UPSC की तैयारी कर रही लड़की अकेले ट्रेन से घर लौट रही थी….एक अजनबी मिला,फिर जो हुआ।…

दिल्ली की दोपहर थी। हवा में गर्मी का कंपन था और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर लोग ऐसे भाग रहे थे जैसे हर किसी को कहीं बहुत जल्दी पहुंचना हो। उस भीड़ में एक लड़की खड़ी थी, गोरी, शांत लेकिन थकी हुई आंखों वाली, जिसकी चाल में आत्मविश्वास था लेकिन चेहरे पर थोड़ी बेचैनी। उसका नाम था रागिनी, उम्र 24 साल, जो करोल बाग के एक छोटे से कमरे में रहकर यूपीएससी की तैयारी कर रही थी। तीन साल से लगातार कोशिशें, असफलताएं और उम्मीदों के बीच झूलती उसकी जिंदगी आज थोड़ा थमने जा रही थी। छुट्टियों में वह अपने गांव लौट रही थी और स्टेशन की भागदौड़ में भी उसके मन में बस एक ही ख्याल था – थोड़ी शांति मिले। शायद मां के हाथ की रोटी मिल जाए। शायद खुद से थोड़ा सामना हो सके।

ट्रेन का सफर

ट्रेन का नाम था वैशाली एक्सप्रेस, कोच एस5, सीट नंबर 31। उसने बैग को खींचते हुए सीट पर रखा, सांस ली और खिड़की के पास बैठ गई। बाहर धूप में तपती पटरियों पर दूर तक लहराता धुआं दिख रहा था। उसने बैग से किताब निकाली – “भारतीय प्रशासन व्यवस्था” और मन ही मन खुद से कहा, “अगली बार फेल नहीं होंगी। अबकी बार जरूर निकालूंगी।” ट्रेन की सीटी बजी, झटका लगा और धीरे-धीरे प्लेटफार्म पीछे छूटने लगा। तभी उसके सामने एक आवाज आई, “मैडम, जरा सरकिएगा। यह मेरी सीट है।”

रागिनी ने किताब से नजरें उठाई और देखा एक लड़का खड़ा था। उम्र करीब 28-29, साधारण चेहरे वाला लेकिन आत्मविश्वास से भरा हुआ। उसने मुस्कुराते हुए फिर कहा, “जी, सीट नंबर 31 एस5।” रागिनी ने भौंहें चढ़ाईं। “माफ कीजिए, यह मेरी रिजर्व सीट है। आप गलत जगह आ गए हैं।” लड़के ने हंसते हुए कहा, “नहीं मैडम, टिकट मेरे पास भी यही नंबर दिखा रहा है।”

विवाद की शुरुआत

उसके शब्दों में हल्कापन था लेकिन लहजे में दृढ़ता। रागिनी झुंझला गई। “देखिए मिस्टर, मैं किसी अजनबी को अपनी सीट पर नहीं बैठने दूंगी। मेरे पास कंफर्म टिकट है।” लड़के ने धीरे से कहा, “अजनबी हूं, पर टिकट लेकर आया हूं। हक मेरा भी है।” रागिनी ने किताब नीचे रखी। “मतलब आप जबरदस्ती बैठेंगे?” वो मुस्कुराया। “जबरदस्ती नहीं, बराबरी से बैठूंगा। अगर आपकी सीट है तो मेरी भी है।”

ट्रेन अब चल पड़ी थी, लेकिन सीट नंबर 31 पर जैसे युद्ध शुरू हो गया था। रागिनी की आवाज ऊंची होती जा रही थी। “आप हटिए यहां से!” लड़का, जिसका नाम सोहन था, शांत लेकिन अड़ियल अंदाज में बोला, “कहीं यह तो नहीं कि आप सोचती हैं, लड़की होने की वजह से हमेशा सही होंगी?” उसकी यह बात सुनकर रागिनी जैसे फट पड़ी। “आप मुझसे बहस मत कीजिए। मुझे गलत मत ठहराइए।”

लोगों की प्रतिक्रिया

आसपास के यात्री अब देखने लगे थे। कोई कह रहा था, “भाई साहब, लड़की अकेली है। सीट छोड़ दीजिए।” किसी ने कहा, “शर्म कीजिए, घर में बहन बेटी नहीं है क्या?” लेकिन सोहन की नजरें शांत थीं। जैसे किसी ने उसमें गुस्से की जगह सच्चाई भर दी हो। वो बोला, “अगर किसी को तकलीफ है तो कान बंद कर लो। मैं किसी को परेशान नहीं कर रहा। बस अपना हक मांग रहा हूं।”

उसके शब्दों का वजन पूरे डिब्बे में फैल गया। लोग चुप हो गए। रागिनी ने झुंझुलाकर पैर फैलाए और जानबूझकर इस तरह लेट गई कि उसका पैर सोहन से टकरा जाए। उसने ठंडी मुस्कान के साथ कहा, “मैडम, इतना गुस्सा मत कीजिए। धैर्य भी कोई चीज होती है।” रागिनी बोली, “सीट मेरी है। मैं जैसे चाहूं बैठूं, लेटूं या लात मारूं। आपको रोकने का कोई हक नहीं।”

