ज़ालिम बहुओं पर कुरान का अज़ाब – मासूम सास और ज़ालिम बहुओं का दर्दनक अंजाम

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ज़ालिम बहुएं और अल्लाह का अज़ाब: एक मां की दुआओं की ताक़त

सूरज की पहली किरणें जब गांव की गलियों से होकर गुज़रीं, तो फज़्र की अज़ान ने फिज़ा को रूहानियत से भर दिया। उसी वक़्त एक छोटी सी, पुरसुकून सी झोपड़ी में, बुज़ुर्ग महिला हलीमा खातून मुसल्ले पर बैठी अल्लाह से रब्त में थी। उसकी आंखों में आंसू थे, पर चेहरे पर सुकून था। सारी उम्र इबादत, खिदमत और दूसरों की मदद में गुज़ारी थी उसने।

लेकिन उसी घर के अंदर, दूसरी तरफ एक अलग ही आलम था। उसकी तीनों बहुएं – ज़ैनब, फातिमा और खदीजा – उठने को कोस रही थीं। “हर रोज़ फज्र की नमाज़, हर रोज़ दावत, हर रोज़ गरीबों को खाना! ये कोई घर है या रसोई?” ज़ैनब चिढ़ती। फातिमा सर पकड़ कर कहती, “रात बच्चे ने सोने नहीं दिया, अब सुबह से फिर अल्लाह-अल्लाह शुरू!” खदीजा थोड़ा डरते हुए कहती, “चुप रहो, अम्मी जान सुन लेंगी तो…” लेकिन उसके मन में भी खीज थी।

दिन-ब-दिन, ये तीनों बहुएं अपनी सास की नेकदिली को ‘परेशानी’ समझने लगी थीं। उनका दिल धीरे-धीरे पत्थर हो रहा था। उन्हें गरीबों को खाना खिलाना, दीन-दुनिया की बातें करना सब दिखावे का लगता।

और एक दिन, उन्होंने ऐसा इल्ज़ाम लगाया जिससे हलीमा खातून की पूरी दुनिया ही उजड़ गई।

साज़िश और बेदखली

एक दिन जब सबसे छोटा बेटा अहमद घर लौटा, उसने देखा कि उसकी बीवी ज़ैनब ज़मीन पर लेटी हुई है, हाथ पर पट्टी है और रो रही है। “क्या हुआ?” उसने पूछा। “अम्मी जान ने काम करवाया, और मैंने देग उठाई तो हाथ जल गया। लेकिन उन्होंने मेरी मदद तक नहीं की।”

अहमद का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने बिना कुछ सोचे समझे अपनी मां पर इल्ज़ाम मान लिया और अपने भाइयों उमर और बिलाल को भी भड़काया।

तीनों बेटों ने अपनी मां को घेर लिया, जबकि वह उस वक्त कुरान शरीफ की तिलावत कर रही थीं। उमर चिल्लाया, “क्या हमारी बीवियां तुम्हारी नौकरानियां हैं?” हलीमा खातून की आंखें छलक पड़ीं। लेकिन जब उन्हें बेटों से जवाब मिला कि “अब आप इस घर में नहीं रह सकतीं”, तो वह चुपचाप अपनी चादर में थोड़े कपड़े बांधकर घर छोड़कर निकल गईं।

तन्हाई और रहमत

हलीमा खातून ने किसी से मदद नहीं मांगी। ना अपने भाई के घर गई, ना किसी पड़ोसी से शिकायत की। एक पेड़ के नीचे बैठकर अल्लाह से दुआ की, “या रब, तू ही मेरा सहारा है।”

उसी वक्त एक रौशन चेहरे वाला नौजवान वहां आया और कहा, “अम्मी जान, चलिए मेरे साथ। जंगल में एक छोटा ठिकाना है।” हलीमा खातून मान गईं। वहां एक झोपड़ी थी, जहां नज़दीक ही नदी बहती थी। झोपड़ी में रहकर वह रोज़ नमाज़ पढ़तीं, दुआएं करतीं।

