गार्ड ने एक बेघर लड़के को धक्के मारकर निकाला… फिर जो हुआ, उससे पूरा रेलवे हिल गया!

कहते हैं कि रात का सबसे घना अंधेरा भोर के उजाले से ठीक पहले आता है। लेकिन मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) की ठंडी जमीन पर सोने वालों के लिए वह अंधेरा कभी खत्म नहीं होता था। यह कहानी है सलील की, एक 11 साल के लड़के की, जिसकी दुनिया उस विशाल स्टेशन की बेंचों और पटरियों के शोर तक ही सीमित थी। उसके मां-बाप कौन थे? कहां गए? उसे याद नहीं था। उसकी याददाश्त में सिर्फ ट्रेनों की गड़गड़ाहट और पेट की वह भूख थी जो कभी शांत नहीं होती थी।

सलील स्टेशन पर अखबार बेचता, कभी पानी की बोतलें और जो कुछ मिल जाता उसी से गुजारा करता। वह उन हजारों अनदेखे चेहरों में से एक था जिनसे लोग नजरें चुराकर गुजर जाते हैं। उस रात मानसून की बारिश पागल हो चुकी थी। तेज हवा के झोंके पानी को प्लेटफार्म के अंदर तक फेंक रहे थे। यात्री अपनी महंगी ट्रॉलियां खींचते हुए तेजी से निकल रहे थे।

सलील रोज की तरह प्लेटफार्म नंबर चार के सबसे कोने वाले पंखे के नीचे अपनी एक फटी हुई चादर में सिकुड़ा हुआ था। बारिश की वजह से आज एक भी अखबार नहीं बिका था। और उसके पेट में चूहों की दौड़ तेज हो गई थी। तभी बूटों की भारी आवाज उसके करीब आई। गार्ड भानु सिंह, एक सख्त और घमंडी आदमी, जिसे सलील जैसे बच्चों से नफरत थी।

भानु की नजर सलील पर पड़ी जो ठंड से कांप रहा था। “ए लड़के, उठ!” भानु ने अपनी लाठी से उसे ठोका। सलील हड़बड़ा कर उठ बैठा। “साहब, वो साहब बाप बनाया है मुझे। कितनी बार कहां है? यहां नहीं सोने का। स्टेशन को धर्मशाला समझ रखा है क्या तुम भिखारियों ने?” भानु सिंह गरजा।

“साहब, बाहर पानी बहुत है।”

“बस आज की रात,” सलील की आवाज कांप गई।

“पानी है तो डूब जा। मेरी ड्यूटी खराब मत कर,” भानु ने सलील का छोटा सा थैला, जिसमें उसकी बची खुची पट्टियां थीं, उठाकर जोर से प्लेटफार्म के बाहर गीली जमीन पर फेंक दिया। “चल निकल यहां से। दोबारा नजर आया तो टांगे तोड़ दूंगा।”

भानु ने उसे कॉलर से पकड़ा और लगभग घसीटते हुए स्टेशन के मुख्य द्वार तक ले गया। उसने सलील को बाहर बारिश में जोर से धक्का दिया। सलील गीले फर्श पर गिर पड़ा। उसकी कोहनी छिल गई। गार्ड ने घृणा से उसे देखा। दरवाजा बंद किया और वापस अपनी गश्त पर चला गया।

सलील बारिश में अकेला बैठा रहा। आंसू उसकी आंखों से बहकर बारिश के पानी में मिल रहे थे। उसे गार्ड पर गुस्सा नहीं आ रहा था। उसे अपनी किस्मत पर रोना आ रहा था। वह भूखा था, भीगा हुआ था और अब उसके पास सोने के लिए वह कोना भी नहीं था।

वह नहीं जानता था कि यह बेइज्जती, यह अंधेरी रात एक ऐसी कहानी की शुरुआत थी जो इस पूरे रेलवे स्टेशन का इतिहास बदलने वाली थी। सलील बारिश के थपड़ों से बचने के लिए स्टेशन की बाहरी दीवार से चिपक गया। हर बूंद एक छोटे कंकड़ की तरह चुभ रही थी। उसका शरीर कांप रहा था। लेकिन ठंड से ज्यादा उस अपमान की आग से जो गार्ड भानु सिंह ने उसके दिल में लगाई थी।

“भिखारी,” यह शब्द उसके कानों में गूंज रहा था। वह भिखारी नहीं था। वह बस अकेला था। वह घिसटता हुआ उस जगह पहुंचा जहां से फर्स्ट क्लास के यात्रियों की गाड़ियां आती-जाती थीं। वहां एक छोटी सी छत थी जो उसे बारिश से तो नहीं पर हवा के सीधे झोंकों से बचा रही थी। वह अपने घुटनों में सिर छिपाकर बैठ गया। भूख से उसका पेट ऐंठ रहा था।