सोहन बोला, “और मुझे भी कोई हक नहीं कि आपकी बात मान लूं। तो फिर बैठिए, लात मारिए, लेकिन मैं हटने वाला नहीं।” उनकी बहस अब जैसे खेल बन चुकी थी। वो दोनों ही अपनी जगह पर अड़े थे – एक अधिकार के लिए, दूसरा आत्मसम्मान के लिए।

टीटी का आगमन

एक घंटे बाद टीटी आया और माहौल बदल गया। “टिकट दिखाइए मैडम,” उसने कहा। रागिनी ने बैग खोला, फिर चौंक गई। “सर, मेरा पर्स शायद कमरे में रह गया। उसमें टिकट, आईडी सब था।” टीटी सख्त आवाज में बोला, “नाम देखने का सिस्टम नहीं है। टिकट दिखाना पड़ेगा, वरना चालान लगेगा।” रागिनी के चेहरे का रंग उड़ गया। उसकी आवाज धीमी पड़ गई। “सर, मेरे पास पैसे नहीं हैं। बस किराया लेकर निकली थी।”

आसपास के लोग धीरे-धीरे फुसफुसाने लगे। टीटी बोला, “तो अब चालान लगेगा। उतरना पड़ेगा अगले स्टेशन पर।” उसकी आंखों में आंसू आ गए। तभी सोहन उठा और बोला, “सर, टिकट बना दीजिए। पैसे मैं दे दूंगा।” सब लोग चौंक गए। टीटी ने पूछा, “तुम्हारा टिकट दिखाओ।” उसने टिकट दिखाया – “फर्स्ट क्लास वेटिंग लिस्ट।”

सोहन की मदद

टीटी ने पूछा, “तो फिर यहां क्यों बैठे हो?” सोहन शांत स्वर में बोला, “क्योंकि इंसानियत क्लास देखकर नहीं आती। और अगर मेरे पैसे किसी की मदद में लग जाएं तो वही मेरी असली क्लास है।” उस पर डिब्बा बिल्कुल शांत हो गया। टीटी ने पैसे लिए, टिकट बनाया और चला गया। रागिनी का सिर झुक गया। उसने धीमे स्वर में कहा, “आपने मेरे लिए ₹1000 दे दिए। क्यों?”

सोहन मुस्कुराया। “कभी-कभी किसी को उसकी गलती का एहसास कराने के लिए उसे बचाना जरूरी होता है।” रागिनी कुछ पल उसे देखती रही। उसकी आंखों में शर्म भी थी और एक अजीब सी कृतज्ञता भी। उसने धीरे से कहा, “अब आप बैठ जाइए। आधी सीट आपकी, आधी मेरी।” सोहन बोला, “अब डर लग रहा है। कहीं फिर लात ना चल जाए।”

नई दोस्ती की शुरुआत

रागिनी के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई। “अब नहीं चलेगी। अब शर्म आ रही है।” ट्रेन अपनी रफ्तार में थी। हवा खिड़की से अंदर आ रही थी। बाहर खेतों की परछाइयां भाग रही थीं। अंदर दो अजनबी थे जो कुछ देर पहले झगड़ रहे थे। अब खामोश थे, लेकिन उस खामोशी में भी एक अजीब सा अपनापन था।

कुछ देर बाद सोहन ने पूछा, “आप क्या पढ़ रही हैं?” रागिनी ने किताब उठाई। “यूपीएससी की तैयारी कर रही हूं। तीन साल से कोशिश कर रही हूं। दो बार प्री निकला लेकिन मेंस में अटक जाती हूं।” सोहन बोला, “शायद आपकी स्ट्रेटजी गलत है।” रागिनी चौकी। “आपको कैसे पता?” वो बोला, “क्योंकि इंटरव्यू का चेहरा मेंस के जवाबों में दिखना चाहिए और आप शायद दोनों को अलग रखती हैं।”

सोहन का अनुभव

रागिनी ने पूछा, “आप कोचिंग पढ़ाते हैं क्या?” वो हंसा। “पहले पढ़ाता था। अब नहीं, अब अफसर हूं।” रागिनी ने आंखें बड़ी की। “मतलब आप?” “हां,” सोहन बोला, “बिहार प्रशासनिक सेवा में नायब तहसीलदार।” रागिनी जैसे पत्थर की मूर्ति बन गई। वो बोली, “आप वही हैं जिसे मैंने ट्रेन में लात मारी थी।” सोहन मुस्कुराया। “हां वही। और अब वो लात नहीं, किस्मत का इशारा लगती है।”

दोनों हंसे और उस हंसी में एक नई शुरुआत छिपी थी। बाहर रात गहराने लगी थी। ट्रेन की आवाज धीरे-धीरे दिल की धड़कनों जैसी लगने लगी थी। रागिनी ने किताब बंद कर दी। अब दोनों एक ही सीट पर बैठे थे, कुछ दूरी पर। पर दिलों के बीच अब कोई दूरी नहीं रही।

