खोई हुई बेटी स्टेशन पर जूते पोलिश करते हुए मिली | फिर बच्ची ने अपने पिता से कहा जो इंसानियत रो पड़े

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“खोई हुई बेटी स्टेशन पर जूते पॉलिश करती मिली — आंसुओं में मिली पहचान”

भीड़भाड़ से गुलजार एक रेलवे स्टेशन पर दोपहर की हल्की धूप फैल रही थी। प्लेटफार्म नंबर तीन पर एक छोटी सी बच्ची जमीन पर बैठी थी, उसके हाथ में जूते पॉलिश का डिब्बा और ब्रश। चेहरे पर धूल, कपड़े फटे, पैरों में टूट-फूटी चप्पलें — लेकिन उसकी मुस्कान में एक अजीब सी उम्मीद थी।

वह हर गुजरती झलक में कहती, “साहब, जूते पॉलिश करा लें, सिर्फ ₹5 लगेंगे।” कई लोग ध्यान दिए बिना आगे बढ़ जाते, कुछ उसे डांटकर धक्का देते, कुछ उसी को दो-चार सिक्के दे जाते। वो हर ठोकर खाकर भी मुस्कुरा देती थी।

उसका नाम सोनू था। किसी को नहीं पता था कि उसके माता-पिता कौन थे या वह कहां से आई थी। जब पूछा जाता, “बेटी, तेरा घर कहां है?” — वह सिर झुका कर कहती, “मुझे याद नहीं। मैं बहुत छोटी थी… फिर यहां आ गई।” रात को, स्टेशन सुनसान होने पर, वह कोने में सिकुड़ जाती, आसमान को ताकती और धीरे से फुसफुसाती,
“माँ, पापा, आप कहां हो?”

उसी शहर में रहता था करोड़पति उद्योगपति अरुण मल्होत्रा। उसके हाथ में उस वक्त एक पुरानी तस्वीर थी — एक छोटी बच्ची की, बड़े से आँखों की मासूम मुस्कान में। वह तस्वीर उसकी खोई हुई बेटी अनाया की थी। बरसों पहले एक बरसात की रात अनाया अचानक गुम हो गई थी। अरुण और उसकी पत्नी संध्या, दौलते और मान-शान के बीच भी, दिन-रात पति-पत्नी अनाया की वापसी की दुआ करते रहे।

अचानक उसी स्टेशन पर, बड़े सूट-बूट में वह कदम रखता है। उसकी नजरें चारों ओर घूमती हैं — और फिर ठहर जाती हैं। वह सोनू को देखता है — धूल-सने बाल, गंदे चेहरे, फटे कपड़े — लेकिन आंखों में कुछ ऐसा झलता है जो उसे भीतर हिला देता है।

सोनू ने झुककर बोला, “साहब, जूते पॉलिश करा लीजिए।”
अरुण क्षण भर के लिए थम गए। वे झुककर करीब आए और पूछा, “बेटी, तेरा नाम क्या है? तेरे माता-पिता कहां हैं?”
सोनू ने मासूमियत से जवाब दिया, “मुझे नहीं पता साहब, लोग मुझे सोनू कहते हैं।”

अरुण के दिल में एक हलचल सी हुई। उसने तुरंत अपनी जेब से पैसे निकालकर सोनू को देने की कोशिश की — लेकिन उसने मना किया: “नहीं साहब, मैं भीख नहीं लेती। अगर देना है तो मेरा काम करवा दीजिए।”
उसकी यह आत्मसम्मान भरी बात अरुण को चौंका गई।

उस दिन अरुण ने एक सहायता अधिकारी को निर्देश दिया कि वह सोनू की जानकारी जुटाए — उसकी कहानी, उसके पिछले कुछ दिन, कहीं कोई सुराग।

कुछ दिनों बाद अरुण स्टेशन आया। सोनू वही बैठी थी। इस बार उसने अपने जूते उसकी ओर बढ़ाए। सोनू झुक कर उन्हें चमका रही थी। अरुण उसे गौर से देखने लगा — अगर यही अनाया न हो तो कौन?

वे धीरे से पूछा, “बेटी, वह पायल (anklet) दिखाओ न, जो तुम्हारे पैरों में हो।”
सोनू ने फटी चप्पलें हटाईं और उन्हें दिखाई। वह वही चांदी की पायल थी — वही जो अरुण ने अनाया को उसकी पहली सालगिरह पर पहनाई थी।

अरुण की सांस थम गई। आंखें भर आईं। दिल ने कहा, यह वही बच्ची है।
“बेटी, तुझे कौन सोनू कहता है?” उसने कांपती आवाज में पूछा।
“लोग स्टेशन पर मुझे सोनू बोलते हैं,” उत्तर आया।
अरुण लगभग नहीं मान पा रहे थे। उन्होंने बुरी तरह रोते हुए कहा,
“तू मेरी अनाया है — मेरी खोई हुई बच्ची!”

सोनू चौंकी और झकारते हुए कहने लगी, “नहीं साहब, यह कैसे हो सकता है? मैं सिर्फ सोनू हूं — स्टेशन की बच्ची।”
अरुण ने अपना चेहरा झुका लिया। “बेटी, अगर तुझे यकीन नहीं तो हम जीन (DNA) टेस्ट कर सकते हैं। अगर तू मेरी नहीं निकली तो मैं तुझसे कुछ नहीं कहूंगा। लेकिन अगर निकली तो जान ले कि मैं तुझे कभी भी दूर नहीं जाने दूंगा।”

वे अस्पताल गए, टेस्ट हुआ, और परिणाम आया — वो अनाया थी।

अरुण ने घर लौट कर बताया कि बेटा वापस आ गया है। संध्या के आत्मा में जब अनाया की रिपोर्ट आई, वह दौड़ी आई और बेटी को गले से लगाया। अनाया की आंखों से बहते आंसू कह रहे थे — वो खोई हुई नहीं थी, लेकिन अब मिली थी।

उस दिन से, सोनू — या अनाया — की जिंदगी बदल गई। वह अब दौलते और सुन्न घर की मालकिन बन गई। पर दिल से वह उसी मासूम लड़की की रही जिसने स्टेशन पर जूते पॉलिश किए थे।

मोरल:

कभी-कभी जीवन की सबसे बड़ी पहचान उसकी गरीबी या हालत से छिपी हुई होती है।

इंसानियत की आवाज़ कमजोर हो सकती है, लेकिन जब दिल सुनने लगे — सच गूँज उठता है।

प्यार, सम्मान और अपनापन, ये वो चीजें हैं जो हर दूरी को मिटा सकती हैं।

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