कोर्ट के अंदर एक भिखारन महिला आई जज साहब खड़े हो गए

एक कोर्ट में खामोशी छाई हुई थी। सब अपनी-अपनी जगह पर बैठे थे। तभी दरवाजा खुला और अंदर दाखिल हुई एक फटेहाल भिखारिणी। लोगों की निगाहें तिरस्कार से भर गईं। लेकिन अगले ही पल न्यायाधीश अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए। पूरा कोर्ट हैरान रह गया। आखिर क्यों? क्यों एक भिखारिणी के लिए उठ खड़ा हुआ न्यायाधीश? इसकी वजह जानकर आपकी रूह कांप जाएगी।

अम्मा का जीवन

जयपुर शहर के कोर्ट के बाहर एक बूढ़ी भिखारिणी महिला हर दिन चुपचाप बैठी रहती थी। उसका नाम कोई नहीं जानता था। कुछ लोग उसे प्यार से “अम्मा” कहते तो कुछ उसे हिकारत भरी नजरों से “पागल” कहकर आगे बढ़ जाते। वह कुछ नहीं बोलती। उसके सामने रखा टिन का कटोरा अक्सर खाली रहता। मगर उसकी आंखों में कुछ था, जैसे वह किसी को पहचानती हो, जैसे वह कुछ कहना चाहती हो।

हर सुबह ठीक 4 बजे अम्मा उसी शारदा मंदिर के पास आकर बैठ जाती। उनकी कमर झुकी हुई थी, फिर भी वह पूरी शान से सीधे बैठती, जैसे कोई पुराना सैनिक अपनी आखिरी सलामी दे रहा हो। उनकी नजरें सड़क पर टिकी रहती, मगर अक्सर कोर्ट के गेट पर ठहर जाती। कभी-कभी कुछ अधिवक्ता उनकी तरफ देखकर हंसते, लगता है, यह भी कोई मुकदमा लड़ने आई है। कोई कहता, “शायद यह न्यायाधीश बनने का सपना देखती होगी।” अम्मा चुप रहती, न गुस्सा, न हंसी, बस एक गहरी शांति।

कोर्ट का माहौल

उस दिन जयपुर के कोर्ट में कुछ खास था। शहर का सबसे चर्चित निर्माण घोटाला जिसमें कई बड़े-बड़े लोग फंसे थे, उसकी सुनवाई थी। कोर्ट रूम के बाहर पत्रकारों की भीड़, कैमरों की चमक और हर तरफ एक अजीब सी हलचल थी। कोर्ट रूम संख्या तीन में न्यायाधीश जस्टिस राजेश अग्रवाल अपनी कुर्सी पर बैठने वाले थे। वह अपने सख्त और निष्पक्ष फैसलों के लिए मशहूर थे।

सुबह 11 बजे कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। अधिवक्ता अपनी-अपनी दलीलें देने में जुटे थे। तीखी बहस और कोर्ट रूम में एक तनाव भरा माहौल था। तभी न्यायाधीश ने अचानक सामने देखा। उनकी नजर खिड़की से बाहर चली गई, जैसे कोई पुरानी याद उनके दिल को छू गई हो। उन्होंने अपने क्लर्क की तरफ देखा और धीरे से कहा, “क्या कोर्ट परिसर के मंदिर के बाहर जो बूढ़ी भिखारिणी बैठी है, उसे अंदर बुलाया जा सकता है?” पूरा कोर्ट रूम स्तब्ध रह गया।

अम्मा की आमद

अम्मा मंदिर के बाहर अपनी पुरानी चादर में लिपटी बैठी थी। उनके कटोरे में कुछ सिक्के पड़े थे और पास में दो-तीन चिड़िया अनाज के दाने चुग रही थी। तभी दो सुरक्षाकर्मी उनके पास आए। “अम्मा, न्यायाधीश ने आपको बुलाया है।” अम्मा की आंखें कांप उठीं। उन्होंने धीरे से सिर उठाया। कांपते हाथों से अपनी छड़ी उठाई और खड़ी हुई। चार कदम चलने में उन्हें जैसे पूरी उम्र लग गई, मगर वह चली बिना सवाल किए, बिना कुछ बोले।

जब अम्मा कोर्ट रूम में दाखिल हुई, तो वहां सन्नाटा छा गया। फटी हुई साड़ी, थकी हुई आंखें और कांपते पैर। मगर उनमें एक अजीब सा आत्मविश्वास था। ऐसा आत्मविश्वास जो उस कोर्ट रूम में मौजूद किसी भी रईस या बड़े अधिवक्ता में नहीं था। न्यायाधीश ने एक पल के लिए सिर झुकाया, जैसे किसी को सम्मान दे रहे हों। फिर उन्होंने पूछा, “आपका नाम?” अम्मा की आवाज में हल्का सा कंपन था, मगर शब्दों में गहराई थी।

अम्मा का अतीत

“मैडम, मेरा नाम रमा देवी है।” न्यायाधीश ने कुछ पल चुप रहकर कहा, “आप रोज यहां आती हैं। मंदिर के बाहर बैठती हैं। क्या आप कुछ कहना चाहती हैं?” अम्मा ने धीरे से सिर उठाया। उनकी आंखें गीली थीं, मगर आवाज में एक अजीब सी ताकत थी। “कहना तो बहुत कुछ था, मैडम, मगर सुनने वाला कोई नहीं था।”