सपनों की बात

वो एक रात थी जो सिर्फ सफर की नहीं, बल्कि दो जिंदगियों के मिलन की थी। सीट नंबर 31 अब सिर्फ एक नंबर नहीं था। वो एक कहानी की शुरुआत थी। ट्रेन अब अपनी रफ्तार पर थी। रात धीरे-धीरे उतर रही थी। कोचेस पांच की लाइटें थोड़ी धीमी कर दी गई थीं और बाहर अंधेरे में कभी-कभी बिजली के तारों पर चमकती रोशनी ऐसे गुजर रही थी जैसे किसी पुराने गीत की ताल पर वक्त नाच रहा हो।

रागिनी खिड़की से बाहर देख रही थी। खेत खलिहान, कभी-कभी कोई स्टेशन का धुंधला बोर्ड और कहीं की टिमटिमाती पीली लाइट। वो चाहकर भी उस बेचैनी को शांत नहीं कर पा रही थी जो उसके भीतर उठ रही थी। उसने एक गहरी सांस ली जैसे दिल का बोझ उतारना चाहा हो। लेकिन उसके ठीक सामने बैठा था सोहन, जिसकी आंखों में ना जाने कैसी शांति थी।

संवाद और समझ

सोहन ने धीरे से कहा, “आप बहुत मेहनती लगती हैं, पर थकी हुई भी। क्या यूपीएससी की तैयारी में इतना सब कुछ झोंक दिया आपने?” रागिनी ने बिना नजर उठाए जवाब दिया, “जब सपने बड़े होते हैं तो थकान भी बड़ी हो जाती है। बस उम्मीद छोटी नहीं पड़नी चाहिए।” उसकी आवाज में एक सच्ची ईमानदारी थी। वो जज्बा जो किसी और के लिए नहीं, खुद को साबित करने के लिए जलता है।

सोहन मुस्कुराया। “आपकी बातों में आग है लेकिन आपकी आंखों में नींद भी। लगता है सफर में आराम नहीं करती।” रागिनी ने हल्की हंसी में कहा, “आराम का वक्त कहा है सर, जब-जब लेटती हूं, लगता है कोई और मुझसे आगे निकल जाएगा।” वो शब्द सुनकर सोहन कुछ पल चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “हर किसी का सफर अलग होता है। कोई तेज भागता है, कोई देर से पर पहुंचता। बस जरूरत है थोड़ा रुककर सांस लेने की।”

नए रिश्ते का एहसास

रागिनी ने उसकी ओर देखा। पहली बार उसकी आंखों में कोई झुंझुलाहट नहीं थी। बस जिज्ञासा थी। “आपको कैसे पता इतनी बातें? आप खुद भी यूपीएससी के विद्यार्थी रहे होंगे शायद।” सोहन ने मुस्कुराकर सिर झुकाया। “हां, तीन साल तक दौड़ लगाई। दो बार प्री में गिरा। तीसरी बार मेंस तक पहुंचा। लेकिन जब पीसीएस का रिजल्ट आया तो लगा शायद जिंदगी ने मेरा रास्ता बदल दिया।”

उसने खिड़की के बाहर देखा जैसे अंधेरे में अपना पुराना दर्द ढूंढ रहा हो। रागिनी ने पूछा, “तो आपने छोड़ दिया?” सोहन बोला, “नहीं, जिंदगी ने नहीं छोड़ा। बस मोड़ दिया। अब वही मेहनत दूसरों के लिए करता हूं। अफसर तो हूं। लेकिन अफसरी से ज्यादा इंसानियत में यकीन रखता हूं।”

सपनों की उड़ान

वह वाक्य रागिनी के भीतर उतर गया। उसे एहसास हुआ कि कभी-कभी जिंदगी में मिलने वाले लोग शिक्षक नहीं होते। लेकिन एक बात कहकर जीवन की दिशा बदल देते हैं। ट्रेन अब कहीं बिहार के मैदानों से गुजर रही थी। डिब्बे में सबके सिर सीट की दीवारों से टिके हुए थे। कोई खर्राटे ले रहा था। कोई धीरे-धीरे उंग रहा था।

लेकिन सीट नंबर 31 पर एक अलग ही दुनिया चल रही थी। सोहन ने अपने बैग से कुछ चिप्स और कोल्ड ड्रिंक निकाले और बोला, “भूख लगी होगी। लीजिए, थोड़ा खा लीजिए।” रागिनी ने पहले मना किया। “नहीं, मुझे भूख नहीं है।” वो मुस्कुराया। “भूख नहीं है या शर्मा रही है?” उसने धीरे से मुस्कुराकर पैकेट ले लिया।

खुले दिल की बातें

वो पल ऐसा था जैसे दो अजनबी भी नहीं, दो पुराने दोस्त बैठे हों जो पहली बार खुलकर बात कर रहे हों। कुछ देर बाद दोनों बातें करने लगे करियर की, समाज की और लड़की होकर सपने देखने की मुश्किलों की। रागिनी ने कहा, “आप जानते हैं सर, सबसे कठिन चीज सिर्फ परीक्षा पास करना नहीं होता, बल्कि हर दिन उस नजर से गुजरना होता है जो कहती है, ‘लड़की है। कहां बन पाएगी?’”