तभी उसकी नजर कुछ दूर पड़ी एक चीज पर गई। एक काले रंग की महंगी लेदर की ब्रीफ केस। वह फर्स्ट क्लास वेटिंग रूम के बाहर एक बेंच के नीचे आधी भीगी हुई पड़ी थी। शायद कोई वीआईपी यात्री अपनी गाड़ी की जल्दी में उसे भूल गया था। सलील की धड़कनें तेज हो गईं। उसने डरते-डरते आसपास देखा।

रात के उस पहर में और उस मूसलाधार बारिश में वहां कोई नहीं था। सिर्फ दूर गश्त लगाते गार्ड की सीटी की आवाज कभी-कभी हवा में तैर जाती। एक पल के लिए उसके दिमाग में ख्याल आया। “क्या इसमें पैसे होंगे? खाना।” वह रेंगता हुआ उस बेंच तक पहुंचा।

ब्रीफ केस भारी थी। उसने कांपते हाथों से उसका ताला खोलने की कोशिश की। वह बंद थी। उसने एक छोटा सा पत्थर उठाया और जोर से उसके लॉक पर मारा। एक दो कोशिशों के बाद खट की आवाज के साथ वह खुल गई। सलील का दिल जोर से धड़क रहा था। उसने ढक्कन उठाया।

अंदर नोटों की गड्डियां थीं। इतनी कि सलील ने अपनी पूरी जिंदगी में एक साथ नहीं देखी थी। उसकी आंखें फैल गईं। इस पैसे से वह महीनों तक भरपेट खाना खा सकता था। एक कमरा किराए पर ले सकता था और भानु सिंह जैसे गार्डों की नजरों से दूर जा सकता था। वह सब कुछ कर सकता था जिसका उसने कभी सपना देखा था।

उसने झट से ब्रीफ केस बंद कर दी। वह उसे अपनी फटी चादर में लपेटने ही वाला था कि ब्रीफ केस के साइड पॉकेट से कुछ गिरा। एक छोटी सी मुड़ी हुई तस्वीर। यह एक बच्चे की तस्वीर थी। शायद सलील की ही उम्र का। लेकिन उसके कपड़े साफ थे और वह मुस्कुरा रहा था।

तस्वीर के पीछे नीली स्याही से कुछ लिखा था। “चिंटू, मेरा अभिमान।” सलील वहीं जम गया। वह पैसे को घूरता रहा। फिर उस तस्वीर को। उसे भानु सिंह के शब्द याद आए। “चल निकल यहां से।” और फिर उसे अपनी मां की एक धुंधली सी याद आई जो उसे कभी “राजा बेटा” कहती थी।

अगर यह पैसे और यह तस्वीर किसी के अभिमान की निशानी थी तो वह उसे कैसे चुरा सकता था? दुनिया ने उसके साथ बुरा किया था। लेकिन क्या इसका मतलब यह था कि वह भी बुरा बन जाए? उसी ब्रीफ केस में एक विजिटिंग कार्ड भी पड़ा था। उस पर नाम लिखा था “श्री अवनीश सरीन, सीईओ, सरीन टेक्सटाइल्स” और एक फोन नंबर।

सलील को पढ़ना-लिखना थोड़ा बहुत आता था जो उसने स्टेशन पर अखबार बेचते-बेचते सीखा था। एक तरफ जिंदगी भर की भूख का इलाज था। दूसरी तरफ एक अनजान चिंटू की मुस्कान और किसी का अभिमान।

सलील ने एक लंबी सांस ली। उसने नोटों की गड्डियों को छुआ तक नहीं। उसने तस्वीर को वापस पॉकेट में डाला। ब्रीफ केस को कसकर बंद किया और उसे अपनी छाती से चिपका लिया। वह भूखा और भीगा हुआ हो सकता था। लेकिन वह चोर नहीं था।

उसे नहीं पता था कि यह ईमानदारी उसे कहां ले जाएगी। लेकिन वह जानता था कि गार्ड भानु सिंह के मुंह पर यह सबसे बड़ा तमाचा होगा। वह उस ब्रीफ केस को वापस करने का रास्ता ढूंढेगा। बारिश थोड़ी थमी थी लेकिन रात और गहरी हो गई थी।

सलील ने ब्रीफ केस को अपनी फटी चादर में लपेटा और उसे अपनी छाती से ऐसे चिपका लिया मानो वह कोई खजाना नहीं, बल्कि उसकी अपनी जान हो। अब उसके सामने एक ही लक्ष्य था। इस ब्रीफ केस को उसके मालिक श्री अवनीश सरीन तक पहुंचाना। लेकिन कैसे?

