मां की आंखों में झांकने की कोशिश की। लेकिन फिर नजर फेर ली – “सिक्योरिटी, इनको बाहर निकालो। यह मेरी मां नहीं है। मेरी मां तो कब की गुजर चुकी है।”
गोमती देवी का दिल चीर गया – “अमित, तू सच में मुझे नहीं पहचानता? मैं ही हूं, जिसने तुझे अपनी भूख मार कर पढ़ाया। तेरे लिए दिन-रात मेहनत की। बेटा, मैं तेरी मां हूं।”
अमित का चेहरा कठोर रहा – “मैं कह चुका हूं, मेरी मां नहीं हो तुम।”
सिक्योरिटी ने उनका हाथ पकड़ कर गेट की ओर धकेल दिया। गठरी नीचे गिर गई। उसमें से पुराने कपड़े और कुछ पीली पड़ी तस्वीरें जमीन पर बिखर गई।
गोमती देवी ने कांपते हाथों से तस्वीर उठाई – वह तस्वीर जिसमें नन्हा अमित उनकी गोद में बैठा था, माटी से सना हुआ और पीछे गांव का कच्चा घर दिख रहा था।
उन्होंने तस्वीर उठाकर अमित की ओर बढ़ाई – “यह देख, तू ही है इसमें मेरी गोद में।”
अमित ने एक पल तस्वीर देखी, लेकिन फिर सिर घुमा लिया – “ले जाओ इस औरत को यहां से।”
उस रात बरामदे के कोने में बैठकर गोमती देवी ने आंसू पोंछे और अपनी गठरी से एक पुरानी डायरी निकाली।
कांपते हाथों से लिखना शुरू किया –
“बेटा अमित, आज मैं तेरे दरवाजे पर खड़ी थी। लेकिन तूने मुझे पहचाना नहीं। शायद अफसर बनने के लिए तुझे अपनी मां से शर्म आने लगी है। मैं वही मां हूं जिसने तुझे भूख से बचाया, जिसके पैरों में छाले पड़ गए, पर तुझे पढ़ाई से पीछे नहीं हटने दिया। मैं तुझसे कुछ नहीं चाहती, बस इतना कि तू एक बार मां कह कर बुला ले। पर शायद अब तेरे लिए मैं बोझ हूं। जब यह खत पढ़ेगा, मैं तेरे दरवाजे से बहुत दूर जा चुकी होंगी।”
अगली सुबह सिक्योरिटी ने अमित के टेबल पर वो डायरी और तस्वीर रख दी – “साहब, वो बूढ़ी औरत यह छोड़ गई थी।”
अमित ने जैसे ही खत खोला, आंखें पढ़ते-पढ़ते भर आईं।
हर शब्द उसकी रूह को चीर रहा था।
उसे याद आया – मां का फटा आंचल, भूख के बावजूद उसे रोटी खिलाना, रातों को लालटेन की रोशनी में उसका होमवर्क कराना, खेतों में मजदूरी करते-करते हाथों पर पड़े छाले।
अमित की सांसें भारी हो गईं।
उसने तुरंत बाहर दौड़ लगाई, सड़क पर भागा – “मां, मां, कहां हो?”
लेकिन सामने सड़क पर सिर्फ एक भीड़ थी।
भीड़ के बीच कोई धीरे-धीरे चलती हुई दूर जा रही थी – गठरी कांधे पर थी, चाल बहुत कमजोर।
अमित ने दौड़कर आवाज दी – “मां, मां, रुक जाओ। मैं आ गया हूं। तेरे अमित ने तुझे पहचान लिया।”
लेकिन जब तक वो पहुंचा, बस सड़क पर गठरी पड़ी थी और लोग कह रहे थे – “बेचारी रास्ते में ही गिर गई।”
अमित घुटनों के बल गिर पड़ा।
मां उसकी बाहों में थी, लेकिन सांसें थम चुकी थी।
शहर की सबसे बड़ी चिता पर भीड़ लगी थी।
अफसर अमित वर्मा रो रहा था, गिड़गिड़ा रहा था – “लोगों, देखो यही मेरी मां थी, जिसने मुझे सब कुछ दिया। मैंने इन्हें नहीं पहचाना। मैं पापी हूं। काश एक बार मां कह पाता।”
धुएं की लपटें आसमान में उठीं।
गोमती देवी की राख हवा में घुल गई।
अमित की आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
बंगले की दीवारें अब उसे सुनसान लग रही थी।
सीख
मां-बाप कभी बोझ नहीं होते।
उनकी गरीबी, उनका त्याग, उनकी मेहनत ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी होती है।
अगर उन्हें पहचानने से इंकार करेंगे, तो जिंदगी भर पछताना पड़ेगा।
दोस्तों, यह थी कहानी एक कलेक्टर साहब की, जिसने अपनी मां को पहचानने से मना कर दिया था।
जबकि उसकी मां ने उसे पाल-पोस कर इसलिए बड़ा नहीं किया था।
आप क्या कहना चाहते हो? कलेक्टर के बारे में, उसकी मां के बारे में, उसकी पत्नी के बारे में – अपनी राय कमेंट सेक्शन में जरूर लिखिए।
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तब तक के लिए – जय हिंद, जय भारत।
समाप्त।
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