एक दिन वहां देगें खुद-ब-खुद पकने लगीं, और मिसकीनों को खाना मिलने लगा। यह अल्लाह की रहमत थी।

बहुएं और अज़ाब की शुरुआत

गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई। “जंगल में कोई वलिया है, जिनके पास से खाना निकलता है!” यह बात तीनों बहुओं तक भी पहुंची। जिज्ञासा, हसद और उम्मीद में वे वहां गईं, लेकिन अंहकार से बोलीं: “हम कोई फकीर नहीं जो सदके का खाना खाएं।”

वह झोपड़ी में घुस गईं। तभी वहां एक नूरानी चेहरे वाले बुज़ुर्ग आए। उनकी एक नज़र ने बहुओं को हिला कर रख दिया। उन्होंने पूछा, “तुम कौन हो?” बहुएं झूठ बोलकर निकल गईं। लेकिन उस जंगल की हवा अब उनके लिए बदल चुकी थी।

अज़ाब की शकल

रास्ते में ही तीनों की आवाजें कुत्तों जैसी हो गईं। फिर उनका शरीर भी बदलने लगा। झुक गए, पंजे निकल आए, चेहरे पर बाल उग आए। तीनों बहुएं कुतियाओं में बदल चुकी थीं।

वे घर वापस आईं, लेकिन अपने पतियों को पहचान नहीं पाईं। वे उन्हें भगा देते हैं, पत्थर फेंकते हैं। बहुएं भूख-प्यास से बेहाल गली में भटकने लगीं। अब उन्हें समझ आया कि जो वे सास के साथ करती थीं, वही अब उनके साथ हो रहा है।

तौबा और माफी की दरख्वास्त

आखिरकार उन्होंने सोचा – क्यों ना उसी झोपड़ी में वापस जाएं। वे लौटीं, और बुज़ुर्ग उन्हें देख मुस्कराए। “यह खाना उन लोगों के लिए है जिनके दिल में दर्द है।”

बुज़ुर्ग ने हलीमा खातून को बुलाया। जब उन्होंने देखा कि ये तीनों उनकी बहुएं हैं, तो उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने कहा, “अरे मेरी बच्चियां… तुम्हारे साथ ये क्या हो गया?”

बुज़ुर्ग ने कहा, “अगर तुम सच में पछताती हो, तो अल्लाह से माफी मांगो।” तीनों बहुएं इंसानी आवाज़ में कहने लगीं: “हमें माफ कर दो अम्मी।”

बुज़ुर्ग ने हाथ उठाए, दुआ की। एक रौशनी आई, और तीनों अपनी असली शक्ल में लौट आईं।

सच का उजाला और रिश्तों की मरम्मत

तीनों बहुएं, अपने पतियों के साथ रोते हुए माफी मांगती हैं। बेटों ने मां के कदमों में गिरकर माफ़ी मांगी। हलीमा खातून ने सबको गले से लगाया।

अब घर लौटने का समय था। घर पहुंचते हुए ज़ैनब ने कहा, “यह दरवाजा अब हमेशा आपके लिए खुला रहेगा अम्मी।” अगली सुबह तीनों बहुएं नमाज़ के लिए मुसल्ले पर तैयार थीं। वे अब न सिर्फ़ बहुएं थीं, बल्कि एक नई शुरुआत का हिस्सा थीं।

नया घर, नई बहुएं

अब वह घर, जहां कभी साजिशें और तकब्बुर था, वहां सुकून और इबादत थी। हर हफ्ते गरीबों को खाना बांटा जाता। हर दुआ में हलीमा खातून की आवाज़ गूंजती: “या अल्लाह, इस घर को जन्नत बना दे।”

गांव वाले हैरान थे। “कौन सिखा गया इन बहुओं को इतनी नेकी?” एक बुज़ुर्ग बोले, “यह है एक मां की दुआ और अल्लाह का अज़ाब भी, जो गुनाह से रोकता है और तौबा करने वालों को वापस ले आता है।”

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