ऑटो ड्राइवर ने लौटाया पैसों से भरा बैग, बदले में जो मिला… इंसानियत हिल गई
दोस्तों, ज़िंदगी कभी-कभी ऐसे इम्तिहान सामने ला देती है जहाँ इंसान के सामने बस दो ही रास्ते रह जाते हैं—ईमानदारी या लालच। और अक्सर यही एक फैसला उसकी पूरी ज़िंदगी बदल देता है। कुछ ऐसा ही हुआ था सुरेश के साथ।
सुरेश कोई बड़ा आदमी नहीं था, बस पटना की गलियों में ऑटो चलाने वाला एक साधारण ड्राइवर। उस दिन भी तपती धूप में वह सवारियाँ ढूँढ रहा था कि अचानक सड़क किनारे खड़ी एक लड़की ने हाथ देकर ऑटो रोका। लड़की साधारण कपड़ों में थी, लेकिन चेहरे पर ऐसी मासूमियत थी कि सुरेश देखते ही खो गया। उसके हाथ में एक बड़ा सा बैग था, मानो उसमें उसके लिए कोई अनमोल खज़ाना रखा हो।
“कहाँ चलना है, मैडम?” सुरेश ने मुस्कुराकर पूछा।
“बस पास के मार्केट तक,” लड़की ने धीरे से जवाब दिया।
ऑटो आगे बढ़ गया, लेकिन सुरेश की नज़र बार-बार उस लड़की के चेहरे पर पड़ जाती। चेहरे पर जैसे कोई छुपा हुआ दर्द था, फिर भी मुस्कुराना उसने सीख लिया था। थोड़ी देर बाद मार्केट आ गया। लड़की ने पर्स से पैसे निकाले, किराया दिया और भीड़ में गुम हो गई। सुरेश देर तक उसे जाता देखता रहा। उसके दिल में अजीब-सी कसक रह गई।
लेकिन खेल यहीं से शुरू हुआ। लड़की अपना बड़ा बैग ऑटो में ही भूल गई थी। जब अगली सवारी बैठी तो उसने उस बैग की ओर इशारा करते हुए कहा—“भैया, यह बैग आपका है क्या?” सुरेश ने चौंककर देखा। हाँ, वही बैग था। उसने तुरंत ऑटो एक तरफ रोककर बैग खोला और देखते ही दंग रह गया।
बैग में सोने के गहने और महँगे कपड़े रखे थे। मानो किसी राजा का खज़ाना हो। सुरेश का दिल डगमगा गया। उसने सोचा—“अगर मैं ये गहने बेच दूँ तो माँ का इलाज हो सकता है, बहन की पढ़ाई पूरी हो सकती है और शायद अपना छोटा-सा घर भी बन जाएगा।” लेकिन तभी उसे पिता की सीख याद आई—“बेटा, ईमानदारी से बड़ा कोई धन नहीं होता। जो तेरा नहीं है, उस पर हक भी मत जताना।”
सुरेश की आँखें भर आईं। उसने बैग सीने से लगा लिया और खुद से वादा किया कि यह अमानत वह हर हाल में लौटाएगा। वह तुरंत उसी मार्केट पहुँचा जहाँ लड़की उतरी थी। भीड़ में हर चेहरे को देखता, हर दुकान पर पूछता, लेकिन लड़की कहीं दिखाई नहीं दी। शाम ढल गई और सुरेश मायूस होकर घर लौटा। उसने सारी बात माँ को बताई। माँ ने प्यार से सिर सहलाते हुए कहा—“बेटा, इंसानियत यही है कि जो हमारा नहीं, उसे लौटाना चाहिए। कोशिश करता रह, भगवान तेरी मदद करेगा।”
इन शब्दों ने सुरेश को नई ताकत दी। दिन बीतते गए, लेकिन लड़की का कोई नामोनिशान नहीं मिला। बारह दिन तक सुरेश रोज़ उसे ढूँढता, मगर हर शाम खाली हाथ लौटता। कई बार मन डोल जाता कि शायद यह भगवान का संकेत है गरीबी दूर करने का। मगर हर बार पिता की सीख उसे संभाल लेती।
बारहवें दिन की शाम सुरेश निराश होकर सड़क किनारे ऑटो रोक बैठा था। तभी उसने सामने एक सफेद कार रुकते देखी। उसमें से वही लड़की उतरी। पर इस बार वह अमीरी की चमक से घिरी हुई थी। सुरेश के मन में सवाल उमड़ पड़े—“अगर यह इतनी अमीर है तो उस दिन साधारण कपड़ों में क्यों थी? आखिर माजरा क्या है?”
