एसपी का पति रेलवे स्टेशन पर छिपकर काम कर रहा था, उसे शक हुआ और उसने उसका पीछा किया, और फिर पता चला
अमीनाबाद बाज़ार की भीड़भाड़ से दूर, एक छोटे से सहकारी बैंक की शाखा थी। वहाँ रोज़ाना गिनती के लोग आते-जाते थे, लेकिन पिछले हफ़्ते बैंक के कर्मचारियों की नज़र बार-बार एक ही शख़्स पर पड़ रही थी—एक अस्सी वर्षीया महिला। सफ़ेद बाल, चेहरे पर झुर्रियों की गहरी लकीरें, पतला शरीर और कांपते हुए हाथ। वह साधारण सूती साड़ी पहनकर धीरे-धीरे कदम रखती हुई आती और हर बार पैसे जमा करने का फ़ॉर्म भरती।
पहले दिन सबको लगा, शायद अपने बेटे या पोते को पैसे भेज रही होंगी। लेकिन जब सात दिन में चौदह बार वही काम दोहराया गया, तो शक होना लाज़मी था। रकम भी छोटी नहीं थी—कभी पाँच हज़ार, कभी दस हज़ार। टेलर अनन्या ने देखा कि जब भी महिला दस्तख़त करतीं, उनके हाथ काँपते और आँखों में अजीब-सी घबराहट झलकती।
अनन्या ने एक दिन पूछ ही लिया, “माँजी, आप इतनी बार पैसे किसे भेज रही हैं? कोई दिक़्क़त तो नहीं है?”
बुज़ुर्ग महिला हकलाईं—“वो… मेरे पोते को ज़रूरत है… बस उसी के लिए।”
उनकी झिझक और आँखों में छिपी बेचैनी ने अनन्या को और परेशान कर दिया। उसने शाखा प्रबंधक वर्मा जी को बताया। थोड़ी चर्चा के बाद, सबको लगा कि कहीं यह बुज़ुर्ग महिला किसी ठगी या दबाव का शिकार तो नहीं हो गई हैं। ऐसे मामले पहले भी सामने आ चुके थे। फ़ौरन पुलिस को सूचना दी गई।
अगले दिन, पुलिस और बैंक कर्मचारी उस महिला के घर पहुँचे। घर चौक इलाके की तंग गलियों में था। लकड़ी का पुराना दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। अंदर से खाँसी और भारी साँसों की आवाज़ आ रही थी। दस्तक देने पर काफी देर बाद दरवाज़ा खुला।
भीतर का दृश्य देखकर सब अवाक रह गए। छोटा-सा कमरा, चारों तरफ़ अंधेरा और बिखरा सामान। एक कोने में पुरानी चारपाई पर अधेड़ उम्र का आदमी पड़ा था—कमज़ोर, दुबला-पतला, सूखी टाँगें, चेहरा पीला और थका हुआ। वह हिलने-डुलने की हालत में भी नहीं था।
महिला काँपते स्वर में बोलीं—“ये… मेरा बेटा है… राजेश।”
राजेश किसी गंभीर बीमारी से जूझ रहा था। उसकी हालत इतनी नाज़ुक थी कि वह काम करने लायक नहीं बचा था। माँ ही उसकी देखभाल कर रही थीं। अस्पताल ने कहा था कि इलाज के लिए पैसे चाहिए, वरना राजेश ज़्यादा दिन नहीं जी पाएगा। यही कारण था कि बूढ़ी माँ बार-बार बैंक जातीं और जमा की गई थोड़ी-बहुत बचत निकालकर इलाज के नाम पर किसी खाते में भेजतीं।
अनन्या की आँखें भर आईं। वर्मा जी भी चुपचाप खड़े रहे। पुलिस वालों ने भी सिर झुका लिया। जो शक था, वह ग़लत साबित हुआ। दरअसल, यह बूढ़ी माँ किसी धोखाधड़ी का शिकार नहीं थीं, बल्कि अपने बेटे की साँसें बचाने के लिए हर क़दम उठा रही थीं।
महिला रोते हुए बोलीं—“मैं नहीं चाहती थी कि मोहल्ले वाले जानें। लोग ताने देते हैं कि बूढ़ी उम्र में बेटे का बोझ उठा रही हूँ। लेकिन क्या करूँ? माँ हूँ… अपने बेटे को तिल-तिल मरते नहीं देख सकती।”
सबकी आँखों से आँसू बह निकले। पुलिस इंस्पेक्टर ने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा—“माँजी, अब आप अकेली नहीं हैं। हम मिलकर आपके बेटे की मदद करेंगे।”
बैंक कर्मचारियों ने तुरंत चंदा इकट्ठा किया। अगले ही दिन राजेश को अस्पताल में भर्ती कराया गया। इलाज शुरू हुआ। महिला पहली बार मुस्कुराई, लेकिन उसकी आँखों से आँसुओं की धारा रुक नहीं रही थी।
उस दिन पूरे अमीनाबाद बाज़ार में यही चर्चा थी—एक माँ का त्याग, उसका संघर्ष और उसका अटूट प्रेम।
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