जिस मां को बेटा बहू ने नौकर समझा… वही निकली रेस्टोरेंट की मालकिन
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज की गलियों में एक साधारण-सी मां ने अपनी जिंदगी के सबसे कठिन और सबसे गौरवशाली सफ़र को तय किया। यह कहानी है सुधा जी की, जिन्होंने पति के गुजर जाने के बाद अपना पूरा जीवन बेटे विकास को पालने-पोसने में लगा दिया।
सुधा जी को स्कूल में चौकीदार और सफाई कर्मचारी की छोटी-सी नौकरी मिली थी। वहीं से उन्हें एक छोटा-सा कमरा और तनख्वाह मिलती थी। दिनभर झाड़ू-पोछा, बर्तन मांजना और सफाई करने के बाद भी वह बेटे को कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होने देतीं। मां ने पेट काटकर, खुद भूखी रहकर भी बेटे को अच्छे स्कूल में पढ़ाया। उनके सपनों में बस एक ही तस्वीर थी — बेटा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने और उनका सहारा बने।
वक्त बीतता गया। विकास पढ़ाई पूरी कर बड़ा हुआ और उसकी शादी पूनम से कर दी गई। सुधा जी ने सोचा था कि बहू के आने से घर में रौनक लौटेगी, अकेलापन दूर होगा और बुढ़ापे में सहारा मिलेगा। मगर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।
शादी के बाद से ही सुधा जी को महसूस होने लगा कि पूनम उन्हें कभी अपनी मां की तरह नहीं अपनाएगी। धीरे-धीरे उनके लिए ताने शुरू हो गए — “बिजली का बिल मत बढ़ाओ, पंखा मत चलाओ, तुम हमारे रहम पर जी रही हो।” एक-एक शब्द मां के दिल को चीर देता था।
एक रात जब सुधा जी बेटे के कमरे में सो गईं तो विकास गुस्से से बोला, “मां, कितनी बार कहा है हमारे कमरे में मत सोया करो। तुम्हारे आने से बदबू फैलती है। बच्चा बीमार हो जाएगा। सीढ़ियों के नीचे जगह है, वहीं जाकर सो जाया करो।” मां का दिल टूट गया। उसी वक्त बहू की आवाज़ आई — “मैं थक गई हूं, आज सारे काम बुढ़िया करेगी। पैरों की मालिश भी वही करेगी।”
सुधा जी कांपते हुए बोलीं, “बेटा, बचपन में जब तू बीमार पड़ता था तो मैंने तुझे गोद से अलग नहीं किया। आज मेरी खांसी से तुझे बदबू आती है? यही तेरी पढ़ाई है जिसने तुझे मां का दर्द भुला दिया?” लेकिन बेटे पर कोई असर नहीं हुआ।
दिन-ब-दिन हालात और कठिन होते गए। बेटे-बहू के लिए सुधा जी नौकरानी से भी बदतर हो गईं। सीढ़ियों के नीचे खटिया डालकर सोना, रसोई में दिन-रात काम करना और अपमान झेलना उनका रोज़ का हिस्सा बन गया।
एक दिन घर में पार्टी थी। बेटे-बहू की शादी की सालगिरह पर मेहमान बुलाए गए थे। पूरा घर रोशनी से जगमगा रहा था, लेकिन सुधा जी का कमरा अंधेरे में डूबा था। मेहमानों की नज़रों से उन्हें छुपाने के लिए बहू ने साफ़ कह दिया था — “आज गलती से भी बाहर मत निकलना। मैंने सबको कह दिया है कि तुम तीर्थयात्रा पर गई हो।”
उसी दिन रसोई में हलवाई का सहायक बीमार पड़ गया। उसे मदद की ज़रूरत थी। पूनम ने बिना देर किए सुधा जी को काम पर लगा दिया। बर्तन धोना, सब्जियां काटना, पूरियां बेलना… उम्र और दर्द के बावजूद सुधा जी सब करती रहीं। पसीने से तर-बतर, आंखों में आंसू और सीने में टीस लेकर उन्होंने चुपचाप सारा काम निपटाया।
पार्टी खत्म हुई तो मेहमान लौट गए। हलवाई ने पूनम से कहा, “मैडम, बर्तन धोने के लिए किसी को रख लीजिए। अम्मा जी से इतना काम नहीं होगा।” पूनम हंसी और बोली, “पैसे क्यों दूं? हमारे पास तो यही बर्तन धोने वाली है।”