उसके पास विजिटिंग कार्ड था जिस पर एक फोन नंबर था। लेकिन उसके पास ना फोन था। ना ही फोन करने के लिए एक भी रुपया। उसने प्लेटफार्म नंबर एक की तरफ देखा। जहां 24 घंटे खुला रहने वाला पीसीओ बूथ था। बूथ का मालिक एक मोटा सा लाला ऊंघ रहा था।

सलील ने हिम्मत जुटाई। वह जानता था कि उसके गंदे गीले कपड़ों में उसे कोई भी भगा देगा। लेकिन उसके पास कोई और चारा नहीं था। वह धीरे से बूथ तक पहुंचा। “सेठ जी,” उसकी आवाज बिल्ली की म्याऊ जैसी निकली। लाला ने अपनी एक आंख खोली और सलील को घूर कर देखा। “क्या है?”

“मुझे एक फोन करना है। बहुत जरूरी है।” लाला ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। “पैसे हैं? ₹2 लगेंगे।” सलील का दिल बैठ गया। उसने अपनी जेबें टटोली यह जानते हुए भी कि वे खाली हैं। “पैसे पैसे नहीं हैं सेठ जी। लेकिन आप फोन मिला दो। वो वो बहुत बड़े आदमी हैं। वो दे देंगे।”

“बड़े आदमी?” लाला पूरी तरह जाग गया था और उसकी आवाज में शक था। “भाग यहां से। सुबह से धंधा खराब करने आ जाते हैं। ना जाने कहां-कहां से।” तभी लाला की नजर उस ब्रीफ केस पर पड़ी जो सलील की चादर से बाहर झांक रही थी। “अरे, यह क्या है तेरे हाथ में?”

सलील ने उससे और कसकर छिपा लिया। “चोरी का माल है।” लाला चिल्लाया। “पकड़ो, चोर! चोर!” सलील के हाथ पैर ठंडे पड़ गए। वह पीछे मुड़ा और भागने ही वाला था कि उसका रास्ता रोक लिया गया। सामने वही झल्लाद खड़ा था।

गार्ड भानु सिंह। “अच्छा तो तू ही है।” भानु सिंह ने अपनी लाठी जमीन पर पटकते हुए कहा। उसकी आंखें उस ब्रीफ केस पर गढ़ गई थीं। “लाला जी सही कह रहे हैं। चोरी की है तूने। चल निकाल!”

“नहीं!” सलील जोर से चीखा। “यह चोरी का नहीं है। यह मुझे मिला है। मैं इसे वापस करने जा रहा हूं।”

“चुप कर, झूठे!” भानु ने एक झटके में सलील का हाथ पकड़ा और ब्रीफ केस छीनने की कोशिश की। “सारी होशियारी निकालता हूं तेरी।” लेकिन सलील, जो भूख और ठंड से कांप रहा था, अब एक अजीब सी हिम्मत से भर गया था।

यह ब्रीफ केस किसी के अभिमान की निशानी थी। यह उसका सबूत था कि वह भिखारी नहीं है। उसने अपनी पूरी ताकत से ब्रीफ केस को पकड़े रखा। “छोड़ो इसे। यह मेरा नहीं है।”

भानु को गुस्सा आ गया। “एक इतना सा लड़का उसकी ताकत को चुनौती दे रहा था। उसने अपनी लाठी उठाई। “नहीं मानेगा।” जैसे ही भानू ने लाठी घुमाई, सलील जमीन पर झुक गया और भानू के घुटने पर जोर से काट लिया।

“आ, हरामजादे!” भानु दर्द से कराह उठा। इसी पल का फायदा उठाकर सलील वहां से भागा। वह पटरियों की तरफ नहीं बल्कि स्टेशन के उस हिस्से की तरफ भागा जहां पार्सल, ऑफिस और मालगाड़ियां खड़ी होती थीं।

वह अंधेरे में गायब हो गया। लेकिन उसके पीछे भानु सिंह की गालियां और सिटी का शोर गूंजता रहा। वह अब सिर्फ एक भूखा लड़का नहीं था। वह एक ईमानदार गवाह था जिसे एक भ्रष्ट गार्ड चोर साबित करने पर तुला था।

सलील किसी जंगली जानवर की तरह अंधेरे में भाग रहा था। वह पटरियों को लांघता, पत्थरों से ठोकर खाता, मालगाड़ियों के विशाल पहियों के नीचे से फिसलता हुआ रेलवे यार्ड के सबसे घने हिस्से में पहुंच गया। यह जगह भूतों के डेरे जैसी थी।