सोहन ने गहरी नजरों से उसकी ओर देखा और कहा, “लोगों की नजरें तो तब भी कुछ ना कुछ कहती रहेंगी लेकिन आपकी मंजिल आपके कदम तय करेंगे। आपने खुद को जितना मजबूत बना लिया है, अब किसी को कुछ साबित करने की जरूरत नहीं।” वो शब्द जैसे रागिनी के भीतर कहीं गहराई तक उतर गए। उसकी आंखें भर आईं। पर वो मुस्कुराई और बोली, “कभी-कभी सोचती हूं, क्या सच में मेहनत एक दिन रंग लाएगी?”

सपनों की सच्चाई

सोहन ने कहा, “रंग लाएगी और वह भी ऐसा कि दुनिया देखती रह जाएगी। बस यकीन रखना है।” रागिनी ने पहली बार महसूस किया कि कोई उसे समझ रहा है बिना उसे जज किए। रात के 11:00 बज चुके थे। कोच की लाइटें और मध्यम हो गईं। बाहर सन्नाटा था। बस ट्रेन की धकधक की आवाज और ठंडी हवा की सरसराहट।

रागिनी ने धीरे से कहा, “आप सो जाइए सर। लंबा सफर है।” सोहन हंसा, “नहीं, यह तो अन्याय होगा। आपकी सीट है और आप किनारे बैठे, यह मुझे मंजूर नहीं। आधी-आधी जगह कर लेते हैं।” रागिनी ने हल्के संकोच से सिर झुकाया और दोनों थोड़ा-थोड़ा खिसक कर एक ही सीट पर बैठ गए।

कुछ मिनट बीते ही थे कि रागिनी की पलकों पर नींद उतर आई। उसका सिर डगमगाया और अनजाने में सोहन के कंधे पर टिक गया। वो चौका नहीं, बस मुस्कुराया और चुपचाप बाहर देखने लगा। खिड़की के बाहर अंधेरा, अंदर एक अनकहा सुकून।

एक नया एहसास

वो जानता था कि यह पल किसी कहानी का हिस्सा बन चुका है। थोड़ी देर बाद रागिनी नींद में बड़बड़ाई, “मां, एग्जाम दे हो जाएगी।” और सोहन ने धीरे से उसके सिर पर हाथ रख दिया। वह स्पर्श किसी भाई का भी था, किसी अपने का भी। रागिनी मुस्कुरा दी जैसे किसी सुकून भरे सपने में चली गई हो।

रात यूं ही गुजरती रही। ट्रेन की रफ्तार, हवा का शोर और बीच में दो धड़कनों की लय। वो रात शायद किसी फिल्म की कहानी जैसी थी। सुबह 4:00 बजे ट्रेन एक छोटे स्टेशन पर रुकी। प्लेटफार्म पर हल्की ठंडक थी। कुछ लोग चाय बेच रहे थे। तभी रागिनी की आंख खुली। उसने देखा कि उसका सिर सोहन के कंधे पर है।

सफर का अंत और नई शुरुआत

वह झटके से उठी। “सॉरी सर, मुझे पता नहीं चला।” सोहन मुस्कुराया। “कोई बात नहीं। नींद में इंसान खुद को भी नहीं पहचानता। अब तो मुझे आदत हो गई है।” रागिनी हंस पड़ी। उसकी हंसी में अब वो गुस्सा नहीं था। बस अपनापन था। कोच में कुछ लोग भी मुस्कुराने लगे। शायद उन्होंने रात का सारा दृश्य देखा था।

ट्रेन फिर आगे बढ़ी। सुबह की रोशनी खिड़कियों से अंदर आने लगी थी। धुंध के पार अब खेत साफ दिखने लगे थे। रागिनी ने धीरे से पूछा, “आप कहां तक जा रहे हैं?” सोहन बोला, “समस्तीपुर तक। वहां से अरिया ड्यूटी पर जाना है। आज छुट्टी थी तो सोचा दोस्तों से मिलने चला जाऊं।”

वो रुका। फिर मुस्कुरा कर बोला, “कल का टिकट था।” “लेकिन अगर कल आता तो शायद यह कहानी नहीं बनती।” रागिनी ने भी मुस्कुराते हुए कहा, “तो शुक्रिया सर, एक दिन की देरी ने शायद मेरी किस्मत बना दी।”

अजनबी से दोस्ती

सोहन ने उसकी ओर देखा। “कभी-कभी जिंदगी की सबसे खूबसूरत मुलाकात वही होती है जो हमारी प्लानिंग का हिस्सा नहीं होती।” ट्रेन की रफ्तार बढ़ी और सीट नंबर 31 पर बैठे वह दो अजनबी अब अजनबी नहीं रहे थे। उनके बीच कोई वादा नहीं था। लेकिन एक एहसास था कि अब सफर थोड़ा आसान होगा क्योंकि किसी ने उस दिन यह सिखा दिया था कि इंसानियत का किराया कभी ज्यादा नहीं होता।

