अजनबी से मुलाक़ात: प्यार, भरोसा और दिल छू लेने वाली अनसुनी दास्तां
कहते हैं दोस्तों, कभी-कभी जिम्मेदारी इंसान को वहां पहुंचा देती है जहां तक उसके सपनों की भी उड़ान नहीं जाती। यही हुआ मनोज के साथ, जो भारत से रोटी-रोज़ी कमाने दुबई आया था। एक साधारण सा नौकर, जिसकी जिंदगी बस मेहनत और ईमानदारी में गुजर रही थी, अचानक से ऐसी कहानी का हिस्सा बन गया जिसने उसकी किस्मत ही बदल दी।
दुबई का एयरपोर्ट हमेशा की तरह चहल-पहल से भरा था। उस दिन शेख अहमद अल-फारसी यूरोप जा रहे थे। उनके साथ मनोज भी था, जो पिछले पांच साल से उनकी हवेली में नौकर की तरह काम कर रहा था। मनोज भारत के दिल्ली से आया था और उम्र मात्र 28 साल थी। मेहनती, ईमानदार और भरोसेमंद—यही उसकी पहचान थी।
प्लेन में बैठने से पहले शेख अहमद ने मनोज को अलग ले जाकर गंभीर स्वर में कहा—
“मनोज, मैं पांच दिनों के लिए बाहर जा रहा हूं। इस दौरान मेरी पत्नी आयशा का अच्छे से ख्याल रखना। उसे खुश रखना, जो कहे वही करना। कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए।”
मनोज ने सिर झुका कर कहा—“जी शेख साहब, आप निश्चिंत रहिए। मैं मालकिन का अच्छे से ध्यान रखूंगा।”
मनोज ने जब शेख को विदा किया और वापस विला लौट रहा था, तो उसके दिल में अजीब सी उथल-पुथल थी। शेख के शब्द बार-बार उसके कानों में गूंज रहे थे—“खुश रखना, जो कहे वही करना।”
हवेली पहुंचते ही उसने देखा कि आयशा बालकनी में खड़ी रेगिस्तान की ओर देख रही थी। चेहरा सुंदर था, मगर उदासी से घिरा हुआ। वह शेख की दूसरी पत्नी थी, भारत से आई थी और अब इस रेगिस्तानी जीवन में ढल चुकी थी। लेकिन शेख की व्यस्तता और घर की यादों ने उसके भीतर खालीपन भर दिया था।
मनोज ने हिचकिचाते हुए कहा—“मालकिन, शेख साहब रवाना हो गए हैं। आपको कुछ चाहिए?”
आयशा ने हल्की सी मुस्कान दी—“कुछ नहीं मनोज, बस अकेलापन लगता है।”
मनोज को शेख की बात याद आई—“खुश रखना।” उसने रसोई से ठंडा पानी लाकर दिया। लेकिन आयशा ने अचानक कहा—“मनोज, मुझे रेगिस्तान में घूमने का मन है। क्या तुम ले चलोगे?”
मनोज चौका। रात होने वाली थी, लेकिन उसने हामी भर दी। अगले दिन वह जीप में पानी, फल और ऊंट का दूध लेकर मालकिन को रेगिस्तान ले गया।
रेगिस्तान में उन्होंने तारों भरी रात देखी। आयशा ने ऊंट का दूध पिया और मुस्कुरा उठी—“मनोज, तुम बहुत अच्छे हो। शेख कभी इतना ध्यान नहीं देते।”
मनोज के दिल में हलचल मच गई। शेख ने कहा था खुश रखना, और आज पहली बार उसने आयशा को मुस्कुराते देखा था। रात ठंडी होती जा रही थी, तो आयशा ने धीरे से कहा—“मनोज, मुझे ठंड लग रही है। क्या हम साथ सो सकते हैं? बस गर्माहट के लिए।”
मनोज का दिल धड़क उठा, लेकिन शेख के शब्द याद आए। हिचकिचाहट के बाद उसने हामी भर दी। टेंट में दोनों एक ही कंबल में लेट गए। आंखें मिलीं, और धीरे-धीरे नज़दीकियां बढ़ गईं। उस रात आयशा की उदासी कहीं खो गई।
अगले दिन से यह सिलसिला शुरू हो गया। पांच दिन तक आयशा और मनोज रेगिस्तान में जाते, ऊंट का दूध पीते, बातें करते और एक-दूसरे के साथ वक्त बिताते। आयशा की आंखों से उदासी गायब हो चुकी थी। लेकिन मनोज के मन में डर बैठा था—अगर शेख को पता चला तो?
एक दिन मनोज ने आयशा को फोन पर सुना। वह कह रही थी—“हां, सब ठीक है। मनोज मेरा ख्याल रख रहा है। लेकिन जल्दी आओ।” मनोज चौंका। कौन था वह? शेख तो यूरोप में थे।
कुछ दिन बाद, अचानक शेख बिना बताए लौट आए। हवेली में हलचल मच गई। मनोज डर से कांप उठा। लेकिन शेख ने आयशा को गले लगाया और मनोज से मुस्कुराकर कहा—“तुमने सब संभाल लिया। शुक्रिया।” मनोज ने राहत की सांस ली, लेकिन देखा कि आयशा का चेहरा असहज था।
एक दिन मनोज को आयशा के कमरे में पड़ा एक पुराना पत्र मिला। उसमें लिखा था कि आयशा भारत के एक छोटे से गांव से आई थी। उसने समाज की रुढ़ियों से लड़कर अपनी पहचान बनाई थी, लेकिन परिवार की खातिर अपने सबसे बड़े सपने को छोड़ दिया। पत्र पढ़कर मनोज को एहसास हुआ कि आयशा सिर्फ एक अमीर घर की मालकिन नहीं, बल्कि एक जुझारू औरत थी जिसने जिंदगी की हर मुश्किल से जंग लड़ी थी।
इस पत्र ने मनोज की सोच बदल दी। उसने फैसला किया कि अब वह सिर्फ नौकर बनकर नहीं रहेगा। उसने शेख के भरोसे को निभाते हुए काम में नई जिम्मेदारियां लेनी शुरू कीं। धीरे-धीरे शेख ने उसकी मेहनत देखी और उसे बड़े प्रोजेक्ट्स की जिम्मेदारी सौंप दी।
मनोज और आयशा के बीच अब एक अलग रिश्ता था। आयशा ने कहा—“मनोज, तुमने मुझे खुश रहना सिखाया। तुमसे मुझे सहारा मिला।”
मनोज ने महसूस किया कि जिंदगी का असली सबक यही है—ईमानदारी और जिम्मेदारी कभी बेकार नहीं जाती। उसने नौकर से शुरुआत की, लेकिन मेहनत और भरोसे ने उसे शेख का मैनेजर बना दिया।
सीख
इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि जिंदगी कैसी भी हो, इंसान को मेहनत और ईमानदारी कभी नहीं छोड़नी चाहिए। जिम्मेदारी अगर दिल से निभाई जाए, तो वही इंसान को वहां तक पहुंचा सकती है जहां तक सपनों की भी उड़ान नहीं जाती।
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