न्यायाधीश ने फिर पूछा, “आप रोज इस कोर्ट को देखते हैं। कोई खास वजह?” अम्मा ने एक पल के लिए आंखें बंद की। फिर बोली, “यह वही जगह है, मैडम, जहां मैंने कभी न्याय के लिए आवाज उठाई थी। जहां मैं कभी अधिवक्ता हुआ करती थी।” यह सुनते ही कोर्ट में सन्नाटा छा गया।

हर कोई स्तब्ध था। एक भिखारिणी जो सड़क किनारे बैठी रहती थी, वह अधिवक्ता थी। अम्मा ने अपने पुराने झोले से एक पीला फटा हुआ लिफाफा निकाला। उसमें कुछ पुराने कागज थे—एक वकालतनामा, एक पुराना अधिवक्ता पहचान पत्र और एक अधूरी याचिका। न्यायाधीश ने वह कागजात पढ़े। जैसे-जैसे वह पढ़ते गए, उनके माथे की लकीरें गहरी होती गईं।

न्याय की खोज

“आप अधिवक्ता थीं?” उन्होंने पूछा। “हां, मैडम,” अम्मा ने जवाब दिया, “मगर बेटी की गलती का इल्जाम मुझ पर आया। मैं चुप रही, सोचा बेटी बच जाए। अदालत ने मुझे दोषी ठहराया। मेरी सारी संपत्ति जब्त हो गई। जेल गई। जब बाहर आई तो बेटी सब बेच चुकी थी।” कोर्ट में मौजूद हर शख्स की आंखें नम थीं।

जो अधिवक्ता पहले अम्मा का मजाक उड़ाते थे, वो अब शर्मिंदगी से सिर झुकाए खड़े थे। न्यायाधीश उठे, अम्मा के पास आए और उनका हाथ थाम लिया। “हमने न्याय को सिर्फ कानून की किताबों में बांध दिया,” उन्होंने कहा, “मगर आपने इसे अपनी जिंदगी में जिया।” अम्मा की आंखों में आंसू थे, मगर वह मुस्कुरा रही थी जैसे उनकी सालों की तपस्या आज रंग लाई हो।

अखबार की सुर्खियां

अगले दिन जयपुर के अखबारों में एक ही हेडलाइन थी: “भिखारिन ने नहीं, पूर्व अधिवक्ता न्यायाधीश ने छोड़ा अपनी कुर्सी का स्वागत।” खबर थी कि सिस्टम की चूक ने एक जिंदगी को सड़कों पर ला दिया। कोर्ट में जो हुआ वह कोई साधारण सुनवाई नहीं थी। वह एक ऐतिहासिक पल था। श्रीमती रमा देवी यह था अम्मा का नाम। एक समय में जयपुर के कोर्ट में उनका नाम हर अधिवक्ता की जुबान पर होता था।

वह गरीबों के मुकदमे मुफ्त में लड़ती। कभी घूस नहीं ली। सरकारी अधिकारियों से आंखें मिलाकर सवाल करती। उनकी खासियत थी। मगर एक दिन उनकी अपनी बेटी प्रीति ने उन्हें धोखा दिया। प्रीति एक निर्माण घोटाले में फंस गई। सारे दस्तावेज रमा देवी के नाम पर थे क्योंकि प्रीति ने अपनी खराब क्रेडिट हिस्ट्री की वजह से सारी संपत्ति मां के नाम कर रखी थी। अम्मा को कुछ पता नहीं था। उन्हें सीधे जेल भेज दिया गया।

बेटी का धोखा

न्यायाधीश ने उस दिन कोर्ट में पूछा था, “आपने अपनी बेटी के खिलाफ कुछ क्यों नहीं कहा?” अम्मा ने सिर झुका कर जवाब दिया, “मैंने जिंदगी भर कानून के लिए लड़ा। मगर जब मेरी बेटी सामने आई, तो मां हार गई। सोचा सजा तो खत्म हो गई। बेटी गले लगाएगी। मगर जब जेल से निकली तो गेट पर कोई नहीं था। बेटी शहर छोड़ चुकी थी। मेरा घर, मेरी दुकान सब बिक चुका था।”

कोर्ट में उस दिन मौजूद अधिवक्ता श्रीमती आरती वर्मा, जो पहले अम्मा को पागल कहकर हंसती थीं, अपनी कुर्सी से उठी। “माय लॉर्ड,” उन्होंने कहा, “यह मुकदमा सिर्फ एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं है। यह सिस्टम की चूक की मिसाल है। मैं याचिका दायर करती हूं कि इस मामले की दोबारा सुनवाई हो।” न्यायाधीश ने सहमति में सिर हिलाया। कोर्ट स्थगित हुआ, मगर माहौल बदल चुका था।