नई सुबह का आगाज़

सुबह की हल्की धूप खिड़की के पर्दों से छनकर डिब्बे में फैल रही थी। ट्रेन अब अपनी मंजिल के करीब थी। समस्तीपुर स्टेशन कुछ ही मिनटों की दूरी पर था। कोच में लोग धीरे-धीरे जागने लगे थे। कोई अपने बैग संभाल रहा था। कोई झाड़ू लगाकर सीट साफ कर रहा था। लेकिन सीट नंबर 31 पर अब भी एक अलग सन्नाटा था। रागिनी खिड़की से बाहर झांक रही थी।

उसकी आंखों में नींद तो खत्म हो गई थी लेकिन मन में कुछ अनकहा बाकी था। रात भर की बातें, वो हंसी, वो झगड़ा और वो लम्हा जब उसका सिर अनजाने में सोहन के कंधे पर टिक गया था, यह सब अब बस याद नहीं, एहसास बन चुके थे। ट्रेन धीरे-धीरे रुकी, झटका लगा और जैसे ही उसने रुकने की आखिरी सीटी दी, बाहर का शोर डिब्बे में भर गया।

अलविदा या मिलन?

लोग उतरने के लिए भाग रहे थे। सोहन ने खिड़की से बाहर देखा। फिर शांत स्वर में कहा, “स्टेशन आ गया, सफर खत्म हुआ।” रागिनी ने उसकी ओर देखा। “सफर खत्म हुआ लेकिन बात शायद अब शुरू हुई है।” वो मुस्कुराई फिर धीरे से बोली, “धन्यवाद, कल रात अगर आप ना होते तो शायद मैं बहुत बड़ी मुश्किल में पड़ जाती।”

सोहन ने हल्की हंसी के साथ कहा, “धन्यवाद मत कहिए। कभी-कभी किसी को मदद देकर खुद को बेहतर समझने का मौका मिलता है।” ट्रेन रुक चुकी थी। प्लेटफार्म पर उतरते समय रागिनी ने अपना बैग उठाया। सोहन ने उसका भारी बैग पकड़ लिया। “मैं रख देता हूं।”

अजनबी से करीबी

रागिनी ने विरोध किया। “नहीं, मैं खुद रख लूंगी।” लेकिन फिर दोनों के बीच वो अनकही मुस्कान तैर गई जो हर बहस का जवाब होती है। स्टेशन के शोर के बीच वो दोनों कुछ देर साथ चले, प्लेटफार्म नंबर दो की तरफ। हवा में हल्की ठंडक थी और सुबह का उजाला धीरे-धीरे बढ़ रहा था।

रागिनी ने पूछा, “आप समस्तीपुर तक ही जा रहे हैं?” सोहन बोला, “यहीं तक, यहां से अरिया के लिए बस पकड़नी है।” “आप वो?” बोली, “मेरा गांव इसी रूट पर है। आगे दरभंगा के पास। हर बार छुट्टियों में यहीं उतरती हूं।” “मतलब यह तो आपका भी रास्ता निकला।” सोहन ने मुस्कुराते हुए कहा। “हां।”

खूबसूरत मुलाकात

रागिनी ने हल्के से सिर झुकाया। लेकिन इस बार का सफर थोड़ा अलग था। दोनों कुछ कदम चुप रहे। उनके बीच शब्दों की जरूरत अब कम थी। बस एक अजीब सी समझदारी ने जगह ले ली थी। प्लेटफार्म पर उतरते वक्त भीड़ थोड़ी बढ़ गई और उसी भीड़ में रागिनी का दुपट्टा फंस गया।

सोहन ने तुरंत झुक कर उसे छुड़ाया। “रागिनी ने कहा, धन्यवाद।” सोहन बोला, “फिर से धन्यवाद। आप तो हर बार औपचारिक हो जाती हैं।” वो मुस्कुराई। “आपको औपचारिकता पसंद नहीं?” सोहन ने जवाब दिया, “नहीं, सच्चाई पसंद है जो आंखों में दिखती है, शब्दों में नहीं।”

अंतिम अलविदा

प्लेटफार्म के आखिरी छोर तक दोनों साथ चले। रागिनी अब जाने को थी। उसने धीरे से कहा, “अगर कभी मिलना हुआ तो बताइएगा। मेरे पास तो आपका नंबर नहीं है।” सोहन ने मोबाइल निकाला, मुस्कुरा कर बोला, “आपका नंबर ले लेता हूं। कभी यूपीएससी की नोट्स के लिए काम आ सकता है।”

वो हल्के से हंसी। “नोट्स के बहाने नंबर मांगना थोड़ा फिल्मी नहीं है।” सोहन ने सिर झुका कर कहा, “फिल्मी हूं लेकिन सरकारी अफसर भी हूं। मतलब निभा सकता हूं जो कहता हूं।” रागिनी की हंसी में अब शर्म भी थी। अपनापन भी। उसने नंबर बताया और बिना कुछ कहे मुड़ गई।