हिम्मत करके वह रेस्टोरेंट के बाहर खड़ा हो गया। लड़की ने उसकी निगाहें महसूस कीं, बाहर आई और मुस्कुराकर बोली—“भैया, कुछ काम था? ऐसे क्यों देख रहे हो?” सुरेश ने गहरी साँस ली और धीरे से कहा—“मैडम, शायद आप ही वह लड़की हैं, जो कुछ दिन पहले मेरे ऑटो में बैठी थीं। आपका बैग मेरे पास है, मैंने कहीं नहीं बेचा, बस आपको ढूँढ रहा था।”
लड़की की आँखें भर आईं। काँपती आवाज़ में बोली—“क्या सचमुच मेरे गहने… मेरा लॉकेट… सब तुम्हारे पास है?” वह बैग उसके लिए सिर्फ गहनों से भरा नहीं था, उसमें उसकी माँ की आखिरी तस्वीर वाला लॉकेट भी था। सुरेश ने सिर झुकाकर कहा—“हाँ, सब सुरक्षित है।”
लड़की ने आँसू पोंछते हुए अगले दिन मिलने का वादा किया और बोली—“तुम्हें सच बताना होगा, क्यों मैं साधारण कपड़ों में थी।”
अगली सुबह दोनों पार्क में मिले। लड़की का नाम था नेहा, शहर के बड़े व्यापारी धर्मपाल शुक्ला की बेटी। उसके पास दौलत थी, मगर वह अक्सर साधारण कपड़े पहनकर गरीबों की ज़िंदगी महसूस करने जाती थी, क्योंकि उसके पिता मानते थे कि गरीब लोग बेईमान होते हैं। नेहा बोली—“तुमने यह बैग लौटाकर साबित किया कि पापा गलत थे। असली अमीरी दिल में होती है, जेब में नहीं।”
धीरे-धीरे नेहा और सुरेश के बीच विश्वास और फिर गहरा रिश्ता बनने लगा। नेहा ने उसके संघर्ष को करीब से देखा और उससे सच्चा प्यार कर बैठी। जब उसका 21वाँ जन्मदिन आया, उसने सबके सामने ऐलान किया—“मैं सुरेश से शादी करना चाहती हूँ।” पहले तो पिता गुस्से में आगबबूला हो गए, लेकिन बाद में जब उन्होंने सुरेश की ईमानदारी और मेहनत देखी, तो उनका मन बदल गया।
कुछ महीनों बाद, सादगी से भरे माहौल में नेहा और सुरेश ने सात फेरे लिए। नेहा ने सुरेश के छोटे-से किराए के घर को भी पूरे दिल से अपना लिया। वह घर शायद दौलत से खाली था, मगर प्यार, सम्मान और ईमानदारी के खज़ाने से भरा था।
आज भी जब सुरेश अपनी माँ और बहन के साथ चाय पीता है, तो उसके चेहरे पर संतोष की मुस्कान होती है। उसे पता है कि उसने लालच का रास्ता छोड़कर ईमानदारी चुनी थी, और उसी का फल उसे ज़िंदगी ने दिया—इज़्ज़त, प्यार और सुकून।
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