नया मोड़

उस दिन जब अम्मा कोर्ट से बाहर निकली, तो कोई उनका मजाक नहीं उड़ा रहा था। लोग उन्हें सम्मान की नजरों से देख रहे थे। किसी ने उन्हें पानी की बोतल दी। किसी ने खाने के लिए बुलाया। एक पत्रकार दौड़ कर आया। “अम्मा, क्या आप कैमरे के सामने कुछ कहना चाहेंगी?” अम्मा मुस्कुराई। “मैंने आज फिर से न्याय पर भरोसा किया है और खुद पर भी।”

अगले दिन जब अखबार छपे और टीवी चैनलों पर खबर चली, तो जयपुर के बगराना मोहल्ले में हलचल मच गई। वहां कभी रमा देवी का पुश्तैनी घर था, जो अब एक बिल्डर के दफ्तर में बदल चुका था। उनकी बचपन की पड़ोसन माया देवी फूट-फूट कर रो पड़ी। “हमें लगा वह मर चुकी हैं,” उन्होंने कहा, “मगर अब जब वह जिंदा लौटी हैं, तो शहर ने उन्हें भुला दिया।”

माया देवी का संकल्प

माया देवी ने अपने बेटों को बुलाया और कहा, “आज से हर रविवार हम अम्मा को खाना देने जाएंगे। वह हमारे लिए मां समान हैं। वह कभी इस शहर की सबसे बड़ी अधिवक्ता थीं।”

7 दिन बाद कोर्ट में नई सुनवाई शुरू हुई। मुद्दा था 2006 का वो मुकदमा जिसमें रमा देवी को दोषी ठहराया गया था। नया अधिवक्ता था प्रोफेसर दिव्यांश। न्यायाधीश वही थे, जस्टिस राजेश अग्रवाल। गवाह थे पुराने कागजात, बिल्डर की गवाही और एक रहस्यमय बेटी प्रीति, जो अब कहीं नहीं थी।

प्रीति की वापसी

न्यायाधीश ने आदेश दिया, “प्रीति को कोर्ट में पेश किया जाए। अगर वह हाजिर नहीं होती, तो गिरफ्तारी वारंट जारी होगा।” उसी दिन शाम को अम्मा कोर्ट की दीवार के पास चुपचाप बैठी थी। प्रोफेसर दिव्यांश ने पूछा, “अम्मा, आपको डर नहीं लगता कि आपकी बेटी अब बदला ले सकती है?” अम्मा ने हंसकर कहा, “अब जो होगा, न्याय ही करेगा। मैं अब सिर्फ एक इंसान हूं जो अपना नाम वापस चाहती है।”

जस्टिस राजेश अग्रवाल कोई साधारण न्यायाधीश नहीं थे। 20 साल पहले अजमेर यूनिवर्सिटी में वह रमा देवी से मिले थे। अम्मा उनके लिए प्रेरणा थीं। उनकी एक बात आज भी राजेश की डायरी में लिखी थी, “अगर वकालत को सिर्फ धंधा समझोगी, तो यह दुकान बन जाएगी। मगर अगर इसे इंसान की आवाज समझोगी, तो यह इबादत बन जाएगी।”

राजेश उस दिन भावुक थे। उन्होंने कहा, “मैं यह मुकदमा व्यक्तिगत रूप से सुनूंगा।” आखिरकार प्रीति कोर्ट में पेश हुई। महंगी गाड़ी, ब्रांडेड सूट, मगर आंखें झुकी हुई।

सच्चाई का सामना

जब न्यायाधीश ने पूछा, “संपत्ति अपने मां के नाम क्यों ली?” तो उसने कबूल किया, “मेरी क्रेडिट हिस्ट्री खराब थी। मैंने उनके दस्तखत नकली किए।” पूरा कोर्ट सन्न रह गया। अम्मा चुप रही। उन्होंने बस आंखें बंद कर लीं।

न्यायाधीश ने आदेश दिया, “श्रीमती रमा देवी निर्दोष हैं। उन्हें दोबारा वकालत का लाइसेंस दिया जाए, 25 लाख की मानहानि राशि दी जाए और सरकार सार्वजनिक रूप से माफी मांगे।” अगले दिन अम्मा फिर कोर्ट के बाहर बैठी थी। मगर अब लोग उनके सामने झुक रहे थे। कोई उनके पैर छू रहा था, कोई खाना ला रहा था।

न्याय का एहसास

न्यायाधीश राजेश अग्रवाल चुपके से उनके पास आए और बैठ गए। “आज मैंने न्याय नहीं किया,” उन्होंने कहा, “आज मैंने सिर्फ एक कर्ज चुकाया है।” अम्मा मुस्कुराई। “बेटी, आज तू सिर्फ न्यायाधीश नहीं, इंसान भी बनी है।”

यह कहानी सिर्फ रमा देवी की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है जो सिस्टम की चूक का शिकार हुआ। यह कहानी है विश्वास की, न्याय की और उस हौसले की जो सालों की तकलीफों के बाद भी टूटता नहीं। जयपुर के कोर्ट के बाहर अम्मा की कहानी आज भी गूंजती है। लोग कहते हैं वह भिखारी नहीं, एक योद्धा थी जिसने सच के लिए अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी।

समापन

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