नया अध्याय

वो दिन खत्म हुआ। लेकिन उस मुलाकात ने दोनों की जिंदगी में एक नया अध्याय लिख दिया था। कुछ दिन बीते, रागिनी अपने गांव पहुंची। मां के हाथ का खाना, बचपन की मिट्टी की खुशबू और वह पुराने कमरे की दीवारें। सब कुछ वैसा ही था। लेकिन उसके भीतर कुछ बदल गया था।

हर बार की तरह किताबें खोली, नोट्स बनाए। पर इस बार हर पन्ने में कहीं ना कहीं सोहन की बातें गूंज रही थीं। “इंटरव्यू का चेहरा मेंस के जवाबों में दिखना चाहिए।” वो शब्द जैसे उसकी दिशा बन गए थे।

सपनों की उड़ान

शाम को फोन की स्क्रीन जली। “सोहन।” “घर पहुंच गई।” रागिनी ने लिखा। “आप?” सोहन ने जवाब दिया, “ड्यूटी पर हूं। लेकिन अब यह ड्यूटी थोड़ी आसान लगती है।” रागिनी ने पूछा, “क्यों?” सोहन ने कहा, “क्योंकि अब एक इंसान जान गया हूं जो अपने सपनों से हार नहीं मानता।”

उसके बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। कभी पढ़ाई की बात, कभी रोजमर्रा की छोटी खुशियां, कभी बिना किसी कारण सिर्फ एक गुड नाइट। धीरे-धीरे वो गुड नाइट दिन की शुरुआत बन गया और गुड मॉर्निंग एक आदत। रागिनी ने अपने भीतर एक नई ऊर्जा महसूस की।

आत्मविश्वास का संचार

वह पहले से ज्यादा गंभीरता से तैयारी करने लगी। अब जब भी कोई विषय समझ नहीं आता, वो सीधे सोहन को कॉल करती। “सर, टाइम मैनेजमेंट कैसे सुधारूं?” सोहन हंसता। “मैडम, अफसर बनने के लिए पहले वक्त का अफसर बनना पड़ता है। और अगर मन टूट जाए, तो समझ लेना कि जीत बस एक कदम दूर है।”

रात के सन्नाटे में उनकी बातें घंटों चलतीं। रागिनी को अब हर बात में एक नई उम्मीद दिखने लगी थी। वह जानती थी कि शायद यह रिश्ता किसी नाम की जरूरत नहीं रखता। लेकिन उसमें सच्चाई थी। भरोसा था।

सफलता की ओर

कुछ महीने बीते। दिल्ली लौटकर उसने अपनी तैयारी फिर से शुरू की। कोचिंग, मॉक टेस्ट, नोट्स सब वैसा ही था। पर अब उसके भीतर वो आत्मविश्वास था जो कभी कमी थी। सोहन का हर मैसेज, हर कॉल जैसे उसे याद दिलाता था। “तुम हारने के लिए नहीं बनी।”

2022 का एग्जाम आया। उसने जी जान लगाकर परीक्षा दी। लेकिन जब रिजल्ट आया, नाम नहीं था। वह कुछ पल तक स्क्रीन को देखती रही। आंखें भर आईं। उसने धीरे से फोन उठाया और सोहन को कॉल किया। “सर, नहीं हुआ।”

सोहन ने चुपचाप सुना। फिर बोला, “ठीक है, रो लो। लेकिन कल से फिर शुरू करना।” “अब हिम्मत नहीं बची,” उसने धीमे स्वर में कहा।

संघर्ष का नया अध्याय

सोहन ने जवाब दिया, “जब-जब हिम्मत टूटे, याद रखना, किसी ने तुम्हें ट्रेन में लात खाने के बाद भी मुस्कुराया था। क्योंकि वह जानता था कि असली ताकत गिरने के बाद उठने में है।” वह पल रागिनी के लिए जैसे किसी दीपक की तरह था। उसने आंसू पोंछे और कहा, “आप हमेशा सही समय पर सही बात कह देते हैं।”

सोहन बोला, “क्योंकि मैं देख सकता हूं। आप वो लड़की हैं जो गिरकर भी खुद को और ऊंचा उठाती है।” वक्त बीतता गया। 2023 की परीक्षा आई और इस बार रागिनी का नाम उस लिस्ट में था जहां पहुंचने का सपना लाखों लोग देखते हैं। “आई एस चयन रागिनी शर्मा।”

नई शुरुआत

उसके हाथ कांप रहे थे। आंखों से आंसू गिर रहे थे। उसने पहला कॉल किया सोहन को। “फोन उठते ही उसने कहा, ‘सर, सीट मिल गई इस बार।’” दूसरी तरफ से हंसी आई, “31 नंबर सीट फिर से काम आई।” रागिनी की हंसी आंसुओं में बदल गई। “आपके बिना मैं शायद यह सफर पूरा नहीं कर पाती।”

सोहन ने जवाब दिया, “मेरा किरदार बस टिकट देने का था। सफर तो आपने खुद तय किया।” वह पल सिर्फ एक जीत का नहीं था बल्कि उन दोनों के दिलों में जन्मे उस रिश्ते का था जो ना वादे में बंधा था ना नाम में, लेकिन हर बात में सच्चा था।