यहां वहां कबाड़ के ढेर, पुरानी झंग लगी पटरियां और सन्नाटे में खड़ी मालगाड़ियां। वह एक खुली भूगी वैगन के नीचे छिप गया। उसका पूरा शरीर कीचड़ और ग्रीस से सन गया था। हर छोटी आहट पर उसका दिल उछल पड़ता। उसे भानु सिंह की आवाज सुनाई दे रही थी। जो अब अपने एक और साथी गार्ड के साथ उसे ढूंढ रहा था।

“साला, पता नहीं कहां छिप गया चूहा। हाथ आ जाता तो आज उसकी हड्डियां एक कर देता।”

“अरे भानु, जाने दे। क्या चुरा लिया होगा उस फटेल ने?” दूसरे गार्ड ने कहा।

“फटेहाल नहीं, उसके हाथ में एक महंगा ब्रीफ केस था। मैंने अपनी आंखों से देखा, कोई मोटा माल होगा। आज तो उसे पकड़ कर ही रहूंगा।”

भानु की आवाज में लालच साफ झलक रहा था। सलील ने अपनी सांस रोक ली। वह समझ गया था। भानु सिंह को अब उस ब्रीफ केस के मालिक की नहीं बल्कि खुद उस ब्रीफ केस की तलाश थी।

अगर सलील पकड़ा गया तो भानु उसे चोर बताकर पहले बुरी तरह पीटेगा और फिर वह ब्रीफ केस खुद हड़प लेगा। उसकी ईमानदारी का कोई गवाह नहीं होगा। वह और अंदर एक खाली, सीलन भरी बोगी के अंधेरे कोने में सरक गया। वह वहां घंटों बैठा रहा। भूख, ठंड और डर ने उसे लगभग सुनकर दिया था।

एक बार फिर उसने अपनी फटी चादर के अंदर से उस ब्रीफ केस को छुआ। “क्या मैं मर जाऊंगा?” उसने सोचा इस ईमानदारी को बचाने के लिए? उसने धीरे से ब्रीफ केस खोला। नोटों की गड्डियां अंधेरे में भी चमक रही थीं। सिर्फ एक गड्डी। सिर्फ 1000 का नोट। वह उसे खाना खरीद सकता था।

यहां से दूर जा सकता था। किसी को पता नहीं चलता। लेकिन जैसे ही उसने पैसे की तरफ हाथ बढ़ाया, उसकी उंगलियों ने फिर से उस तस्वीर को छुआ। “चिंटू, मेरा अभिमान।”

सलील ने जोर से अपनी आंखें बंद कर लीं। “नहीं, अगर उसने यह पैसा ले लिया, तो वह भानु सिंह और उस लाला की नजरों में सही साबित हो जाएगा। वह चोर बन जाएगा और वह चोर नहीं था।”

उसने ब्रीफ केस बंद किया। उसने फैसला कर लिया था। वह इस ब्रीफ केस को खुद अवनीश सरीन तक पहुंचाएगा। चाहे कुछ भी हो जाए। सुबह के 4:00 बज रहे थे। बारिश रुक चुकी थी। भोर की पहली हल्की सी रोशनी लोहे की पटरियों पर चमक रही थी। गार्डों की आवाजें आनी बंद हो गई थीं। शायद वे थक कर बैठ गए थे।

सलील बोगी से बाहर निकला। वह अब स्टेशन के अंदर वापस नहीं जा सकता था। उसने यार्ड की टूटी हुई चार दीवारी को देखा और उसे लांघ कर बाहर मुख्य सड़क पर आ गया। सड़क गीली और खाली थी। कुछ दूर स्टेशन के टैक्सी स्टैंड के पास एक छोटी सी चाय की टपरी अभी-अभी खुल रही थी।

एक बुजुर्ग आदमी जिनकी सफेद दाढ़ी थी, स्टोव जलाने की कोशिश कर रहा था। सलील के पास खोने के लिए कुछ नहीं था। वह हिम्मत करके उस टपरी तक पहुंचा। “चाचा, सलाम।” उसकी आवाज फटी हुई निकली।

बुजुर्ग आदमी जिनका नाम रहीम चाचा था ने नजरें उठाई। उन्होंने कीचड़ में सने भीगे हुए कांपते लड़के को देखा। “सलाम बेटा, कुछ चाहिए?”