हलवाई को दया आई। उसने चुपके से सुधा जी से कहा, “अम्मा, आप बहुत अच्छा खाना बनाती हैं। एक सेठ जी के भंडारे में आपका हुनर काम आ सकता है। वहां आइए, आपकी किस्मत बदल जाएगी।”
सुधा जी पहले डर गईं। बेटे-बहू का क्रोध उन्हें रोक रहा था। लेकिन मन में कहीं हिम्मत की एक लौ जल उठी। अगले दिन मंदिर जाने का बहाना करके वह हलवाई के साथ भंडारे में पहुंचीं। वहां उन्होंने खीर, पूरी, हलवा और देसी व्यंजन बनाए। स्वाद ऐसा था कि हर कोई तारीफ किए बिना नहीं रह सका। लोग कहते रहे — “अम्मा के हाथ का स्वाद अनोखा है।”
धीरे-धीरे उनका नाम फैलने लगा। कभी किसी पूजा में, कभी किसी बड़े आयोजन में उन्हें बुलाया जाने लगा। पैसों से ज्यादा उन्हें वहां प्यार और सम्मान मिलता था।
कुछ महीने बाद दिल्ली में एक बड़ा आयोजन हुआ। देश भर से लोग अपने व्यंजन बनाने आए। हलवाई उन्हें भी वहां ले गया। सुधा जी ने देसी चूल्हे पर दाल, मक्के की रोटी, सरसों का साग और खीर-पुरी बनाई। जब जजों और लोगों ने स्वाद चखा तो तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। मंच पर उनका नाम पुकारा गया। उन्हें लाखों रुपये का इनाम और सम्मान मिला।
वहीं से उनकी जिंदगी बदल गई। दिल्ली में ही उन्होंने हलवाई की मदद से एक छोटा-सा रेस्टोरेंट खोला। धीरे-धीरे वह इतना मशहूर हो गया कि टीवी और अखबारों में उनकी कहानियां छपने लगीं। लोग उन्हें “देसी स्वाद की रानी” कहने लगे।
उधर विकास और पूनम का बिज़नेस डूब गया। घर बिक गया और वे किराए के मकान में रहने लगे। एक दिन उनका बेटा मोबाइल पर वीडियो देख रहा था। अचानक स्क्रीन पर सुधा जी का इंटरव्यू आया। बच्चा खुश होकर बोला, “मम्मी-पापा देखो, दादी टीवी पर आ रही हैं।”
विकास और पूनम के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उन्हें यकीन नहीं हुआ कि जिस मां को उन्होंने नौकर समझा था, वह अब शहर की मशहूर रेस्टोरेंट मालकिन बन चुकी हैं। दोनों लालच और पछतावे में सुधा जी के पास पहुंचे।
रेस्टोरेंट में सुधा जी साड़ी पहने, हाथ में स्मार्टफोन और चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक लिए ग्राहकों से बातें कर रही थीं। जैसे ही बेटे-बहू ने उन्हें देखा, दोनों उनके पैरों में गिर पड़े।
विकास रोते हुए बोला, “मां, हमें माफ़ कर दो। हमने आपके साथ बहुत बुरा किया। आपने हमें पालने में जिंदगी कुर्बान की, और हमने आपको नौकर समझा। लेकिन आप तो हीरे जैसी निकलीं।”
पूनम भी गिड़गिड़ाई, “अम्मा, मुझसे गलती हो गई। आपने मुझे बेटी माना और मैंने आपको अपमानित किया। एक बार माफ कर दीजिए।”
सुधा जी ने ठंडी सांस लेते हुए उन्हें उठाया और कहा, “तुम मेरे मेहमान हो। हमारे संस्कार कहते हैं कि मेहमान भगवान के समान होते हैं। खाना खाकर जाओगे। लेकिन याद रखना — मैं तुम्हें माफ़ कर दूंगी, मगर तुम्हारे दिए घाव कभी भर नहीं पाएंगे। हां, अपने पोते के लिए जरूर कुछ छोड़ूंगी, ताकि वह नेक इंसान बने और तुम्हारी तरह अपमान न करे।”
उस पल सुधा जी की आंखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन चेहरे पर आत्मसम्मान की चमक थी।
उस दिन के बाद विकास और पूनम शर्म से लौट गए। सुधा जी ने बाकी की जिंदगी अपने रेस्टोरेंट, अपने हुनर और अपने सम्मान के साथ जीने का फैसला किया।
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