सपनों की नई मंजिल

अब जिंदगी नई मंजिल की ओर बढ़ रही थी। रागिनी अपनी ट्रेनिंग के लिए मसूरी जाने वाली थी और सोहन ने कहा, “जब जाओगी, याद रखना, जिस स्टेशन से सफर शुरू हुआ था, वहीं से असल कहानी बनी थी।” रागिनी मुस्कुराई और जिस इंसान ने टिकट दिया था, उसने भरोसा भी दिया था।

मसूरी की ठंडी हवाओं में जब बादल नीचे उतर आते हैं और सुबह की धुंध चेहरे को छूती है तो हर चीज एक सपने जैसी लगती है। वही एहसास अब रागिनी शर्मा की जिंदगी में भी था। उसने वो कर दिखाया था जो तीन साल से उसके हर सपने का हिस्सा था। अब वह एक अफसर थी। देश की सेवा में कदम रखने जा रही थी।

बड़ी जिम्मेदारी

लेकिन उसके चेहरे पर सिर्फ जीत की चमक नहीं थी, बल्कि किसी को याद करने की गहराई भी थी – सोहन। वही सोहन जो एक ट्रेन के सफर में उसकी जिंदगी में आया था। एक झगड़े की वजह से, एक बहस से शुरू हुआ रिश्ता जो अब उसकी सांसों में उतर चुका था।

ट्रेनिंग के पहले दिन उसने पहाड़ों की ठंडी हवा में खड़े होकर आसमान की ओर देखा। जैसे खुद से कह रही हो, “अब सफर नया है। लेकिन उस 31 नंबर सीट ने मुझे जो सिखाया, वो कभी पुराना नहीं होगा।”

एक नया अध्याय

शाम को जब सब नए अफसर एक दूसरे से मिल रहे थे, बातें कर रहे थे, तो वह अपने कमरे की खिड़की के पास बैठी चाय पी रही थी। मोबाइल की स्क्रीन जली। “सोहन कॉलिंग।” वो मुस्कुराई और कॉल उठाई। “अरे अफसर साहिबा, अब तो सलाम करना पड़ेगा।” वो हंस पड़ी। “नहीं सर, आप नहीं समझेंगे। अगर उस दिन आप मेरे लिए टिकट के पैसे नहीं देते, तो शायद मैं आज यहां नहीं होती।”

सोहन ने कहा, “गलत कह रही हैं। अगर आपकी हिम्मत नहीं होती, तो पैसे भी काम नहीं आते।” उसकी आवाज में वही सुकून था जो उस रात ट्रेन के डिब्बे में था। धीमा, गहरा, सच्चा। दिन बीतते गए। रागिनी की ट्रेनिंग खत्म हुई।

सपनों का पूरा होना

जब वो अपने जिले में पोस्टिंग पर पहुंची तो सबसे पहले उसने अपने फोन पर एक मैसेज देखा। “आपकी ड्यूटी अब शुरू हुई। मेरी कहानी अब पूरी होनी है।” वो मुस्कुराई। लेकिन मन कहीं अंदर तक हिल गया। उसने फोन उठाया। “मतलब क्या है?”

सोहन बोला, “मतलब अब वक्त है उस सीट की कहानी को अंजाम देने का।” कुछ महीने बाद जब दोनों के परिवार मिले तो किसी ने यह नहीं कहा कि यह रिश्ता कितने साल पुराना है। क्योंकि किसी को यह मालूम ही नहीं था कि यह रिश्ता कितने लम्हों की गहराई से बना था।

सच्ची इंसानियत

सोहन का परिवार बिहार के मुजफ्फरपुर का था। साधारण लेकिन सच्चे लोग। और रागिनी का परिवार दरभंगा के पास एक छोटे कस्बे में। जहां अब हर कोई गौ से कहता था कि उनकी बेटी अफसर बन गई। लेकिन रागिनी ने कहा था, “मैं सिर्फ अफसर नहीं, इंसान भी बनी हूं। और इसका श्रेय किसी किताब को नहीं, एक मुसाफिर को जाता है।”

शादी का सपना

2024 की सर्दियों में पटना के एक खूबसूरत होटल के गार्डन में जब सूरज ढलने वाला था और लाल-पीली लाइटों से मंडप सजा था, तब रागिनी लाल जोड़े में खड़ी थी, मुस्कुराती, भावुक और थोड़ी नर्वस भी। पंडित मंत्र पढ़ रहे थे और चारों तरफ वही चेहरे थे जो उसके सफर के गवाह बने थे।

जब वरमाला लेकर वो मुड़ी तो सामने वही था सोहन। हल्के क्रीम रंग की शेरवानी में। चेहरे पर वही शांत मुस्कान जो पहली बार ट्रेन में देखी थी। वो पल किसी फिल्म से कम नहीं था। चारों तरफ फूलों की खुशबू, संगीत की धीमी धुन और उनके चारों ओर घूमते कैमरे। लेकिन उस भीड़ के बीच वो दोनों बस एक दूसरे को देख रहे थे।