सलील के आंसू छलक पड़े। उसने ब्रीफ केस को आगे कर दिया। “चाचा, मैं चोर नहीं हूं। यह मुझे मिला है। मैं इसे वापस करना चाहता हूं। लेकिन गार्ड मेरे पीछे पड़ा है। वह मुझे मार डालेगा और इसे रख लेगा। मुझे बस एक फोन करना है।”

उसने विजिटिंग कार्ड रहीम चाचा को थमाया। रहीम चाचा ने एक नजर सलील की घबराई हुई लेकिन सच्ची आंखों में देखा और फिर कार्ड पर लिखे बड़े नाम को। यह एक ऐसा पल था जहां विश्वास खरीदा नहीं, कमाया जाता है।

रहीम चाचा ने स्टोर से हाथ पोंछा। अपनी जेब से एक पुराना बटन वाला फोन निकाला। “नंबर बोल बेटा।” दुनिया कितनी भी बुरी हो जाए इंसानियत अभी जिंदा है।

सलील की उंगलियां कांप रही थीं। लेकिन रहीम चाचा का हाथ स्थिर था। उन्होंने अपने पुराने फोन से नंबर मिलाया। घंटी बज रही थी। “एक, दो, तीन।” तभी दूसरी तरफ से एक गहरी नींद में डूबी हुई लेकिन ड्रपदार आवाज आई। “कौन है इस वक्त?”

रहीम चाचा ने फोन को सलील की तरफ बढ़ाया। सलील की हिम्मत जवाब दे गई। उसने नाम में सिर हिला दिया। रहीम चाचा समझ गए। “सलाम साहब जी।” चाचा ने हिम्मत से कहा, “मेरा नाम रहीम है। मैं सीएसटी स्टेशन पर चाय की टपरी चलाता हूं। आपके आपके कोई…”

“साहब क्या बकवास है?” अवनीश सरीन की आवाज में झुंझुलाहट थी। “तुम जानते हो मैं कौन हूं?”

सलील को लगा कि यह मौका हाथ से निकल जाएगा। उसने अपनी सारी बची खुची ताकत बटोरी और रहीम चाचा के हाथ से फोन लगभग छीन लिया। “साहब, साहब, प्लीज फोन मत काटना।” वह एक सांस में बोला, “आपका काला ब्रीफ केस है। वो मेरे पास है। साहब, मैं चोर नहीं हूं।”

दूसरी तरफ एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। इतनी गहरी चुप थी कि सलील को लगा लाइन कट गई। “कहां हो? तुम अवनीश सरीन की आवाज अब नींद में नहीं बल्कि सदमे में थी।”

“मैं स्टेशन पर हूं। मुझे यह मिला था। लेकिन गार्ड भानु सिंह अब वो मेरे पीछे पड़ा है। वह कहता है मैं चोर हूं। वो यह ब्रीफ केस मुझसे छीनना चाहता है साहब।”

“तुम्हें कैसे पता चला कि यह मेरा है?” अवनीश ने पूछा, उसकी आवाज में अभी भी शक था।

“इसमें एक तस्वीर थी।” सलील ने कांपते हुए कहा, “एक बच्चे की। चिंटू लिखा था और मेरे अभिमान।”

यह शब्द एक गोली की तरह लगे। दूसरी तरफ अवनीश सरीन जो अपने आलीशान बेडरूम में बैठा था, उसकी आंखें फैल गईं। “मेरा अभिमान!”

यह दो शब्द सिर्फ वह और उसकी स्वर्गीय पत्नी जानते थे जो उन्होंने अपने बेटे की पहली तस्वीर के पीछे लिखे थे। “यह लड़का सच बोल रहा था। तुम कहां हो? ठीक-ठीक बताओ।”

अवनीश की आवाज में अब एक अजीब सी थी। सलील ने फोन वापस रहीम चाचा को दिया। “साहब, लड़का मेरे पास है। प्लेटफार्म एक के टैक्सी स्टैंड के पास रहीम की चाय टपरी है। हम यहीं हैं। ₹00 नकद हैं उस ब्रीफ केस में।”

अवनीश ने कहा। रहीम चाचा ने सलील की तरफ देखा। सलील ने जोर से नाम में सिर हिलाया। “साहब, रहीम चाचा बोले, लड़के की जान की कीमत 50,000 से ज्यादा है। यह ईमानदार है। मैं अपनी गाड़ी भेज रहा हूं। मेरे दो आदमी आ रहे हैं। किसी को, खासकर किसी पुलिस या गार्ड को वह ब्रीफ केस मत देना। जब तक वे मेरा नाम ना ले। मैं खुद भी पहुंच रहा हूं।”

फोन कट गया। सलील ने एक ठंडी सांस ली। रहीम चाचा ने उसे एक गर्म चाय का गिलास पकड़वाया। “पी ले बेटा। हिम्मत रख। इंसानियत का इम्तिहान थोड़ा लंबा होता है। पर नतीजा हमेशा मीठा होता है।”

