गांव के गंवार लड़के पर दिल हार बैठी… दिल्ली की लड़की, फिर जो हुआ

दिल्ली की चहल-पहल भरी ज़िन्दगी में रहने वाली काव्या एक तेज-तर्रार, आत्मनिर्भर और महत्वाकांक्षी लड़की थी। उसने अपने सपनों को सच करने के लिए कई समझौते किए थे — परिवार से दूरी, दोस्ती की बलि, और यहां तक कि अपने पहले प्यार को भी पीछे छोड़ दिया। मगर फिर भी, दिल के किसी कोने में एक खालीपन हमेशा बना रहता था, जिसे वह खुद भी समझ नहीं पाई थी।

एक दिन, काव्या को ऑफिस से एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में उत्तराखंड के एक छोटे से गांव देवलगांव भेजा गया। गांव में एक स्कूल बनवाने का प्रस्ताव था और उसे वहां की ज़मीन, स्थिति और बच्चों की ज़रूरतों का सर्वे करना था। दिल्ली की भागदौड़ से दूर, ये गांव उसके लिए किसी और ही दुनिया जैसा था — शांत, हरा-भरा, और लोगों के चेहरों पर एक अलग ही तरह की मुस्कान।

गांव में उसके ठहरने की व्यवस्था रणविजय नामक युवक के घर पर की गई थी, जो गांव में एक सामाजिक कार्यकर्ता था। रणविजय का परिचय पहली बार तब हुआ, जब वह उसे स्टेशन से लेने आया। धूप से झुलसा रंग, खादी का कुर्ता, आंखों में गहराई और मुस्कुराहट में अपनापन — काव्या को वह आम लड़कों से बिलकुल अलग लगा।

पहले दिन से ही रणविजय ने उसका स्वागत ऐसे किया जैसे कोई पुराने रिश्ते का हिस्सा हो। हर काम में मदद, हर सवाल का सच्चा जवाब, और हर बात में संवेदनशीलता — काव्या को यह सब नया लग रहा था। शहर में वह जिन लोगों से मिली थी, वहां रिश्ते मतलब पर आधारित थे। यहां पहली बार उसने बिना किसी अपेक्षा के अपनापन देखा।

कुछ दिनों में काव्या ने बच्चों से बातचीत की, गांव की ज़रूरतें जानीं और रिपोर्ट तैयार करने लगी। लेकिन उसके दिल में रणविजय की सादगी, उसकी सोच और अपने लोगों के प्रति समर्पण गहराई से उतर रहा था। एक दिन शाम को, जब दोनों खेतों के किनारे बैठकर चाय पी रहे थे, काव्या ने पूछ लिया, “तुमने कभी सोचा नहीं शहर जाकर कुछ बड़ा करने का?”

रणविजय मुस्कुराया और बोला, “बड़ा वही होता है जहां जरूरत हो। मुझे यहां के लोगों की जरूरत है। और मेरा मकसद सिर्फ पैसा कमाना नहीं, लोगों की ज़िन्दगी में बदलाव लाना है।”

उसकी ये बात काव्या के दिल को छू गई। शायद पहली बार उसने महसूस किया कि सफलता की परिभाषा हर किसी के लिए अलग होती है। उसके दिल्ली वाले दोस्त बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करते थे, लेकिन इस लड़के के पास जो संतोष था, वो कहीं नहीं दिखता था।

कुछ हफ्तों बाद जब काव्या को वापस लौटना था, तो उसके मन में एक अजीब सी बेचैनी थी। उसने महसूस किया कि कुछ पीछे छूट रहा है, कोई रिश्ता जो शब्दों में नहीं बंधा लेकिन दिल में उतर चुका है।

जाने से पहले काव्या ने रणविजय से कहा, “तुम्हारे जैसा कोई कभी मिला नहीं… और शायद अब मिल भी ना पाए।” रणविजय ने आंखों में नमक के साथ हल्की मुस्कान दी और सिर्फ इतना कहा, “अगर कोई रिश्ता सच्चा हो, तो वक्त और दूरी उसे तोड़ नहीं सकती।”

दिल्ली लौटने के बाद काव्या फिर से अपने काम में लग गई। उसकी रिपोर्ट पर सरकार ने तुरंत काम शुरू करवाया। स्कूल का निर्माण तय हुआ और काव्या को उद्घाटन के लिए दो महीने बाद फिर से गांव बुलाया गया।

जब वह दोबारा देवलगांव पहुंची, तो बहुत कुछ बदल चुका था — स्कूल बन चुका था, बच्चे वहां खेलने लगे थे, और सबसे अहम बात — काव्या के दिल का हाल बदल चुका था। इस बार वह रणविजय से मिलने नहीं, बल्कि उसे अपना जीवन साथी बनाने का फैसला लेकर आई थी।

उद्घाटन के दिन गांव भर में खुशी का माहौल था। सब लोग स्कूल के बाहर जमा थे। काव्या ने भाषण के बाद माइक उठाया और कहा, “आज मैं यहां एक और काम करने आई हूं। मैं इस स्कूल के साथ अपनी जिंदगी की नई शुरुआत भी करना चाहती हूं — रणविजय, क्या तुम मेरे हमसफ़र बनोगे?”

पूरा गांव तालियों से गूंज उठा। रणविजय जो पीछे खड़ा था, उसकी आंखें भीग गईं। वह आगे आया, काव्या की तरफ देखा और बोला, “तुम्हारे साथ चलने में जो सुकून है, वो किसी और रास्ते में नहीं है।”

उस दिन दो लोगों की ज़िन्दगी बदल गई — एक शहर की लड़की जिसने सादगी में सच्चाई पाई, और एक गांव का लड़का जिसने मोहब्बत में बराबरी का साथ पाया।

सीख:
सच्चा प्यार ना तो शहर देखता है, ना गांव, ना पैसा, ना शोहरत। वो बस इंसान की सच्चाई, उसकी सोच और उसके साथ निभाने की ताकत देखता है।

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