अरबपति ने अपनी गरीब नौकरानी को आजमाने के लिए तिजोरी खुली छोड़ दी, फिर उसने जो किया वो आप यकीन नहीं
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खुली तिजोरी
दिल्ली के सबसे आलीशान और हरे-भरे इलाक़े लुटियन ज़ोन में एक विशाल हवेली खड़ी थी— राठौर मेंशन। सफ़ेद संगमरमर से बनी यह हवेली किसी शाही महल से कम नहीं लगती थी। इस हवेली का मालिक था राजवीर सिंह राठौर, चालीस साल का अरबपति उद्योगपति। उसका कारोबार स्टील से लेकर सॉफ़्टवेयर तक फैला हुआ था। बाहर से देखने पर वह सफलता की मिसाल था, मगर अंदर से एक बेहद अकेला और टूटा हुआ इंसान।
पाँच साल पहले उसकी पत्नी सोनिया उसे धोखा देकर उसकी दौलत का आधा हिस्सा लेकर चली गई थी। इस घटना ने राजवीर का दिल पत्थर कर दिया था। अब वह हर इंसान को स्वार्थी और बिकाऊ समझने लगा था—ख़ासकर गरीबों को। उसके महलनुमा घर में नौकर-चाकरों की कमी नहीं थी, लेकिन विश्वास किसी पर भी नहीं। हर कोने में कैमरे लगे थे, हर हरकत पर उसकी निगाह रहती थी।
इसी शहर के एक बिल्कुल अलग कोने में पार्वती नाम की एक गरीब विधवा रहती थी। वह तीस साल की थी, चेहरे पर वक़्त से पहले उभर आई थकान और आँखों में अधूरी उम्मीदें। उसका पति शंकर, जो फैक्ट्री में मज़दूरी करता था, एक हादसे में चल बसा था। अब पार्वती का सहारा था उसका सात साल का बेटा गोलू। वह बर्तन धोकर, झाड़ू-पोंछा करके, दिन-रात मेहनत करके जैसे-तैसे उसका पेट पाल रही थी। गरीबी उसके चारों ओर थी, मगर उसकी सबसे बड़ी दौलत थी उसकी ईमानदारी।
एक दिन, जब उसका एक काम छूट गया, किसी ने उसे राठौर मेंशन में काम करने की सलाह दी। पार्वती वहाँ पहुँची। हवेली की मैनेजर, मिसेज़ डिसूज़ा ने उसकी सादगी और सच्चाई देखकर उसे साफ़-सफ़ाई का काम दे दिया। धीरे-धीरे पार्वती सबसे भरोसेमंद नौकरानी बन गई। वह कभी किसी की चीज़ को हाथ नहीं लगाती थी, न फालतू बातें करती। सिर झुकाए बस अपना काम करती।
राजवीर ने उसे कैमरों में देखा। वह सोचने लगा—“ये औरत बाकियों जैसी क्यों नहीं है? इसमें लालच क्यों नहीं?” उसका शक कहता था कि मौका मिलने पर यह भी चोरी करेगी। और तभी उसके मन में आया, “क्यों न इसकी परीक्षा ली जाए?”
राजवीर के स्टडी रूम में एक पुरानी लोहे की तिजोरी थी जिसमें नक़दी और सोने की ईंटें रखी थीं। एक दिन उसने जानबूझकर तिजोरी का दरवाज़ा खुला छोड़ दिया। नोटों की गड्डियाँ साफ़-साफ़ नज़र आ रही थीं। उसने मिसेज़ डिसूज़ा को आदेश दिया कि अगले हफ़्ते इस कमरे की सफ़ाई की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ पार्वती की होगी।
परीक्षा की शुरुआत
पहले दिन जब पार्वती कमरे में पहुँची और तिजोरी को देखा, तो उसकी साँस थम गई। अंदर इतनी दौलत थी कि उसकी पूरी ज़िंदगी बदल सकती थी। लेकिन उसके मन में तुरंत ख्याल आया—“अगर कुछ ग़ायब हुआ तो इल्ज़ाम मुझ पर लगेगा।” उसने सोचा तिजोरी बंद कर दे, मगर फिर रुकी—“ये साहब की चीज़ है, मुझे छूने का हक़ नहीं।”
वह मिसेज़ डिसूज़ा के पास गई और बताया। मगर उन्हें पहले ही चुप रहने का आदेश मिल चुका था। उन्होंने डाँटकर कहा—“तुम अपना काम करो, फालतू दखल मत दो।”
पार्वती चुपचाप लौट आई। उसने तिजोरी की ओर एक बार भी नहीं देखा और सफ़ाई करके बाहर चली गई। कैमरे के पीछे से यह सब देखकर राजवीर थोड़ी देर के लिए ख़ामोश रह गया।
दूसरा और तीसरा दिन भी वही हुआ। पार्वती आई, काम किया और बिना एक नज़र डाले चली गई। राजवीर उलझन में था—क्या सचमुच यह औरत ईमानदार है, या बस सही मौके का इंतज़ार कर रही है?