सलील ने अभी पहला घूंट ही भरा था कि उसके रोंगटे खड़े हो गए। वही भारी बूटों की आवाज। गार्ड भानु सिंह अपनी लाठी घसीटता हुआ टपरी की तरफ आ रहा था। उसका चेहरा भोर के धुंधल में किसी शैतान जैसा लग रहा था।

वह रात भर की गश्त और उस चूहे के भाग जाने से गुस्से में लाल था। “चाचा, सुबह-सुबह किसको चाय पिला रहा है?” भानु ने टपरी के पास रुक कर कहा।

रहीम चाचा का दिल धड़क उठा। लेकिन उन्होंने अपना चेहरा शांत रखा। “बस गश्त पर जा रहा था।”

सोचा भानु की नजरें अंधेरी टपरी के अंदर कुछ तलाश रही थीं। “यहां कोई लौंडा आया था? कीचड़ में सना हुआ। नहीं तो साहब सुबह-सुबह कौन?”

तभी भानु ने टपरी के काउंटर के नीचे छिपाए गए दो छोटे गंदे पैरों को देख लिया। “आ हा हा, तो तू यहां छिपा है। हरामखोर।”

भानु सिंह ने काउंटर पर लात मारी। चाय का पतीला गिर गया। वह सलील को घसीट कर बाहर निकालने के लिए झुका। उसका हाथ सलील की कॉलर पर था। “ला, ब्रीफ केस कहां है?” उसने सलील को जमीन पर पटक दिया और अपनी लाठी हवा में उठाई।

“आज तेरी जिंदगी की आखिरी रात है, चोर!” जैसे ही लाठी नीचे आने वाली थी, एक जोरदार आवाज ने पूरे स्टेशन को चीर दिया। “हाथ नीचे कर लो!”

गार्ड एक काली चमचमाती Mercedes-Benz टैक्सी स्टैंड पर आकर रुकी थी। दो लंबे चौड़े बॉडीगार्ड बाहर निकले और उनके पीछे एक महंगा ओवरकोट पहने अवनीश सरीन खुद खड़े थे। उनकी आंखों में इतनी ठंडक थी कि भानु सिंह का उठा हुआ हाथ हवा में जम गया।

भानु सिंह का हाथ जिसमें उसने पूरी ताकत से लाठी पकड़ी हुई थी, हवा में ही कांप गया। उसके माथे पर पसीना फूट पड़ा। वह घूर कर उस आलीशान गाड़ी और उसमें से निकले महंगे सूट वाले आदमी को देख रहा था। उसे लगा कि वह कोई सपना देख रहा है।

“यह आदमी इस कीचड़ में सने चोर के लिए यहां क्यों आएगा?”

“कौन है आप?” भानु ने अपनी घबराहट छिपाने के लिए आवाज ऊंची रखने की कोशिश की। “यह रेलवे की संपत्ति है। मैं मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूं।”

अवनीश सरीन एक कदम आगे बढ़े। उनके बॉडीगार्डस ने भानु को दोनों तरफ से घेर लिया था। अवनीश की आंखों में गुस्सा नहीं, एक ठंडी बेजान नफरत थी। “तुम ड्यूटी कर रहे थे,” अवनीश ने कहा, उनकी आवाज शांत लेकिन इतनी पैनी थी कि हवा को चीर गई।

“तुम एक बच्चे को लाठी से मारने को ड्यूटी कहते हो?”

“साहब, आप नहीं जानते।” भानु अब गिड़गिड़ाने लगा था। “यह यह चोर है। इसने आपका ब्रीफ केस चुराया है। मैंने इसे रंगे हाथों पकड़ा है। मैं तो आपका सामान बचा रहा था।”

अवनीश सरीन उस पर से नजरें हटाकर जमीन पर पड़े सलील के पास गए। सलील, जो इस पूरे तमाशे से सहमा हुआ था, ने ब्रीफ केस को अब भी अपनी छाती से चिपका रखा था।

अवनीश उसके सामने घुटनों पर बैठ गए। उनके हजारों रुपए के इटालियन जूते कीचड़ में सन गए। लेकिन उन्हें परवाह नहीं थी। “तुम ठीक हो बेटा?”

