जिसे सब पानी पुरी वाला समझते थे, उसके एक कॉल से पूरी एयर इंडिया हिल गई।फिर जो हुआ

अमीनाबाद बाज़ार के कोने पर एक छोटी-सी सहकारी बैंक शाखा थी। यहाँ रोज़ का माहौल साधारण और शांत रहता था। लेकिन पिछले कुछ दिनों से बैंक के कर्मचारियों की नज़र एक ही चेहरे पर बार-बार ठहर रही थी—एक 82 वर्षीय बुज़ुर्ग महिला। झुकी हुई कमर, सफ़ेद बाल, एक साधारण सूती साड़ी और काँपते हाथ।

वह रोज़ आती थी और हर बार पैसे जमा करवाने या भेजने का आग्रह करती थी। एक हफ़्ते में वह चौदह बार बैंक पहुँची। रकम भी छोटी-मोटी नहीं थी—कभी पाँच हज़ार, कभी दस हज़ार, तो कभी बीस हज़ार। हर बार वही खाता नंबर, वही बेचैनी, और वही हड़बड़ी।

शुरुआत में कर्मचारियों ने सोचा कि शायद वह अपने पोते या बच्चों की मदद कर रही होंगी। लेकिन धीरे-धीरे संदेह बढ़ने लगा। खासकर टेलर अनन्या को, जिसने देखा कि हर बार कागज़ों पर हस्ताक्षर करते वक़्त उसके हाथ बुरी तरह काँपते और आँखों में अजीब-सी घबराहट झलकती।

एक दिन अनन्या ने हिम्मत करके पूछ ही लिया—
“माँजी, बार-बार इतने पैसे किसको भेज रही हैं? कोई परेशानी तो नहीं?”

बुज़ुर्ग महिला घबराकर बोली—
“मैं… मैं अपने पोते को भेज रही हूँ। उसे तुरंत ज़रूरत है।”

लेकिन अनन्या को लगा कि जवाब बनावटी है। उसका चेहरा उस खुशी से खाली था, जो आमतौर पर अपनों की मदद करते समय नज़र आती है। उसने तुरंत शाखा प्रबंधक श्री वर्मा को बताया। चर्चा के बाद तय हुआ कि यह मामला पुलिस को बताया जाए, क्योंकि संभावना थी कि महिला किसी धोखाधड़ी या दबाव का शिकार हो रही है।

दोपहर में पुलिस और बैंक स्टाफ़ महिला के घर पहुँचे। चौक इलाके की तंग गलियों में स्थित एक छोटा-सा मकान। लकड़ी का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर से खाँसी और भारी साँसों की आवाज़ आ रही थी।

दरवाज़ा खोलते ही सब चौंक गए।

कमरे में अँधेरा था, दीवारें सीलन से भरी हुईं। एक कोने में पुरानी चारपाई पर एक अधेड़ उम्र का आदमी लेटा था। उसका शरीर बहुत कमजोर, पैर सूख चुके और हिलने-डुलने में असमर्थ। आँखें गहरी धँसी हुईं और चेहरे पर सालों की पीड़ा साफ़ झलक रही थी।

बुज़ुर्ग महिला ने काँपती आवाज़ में कहा—
“ये… मेरा बेटा है। दस साल पहले फ़ैक्ट्री हादसे में दोनों पैर खो बैठा। तब से बिस्तर पर ही है। मैं जो भी पेंशन मिलती है और जो थोड़ी बहुत बचत है, सब इसकी दवाइयों और देखभाल में खर्च करती हूँ। लेकिन डॉक्टर ने कहा है कि इलाज के लिए और ऑपरेशन करवाना पड़ेगा… इसी लिए मुझे बार-बार पैसे भेजने पड़ रहे हैं।”

महिला के शब्दों के साथ ही आँसू बहने लगे। बैंक कर्मचारी और पुलिसकर्मी एक-दूसरे को देख रहे थे। अब उन्हें समझ आया कि वह बुज़ुर्गा ठगी की शिकार नहीं, बल्कि अपनी मजबूरी की वजह से हर बार रकम इकट्ठी करके अस्पताल भेज रही थी।

अनन्या की आँखें भर आईं। उसने पास जाकर महिला का हाथ थामा और कहा—
“माँजी, आपको अकेले ये बोझ नहीं उठाना चाहिए। अगर आप हमें पहले बतातीं तो शायद हम भी मदद कर पाते।”

शाखा प्रबंधक ने तुरंत निर्णय लिया कि बैंक स्टाफ़ मिलकर उनके बेटे के इलाज के लिए मदद करेंगे। वहीं पुलिस अधिकारियों ने भी भरोसा दिलाया कि सरकारी योजनाओं के तहत उन्हें इलाज और पेंशन की अतिरिक्त सहायता दिलाई जाएगी।

महिला वहीं फूट-फूटकर रो पड़ी। इतने सालों से वह चुपचाप संघर्ष करती रही, लेकिन किसी से कुछ नहीं कहा। उसे डर था कि लोग उसका मज़ाक उड़ाएँगे या दया दिखाकर उसे और छोटा बना देंगे।

उस दिन पूरा माहौल बदल गया। बैंक, जो अब तक केवल लेन-देन की जगह थी, इंसानियत का प्रतीक बन गया। कर्मचारियों ने खुद के बीच चंदा इकट्ठा किया और महिला को सौंप दिया।

कुछ दिनों बाद जब उसका बेटा अस्पताल में भर्ती हुआ और इलाज शुरू हुआ, तो महिला ने फिर बैंक आकर सबका धन्यवाद किया। इस बार उसकी आँखों में घबराहट नहीं, बल्कि कृतज्ञता और विश्वास की चमक थी।

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