नए सफर की शुरुआत

सोहन ने हल्के स्वर में कहा, “आपको याद है, आपने कहा था कि मैं जबरदस्ती सीट पर बैठा था?” रागिनी हंसी। “हां, और अब देखिए, जिंदगी की सबसे पक्की सीट आप ही के नाम हो गई।” दोनों हंस पड़े और उस हंसी में पूरी कहानी समा गई।

शादी के बाद की सुबह होटल के कमरे में जब सूरज की पहली किरण अंदर आई, रागिनी बालकनी में खड़ी थी। पहने हुए गहनों की खनक अब हल्की थी। लेकिन चेहरे की चमक नहीं थी। पीछे से सोहन ने आकर कहा, “अब कुछ सपना बाकी है।” वो बोली, “सपने तो खत्म नहीं होते सर। बस किरदार बदलते हैं। अब मेरा सपना यह है कि मैं किसी और की जिंदगी में वही उम्मीद बनूं जो आप मेरी जिंदगी में बने।”

निष्कर्ष

उस दिन से उनकी जिंदगी एक नया अध्याय बन गई। रागिनी ने अपने अफसर के रूप में जो भी काम किया, हर फैसले में वह इंसानियत झलकती थी जो उसने सोहन से सीखी थी। और जब भी कोई उससे पूछता, “आपकी सफलता का रहस्य क्या है?” वो मुस्कुरा कर कहती, “एक ट्रेन का सफर, एक सीट और एक इंसान।”

वक्त गुजरता गया। लेकिन कुछ चीजें कभी पुरानी नहीं होतीं। हर साल उनकी शादी की सालगिरह पर दोनों उस 31 नंबर सीट तक पहुंचते। वैशाली एक्सप्रेस के उसी डिब्बे में वो सीट अब भी वैसी ही थी, पुरानी हल्की सी घिसी हुई। लेकिन उसके पास बैठते ही हर बार वही एहसास लौट आता था।

सोहन कहता, “अगर उस दिन झगड़ा नहीं होता, तो शायद आज यह रिश्ता भी नहीं होता।” रागिनी मुस्कुराती। “कभी-कभी किस्मत को कहानी लिखने के लिए बहस की जरूरत होती है।”

अंतिम संदेश

एक दिन रागिनी ने ऑफिस से लौटते वक्त देखा। स्टेशन के बाहर एक लड़की खड़ी है। चेहरा डरा हुआ। आंखों में चिंता। वो पास गई और पूछा, “क्या हुआ?” लड़की बोली, “मेरा पर्स खो गया। टिकट नहीं है। कोई मेरी बात नहीं सुन रहा।” रागिनी मुस्कुराई। “टिकट नहीं है तो क्या हुआ? इंसानियत अभी बाकी है।”

उसने अपने पर्स से पैसे निकालकर टिकट खरीदी और लड़की से कहा, “याद रखना, जिंदगी में सबसे बड़ा रिजर्वेशन होता है किसी के दिल में जगह बनाना।” उस वक्त उसके होठों पर वही मुस्कान थी जो कभी सोहन के चेहरे पर थी।

कई साल बाद जब उन्होंने अपनी कहानी सुनाई तो लोगों की आंखें भर आईं। रागिनी ने कहा, “यह कहानी एक सीट की नहीं थी। यह उस सोच की थी जो बताती है, किसी को ऊपर उठाने के लिए बड़ा पद नहीं, बस बड़ा दिल चाहिए।” उसने हल्के स्वर में कहा, “और जानिए, सबसे खूबसूरत बात क्या थी? जिस सीट पर झगड़ा हुआ था, वहीं से भरोसा शुरू हुआ और वही सीट आज भी हमारे सफर की पहली मंजिल है।”

सोहन ने जोड़ा, “हम दोनों की कहानी यह सिखाती है कि कभी-कभी जिंदगी हमें उन्हीं लोगों से मिलवाती है जिनसे हम शुरू में भिड़ते हैं। क्योंकि वही लोग हमें बदलने की ताकत रखते हैं।”

फिर कैमरे की ओर देखते हुए रागिनी ने अपनी कहानी का आखिरी वाक्य कहा, “कभी किसी अजनबी को छोटा मत समझिए। क्या पता वही आपकी जिंदगी की सबसे खूबसूरत दिशा बदल दे।” वह मुस्कुराई और पीछे वैशाली एक्सप्रेस की सीटी गूंजी जैसे जिंदगी कह रही हो, “सफर अभी बाकी है।”

समापन

और अब सवाल आपसे, क्या कभी आपकी जिंदगी में भी कोई ऐसा अजनबी आया है जिसने सिर्फ एक मुलाकात में आपकी पूरी सोच बदल दी? नीचे कमेंट में जरूर बताइए क्योंकि हो सकता है आपकी कहानी भी किसी और की उम्मीद बन जाए।

अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी हो तो हमारे चैनल “कहानी घर बाय वीके” को सब्सक्राइब करें और मिलते हैं एक और नई सच्ची कहानी में। तब तक के लिए आप अपना और अपने परिवार का ख्याल रखें। जय हिंद, जय भारत!

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