उन्होंने सलील के कंधे पर हाथ रखा। सलील ने सिर्फ हां में सिर हिलाया। उसकी आंखें फटी हुई थीं।

“यह लड़का चोर नहीं है,” अवनीश ने खड़े होते हुए भानु की तरफ देखा। “इसने मुझे फोन किया। इसने मुझे बताया कि यह ब्रीफ केस उसका नहीं है। इसने मुझे यह भी बताया कि एक गार्ड जिसका नाम भानु सिंह है, उसे चोर कहकर मारना चाहता है ताकि वह यह ब्रीफ केस खुद हड़प सके।”

यह सुनते ही भानु के पैरों तले जमीन खिसक गई। “नहीं साहब, यह झूठ बोल रहा है। यह आपको फंसा रहा है। मैं मैं अभी आरपीएफ को बुलाता हूं।”

“बुलाओ,” अवनीश ने कहा। “सबको बुलाओ। मैंने भी डीआरएम, डिवीजनल रेलवे मैनेजर को फोन कर ही दिया है। वह पहुंचते ही होंगे। देखते हैं आज कौन फंसता है।”

डीआरएम का नाम सुनते ही भानु का रंग सफेद पड़ गया। “ब्रीफ केस दो, सलील,” अवनीश ने नरमी से कहा।

सलील धीरे से उठा। उसने रहीम चाचा की तरफ देखा जिन्होंने हिम्मत देने के लिए अपनी पलकें झपकाई। सलील लंगड़ाता हुआ भानु सिंह के पास से गुजरा जिसे अब बॉडीगार्ड्स ने पकड़ रखा था और ब्रीफ केस अवनीश सरीन को थमा दिया।

अवनीश ने ब्रीफ केस लिया। उन्होंने उसे खोला तक नहीं। उन्होंने पैसे की गड्डियों को चेक नहीं किया। उन्होंने सिर्फ साइड पॉकेट में हाथ डाला और वह मुड़ी हुई तस्वीर निकाली। “चिंटू, मेरा अभिमान।”

उन्होंने तस्वीर को चूमा और फिर सलील की आंखों में देखा। “तुमने इस कागज के टुकड़े के लिए अपनी जान खतरे में डाल दी।”

“वो वो आपका अभिमान था, साहब,” सलील धीरे से बोला।

अवनीश सरीन, वह आदमी जिसने करोड़ों के सौदे किए थे, जिसने कभी अपनी भावनाओं को बाहर नहीं आने दिया था, उसकी आंखें भर आईं। तभी सायरन की आवाजें गूंजने लगीं। आरपीएफ की जीप और साथ में रेलवे के बड़े अफसरों की गाड़ियां तेजी से टैक्सी स्टैंड पर रुकीं।

पूरा प्लेटफार्म नंबर एक जाग गया था। “सलील, साहब आप यहां इस वक्त,” एक ऊंचे अफसर डीआरएम ने गाड़ी से उतरते ही कहा।

अवनीश ने उनकी तरफ देखा और फिर भानु सिंह की तरफ उंगली उठाई। “मैं यहां इस बच्चे से मिलने आया हूं जिसने मेरी ईमानदारी को बचाया। और मैं आपसे यह पूछने आया हूं कि आपके गार्ड आपकी वर्दी पहनकर स्टेशन पर लूटपाट कब से करने लगे?”

यह एक ऐसा इल्जाम था जिसने सिर्फ भानु को नहीं बल्कि पूरे रेलवे प्रशासन को हिलाकर रख दिया था। डिवीजनल रेलवे मैनेजर के चेहरे का रंग उड़ गया। “अवनीश साहब, यह आप क्या कह रहे हैं?” डीआरएम ने घबराते हुए कहा। “लूटपाट हमारी वर्दी में आप अपनी आंखों से देख लीजिए।”

अवनीश ने जमीन पर पड़े सलील की तरफ इशारा किया जिसकी कोहनी से अभी भी खून रिस रहा था। “अगर मैं 5 मिनट देर से पहुंचता तो आपका यह वफादार गार्ड इस बच्चे को शायद जान से ही मार डालता।”

भानु सिंह कांप रहा था। “नहीं साहब, यह सब झूठ है। मेरे पास गवाह है। वो पीसीओ वाला लाला!” भानु ने उस लाला को आवाज लगाई जो दूर से यह तमाशा देख रहा था।

लाला, जिसने पहले सलील पर चोर का इल्जाम लगाया था, अब बड़े अफसरों और महंगी गाड़ी को देखकर डर गया था। उसे लगा कि अगर वह गार्ड का साथ देगा तो वह भी फंस जाएगा।

लाला दौड़ता हुआ आया। “नहीं साहब नहीं।” वह डीआरएम के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। “गार्ड साहब झूठ बोल रहे हैं। मैंने देखा था। गार्ड साहब की नजर उस ब्रीफ केस पर थी। वो लड़के से कह रहे थे, ‘माल कहां है? आधा मुझे दे वरना चोरी में अंदर करवा दूंगा।’ लड़का भागा तो इन्होंने उसे मारा।”

भानु सिंह के पैरों तले बची खुची जमीन भी खिसक गई। “लाला तू तू पलट गया। मैं नहीं पलटा।” लाला चीखा। “मैं हक बात कह रहा हूं। यह लड़का चोर नहीं है।”