चौथा दिन – सबसे बड़ी परीक्षा
चौथे दिन पार्वती को खबर मिली कि उसका बेटा गोलू खेलते हुए सीढ़ियों से गिर गया और उसके सिर में गहरी चोट आई है। डॉक्टरों ने कहा—“तुरंत ऑपरेशन करना होगा। खर्च कम से कम एक लाख रुपए आएगा।”
पार्वती के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने ज़िंदगी में इतने पैसे कभी नहीं देखे थे। वह रो-रोकर सबके आगे गिड़गिड़ाई, मगर किसी ने मदद नहीं की।
अगले दिन जब वह हवेली पहुँची, तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह सीधे उस स्टडी रूम में गई। तिजोरी अब उसे सोने की नहीं, बल्कि बेटे की ज़िंदगी बचाने का एकमात्र सहारा लग रही थी।
उसके हाथ काँप रहे थे। अगर वह कुछ गड्डियाँ निकाल ले, तो किसी को पता भी न चले। उसके बेटे की जान बच जाएगी। मगर तभी उसे अपने दिवंगत पति की आवाज़ याद आई—
“पार्वती, चाहे जान चली जाए, ईमानदारी मत छोड़ना। जमीर बेचकर जीना मौत से भी बुरा होता है।”
उसकी आँखों से आँसू बह निकले। उसने तिजोरी को नज़रअंदाज़ किया, ज़मीन पर बैठकर रोई, और फिर उठकर सफ़ाई करने लगी। उसने मन ही मन ठान लिया—“मैं भीख माँग लूँगी, खून बेच दूँगी, लेकिन चोरी नहीं करूँगी।”
राजवीर यह सब देख रहा था। उसकी आँखें भर आईं। उसने पहली बार किसी गरीब की ईमानदारी के आगे अपनी सोच को टूटते देखा।
बदलाव की शुरुआत
सातवें दिन पार्वती अपने मंगलसूत्र को हाथ में लेकर बोली—“कल इसे बेच दूँगी, चाहे जो भी हो।” यही उसका आख़िरी सहारा था।
अगले दिन राजवीर ने उसे बुलाया। पार्वती डरते-डरते कमरे में पहुँची। उसे लगा—“अब मुझ पर चोरी का इल्ज़ाम लगेगा।” मगर राजवीर ने कहा—
“पार्वती, मैं सात दिन से शहर से बाहर नहीं था। मैं यहीं था और कैमरे से सब देख रहा था। मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी। मुझे लगा हर इंसान बिकाऊ होता है। लेकिन तुमने साबित किया कि ईमानदारी आज भी ज़िंदा है। मुझे माफ़ कर दो।”
पार्वती स्तब्ध रह गई। उसकी आँखों से आँसू बह निकले। राजवीर ने उसके पैरों में सिर झुका दिया। फिर उसने अपने मैनेजर को बुलाकर आदेश दिया कि गोलू का सबसे अच्छे अस्पताल में इलाज कराया जाए।
ऑपरेशन सफल हुआ। राजवीर गोलू को खुद अस्पताल से लेकर आया और हवेली के गेस्ट हाउस में पार्वती और गोलू को ठहराया। अब पार्वती वहाँ नौकरानी नहीं रही, बल्कि सम्मानित सदस्य की तरह रहने लगी।
नया जीवन
धीरे-धीरे राजवीर और पार्वती के बीच विश्वास और अपनापन पनपने लगा। गोलू की खिलखिलाहट ने उस हवेली की बरसों पुरानी खामोशी तोड़ दी। राजवीर ने पहली बार महसूस किया कि असली दौलत पैसे में नहीं, बल्कि रिश्तों और प्यार में है।
एक दिन, हिम्मत जुटाकर उसने पार्वती से कहा—
“मैं तुम्हारे पति की जगह कभी नहीं ले सकता। मगर क्या तुम मुझे और गोलू को अपना परिवार बनाने का मौका दोगी? क्या तुम मुझसे शादी करोगी?”
पार्वती की आँखें नम थीं। उसने सोचा—“ये फैसला सिर्फ़ मेरे लिए नहीं, मेरे बेटे के भविष्य के लिए भी है।” और उसने चुपचाप सिर झुका दिया।
उनकी शादी सादगी से मंदिर में हुई। न कोई बड़े उद्योगपति थे, न नामचीन हस्तियाँ—बस हवेली के वही लोग थे जो पार्वती को दिल से चाहते थे। गोलू सबसे आगे खड़ा तालियाँ बजा रहा था।
समापन
राजवीर अब भी अरबपति था, मगर उसका दिल इंसानियत और अपनापन से भर चुका था। उसने गरीबों के लिए कई योजनाएँ शुरू कीं। और पार्वती, जो कभी एक बेबस नौकरानी थी, अब राठौर मैनशन की मालकिन बन गई।
उस खुली तिजोरी ने सिर्फ़ एक औरत की ईमानदारी की परीक्षा नहीं ली थी, बल्कि एक पत्थरदिल अरबपति को इंसान बना दिया था।
सीख:
ईमानदारी सबसे बड़ी दौलत है। हालात चाहे जितने कठिन क्यों न हों, अपने जमीर का सौदा कभी मत कीजिए। क्योंकि इंसानियत का इम्तिहान पास करने वालों को ज़िंदगी वो इनाम देती है, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होती।
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