तभी रहीम चाचा भी आगे आए। “डीआरएम साहब, मैं इस लड़के का गवाह हूं। यह भोर से पहले मेरे पास आया था। यह कांप रहा था। इसने कहा, ‘चाचा, मैं चोर नहीं हूं। मुझे बस एक फोन करना है।’ इसने इस ब्रीफ केस को छुआ तक नहीं। इसने सिर्फ मालिक को ढूंढने में मदद मांगी। इंसानियत के नाते मैंने फोन मिलाया। और यह गार्ड इस लड़के को तब से मार रहा है।”

सबूत साफ था। एक तरफ एक डरा हुआ ईमानदार लड़का और एक बुजुर्ग गवाह थे। दूसरी तरफ एक लालची गार्ड जिसकी गवाही उसी के साथी ने पलट दी थी।

डीआरएम ने आरपीएफ अफसर को सख्त आदेश दिया। “गार्ड भानु सिंह, आपकी बर्बरता और इस घिनौने कृत्य के लिए आपको तत्काल सस्पेंड किया जाता है। इन्हें हिरासत में लो। इन पर डकैती की कोशिश और एक नाबालिग पर जानलेवा हमला करने का मुकदमा चलाया जाएगा।”

दो आरपीएफ जवानों ने भानु सिंह से उसकी लाठी और बेल्ट छीन ली। वह गार्ड जो कुछ मिनटों पहले तक अपनी वर्दी की धौंस दिखा रहा था, अब एक मुजरिम की तरह घसीटा जा रहा था। “साहब, मेरी बात सुनो। मैं बेकसूर हूं!” वह चीखता रहा। लेकिन उसकी आवाज को किसी ने नहीं सुना।

पूरा स्टेशन अब तक जाग चुका था। सैकड़ों आंखें उस गार्ड को देख रही थीं जिसने एक बेघर लड़के को धक्के मारकर निकाला था और अब खुद धक्के खाकर बाहर जा रहा था। जब सन्नाटा पसरा, अवनीश सरीन वापस सलील के पास आए।

उन्होंने अपना महंगा ओवरकोट उतारा और उस कीचड़ में सने लड़के के कांपते कंधों पर डाल दिया। “₹00,” अवनीश ने कहा, “और मेरे बेटे की आखिरी तस्वीर इस ब्रीफ केस में मेरी जिंदगी की सबसे कीमती चीज थी। तुमने दोनों को बचा लिया। तुमने मेरा अभिमान बचाया।”

सलील कुछ नहीं बोला। उसकी आंखों में सिर्फ आंसू थे। अवनीश ने उसका हाथ पकड़ा। “आज से तुम स्टेशन पर नहीं सोओगे। तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे। तुम्हें चिंटू की तरह बढ़ाऊंगा। तुम भी मेरा अभिमान बनोगे।”

सलील ने मुड़कर रहीम चाचा को देखा। रहीम चाचा मुस्कुरा रहे थे। उनकी आंखों में आंसू थे। अवनीश उनकी तरफ मुड़े। “चाचा, आपकी इंसानियत का कर्ज मैं कभी नहीं चुका सकता।”

उन्होंने अपने मैनेजर को आदेश दिया कि “रहीम चाचा को उसी जगह पर एक पक्की लाइसेंसी दुकान और एक घर दिया जाए।”

उस भोर जब सूरज की पहली किरण सीएसटी स्टेशन के गुंबद पर पड़ी तो वह सिर्फ एक नई सुबह नहीं थी। वह सलील की नई जिंदगी की शुरुआत थी। एक गार्ड ने उसे धक्के मारकर बेइज्जत किया था। लेकिन उसी बेइज्जती ने उसे एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया जहां हजारों गार्ड उसे सलाम करने के लिए खड़े थे।

रेलवे स्टेशन की पटरियों जो रोज हजारों कहानियां नजर देखती हैं, उस दिन कर्म के सबसे बड़े न्याय की गवाह बनीं।

सलील ने अपनी नई जिंदगी की शुरुआत की। वह अब न केवल एक ईमानदार लड़का था, बल्कि एक ऐसा बच्चा था जिसने अपने अभिमान को बचाया और अपनी ईमानदारी से सबको सिखाया कि इंसानियत और सम्मान सबसे बड़ा धन है।

इस कहानी ने हमें यह सिखाया कि जब हम अपनी ईमानदारी और मानवता को बनाए रखते हैं, तो कठिनाइयां भी हमें मजबूत बनाती हैं। सलील की कहानी यह साबित करती है कि सच्ची ईमानदारी और साहस का फल हमेशा मीठा होता है।

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