“तलाकशुदा पति चौराहे पर भीख मांग रहा था… स्कॉर्पियो कार से जा रही पत्नी ने जब देखा… फिर जो हुआ..
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तलाकशुदा पति चौराहे पर भीख मांग रहा था
सुबह का वक्त था। शहर की हवा में नमी और थकान दोनों ही घुली हुई थी। चौराहे पर रोज की तरह भीड़ उमड़ी हुई थी। लाल बत्ती पर गाड़ियां एक-एक कर रुक रही थीं। किसी में ऑफिस जाने वाले लोग थे, किसी में बच्चों को स्कूल छोड़ने वाले, तो किसी में हड़बड़ी में निकले व्यापारी। हर ओर शोर, हॉर्न और अधीरता थी।
लेकिन इस भीड़भाड़ के बीच उस चौराहे के कोने पर एक आदमी बैठा था। राकेश, फटा हुआ कुर्ता, पैरों में टूटी चप्पलें, बिखरे बाल और कई दिनों की उगी हुई दाढ़ी। उसके सामने एक पुराना एलुमिनियम का कटोरा पड़ा था। राहगीरों की ओर उम्मीद से देखता और फिर निगाह झुका लेता। कभी उसके हाथों में फाइलें होती थीं, कभी ऑफिस की चाबियां, कभी सपनों से भरी डायरी। लेकिन आज उन्हीं हाथों में फैलाव था, जैसे कोई उनसे उम्मीद छीन चुका हो।
एक अतीत की याद
राकेश ने धीरे से नजरें उठाई। सामने से गुजरते लोगों के चेहरों पर उसे नजरें चुभती हुई महसूस हुईं। कोई दया से देखता, कोई तिरस्कार से। लेकिन हर नजर उसके दिल पर एक नया जख्म छोड़ जाती। तभी एक छोटा बच्चा पास आकर खड़ा हो गया। उसके हाथ में स्कूल का टिफिन था। मासूम सी मुस्कान के साथ उसने पूछा, “अंकल, आपको भूख लगी है क्या?”
राकेश उस बच्चे को देर तक देखता रहा। दिल के किसी कोने में हल्की सी मुस्कान आई, फिर बुझ गई। उसने बच्चे से कहा, “हां बेटा, भूख तो लगी है। लेकिन यह टिफिन तुम्हारे लिए है। इसे मत खोलो।” बच्चा कुछ समझ नहीं पाया। उसकी मां ने उसे जल्दी से खींच लिया और घूर कर बोली, “चलो यहां से। ऐसे लोगों से बात मत करो।”
बच्चे की आंखों में सवाल थे और राकेश की आंखों में आंसू। उसने सिर झुका लिया। चौराहे की धूल उड़ रही थी। सूरज ऊपर चढ़ रहा था। और अचानक उसी धूल में एक चमक आई। काली चमचमाती स्कॉर्पियो कार। गाड़ी आकर ठीक उसी सिग्नल पर रुकी जहां राकेश बैठा था।
गाड़ी की खिड़की का शीशा थोड़ा नीचे हुआ और अंदर बैठी महिला ने बाहर झांका। राकेश ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन महिला की नजरें जैसे उस पर अटक गईं। वो महिला थी स्मिता, राकेश की तलाकशुदा पत्नी। स्मिता ने आंखें चौड़ी कर लीं। सांस रुक सी गई। यह वही चेहरा था जिसे उसने कभी अपने जीवन साथी के रूप में चुना था।
एक अनपेक्षित मुलाकात
स्मिता का गला सूख गया। हाथ पसीने से भीग गए। उसने ड्राइवर से धीमे स्वर में कहा, “गाड़ी रोको।” ड्राइवर ने हैरानी से ब्रेक लगाया। भीड़ अब भी वही थी, पर स्मिता की दुनिया जैसे थम गई थी। गाड़ी की खिड़की से उसने बाहर झांका। उसकी आंखों में अतीत की पूरी कहानी तैरने लगी।
क्या सचमुच यह वही राकेश है? क्या वक्त ने उसे इतना तोड़ दिया? भीड़ का शोर अब उसे सुनाई नहीं दे रहा था। बस एक सवाल गूंज रहा था। क्या मैं बाहर निकलकर अपने अतीत से सामना करूं? या इस शीशे को ऊपर करके हमेशा के लिए नजरें चुरा लूं?
सिग्नल हरा होने से ठीक पहले स्मिता ने दरवाजा खोला। “ड्राइवर घबरा गया।” “मैडम, बीच चौराहे पर बस दो मिनट।” स्मिता ने कहा और धीरे-धीरे बाहर उतर आई। शहर की धूप अब तेज हो चुकी थी। हवा में धूल तैर रही थी, और हॉर्नों का शोर किसी अनकहे तनाव की तरह कानों में चुभ रहा था।
राकेश ने निगाह उठाई। पहले तो उसे लगा कोई और होगा। फिर जैसे स्मृति की परतें अचानक खुली। उसके होंठ बारीक सी रेखा में सिमट गए। आंखों में एक क्षण को चमक आई, लेकिन वो चमक तुरंत बुझ भी गई। स्मिता दो कदम और आगे बढ़ी। उनके बीच 5 साल का वह सारा फासला एक पल में सिमट आया।
पुरानी यादें ताजा
राकेश ने कहा, “स्मिता।” उसकी आवाज में दबी हुई हैरानी थी। जैसे मुंह से नाम खुद ब खुद निकल गया हो। राकेश ने सिर झुका लिया। उसने अपने सामने रखे कटोरे को थोड़ा सा खिसका दिया। जैसे किसी ने उसकी सबसे निजी चीज देख ली हो और वह उसे ढकना चाहता हो। “यहां क्यों आई हो?” उसने धीमे से पूछा।
“मैं… मैं बस यकीन करना चाहती थी कि तुम हो।” स्मिता ने खुद को संजीदगी से करते हुए कहा, “तुम ठीक हो?” राकेश हल्का सा हंसा। वो हंसी जो असल में हंसी नहीं, किसी पुराने दर्द की चरमराहट होती है। “ठीक शब्द मेरे हिस्से से बहुत पहले कट चुका है।”
स्मिता ने देखा, सिग्नल हरा हुआ। गाड़ियां आगे बढ़ गईं। चौराहा कुछ पल को खाली सा लगता फिर भर जाता। ड्राइवर दूर खड़ा हो गया। वो समझ चुका था कि यह बातचीत सड़क पर नहीं, किसी पुराने जीवन के गलियारों में हो रही है।
एक कठिन सवाल
“तुम्हें मदद चाहिए तो…” स्मिता की बात आधी रह गई। राकेश की आंखें कसकर सिकुड़ गईं। “मदद किस बात की? मैं भीख। हां, मांगता हूं। पर हर मदद भीख नहीं होती और हर भीख मदद नहीं।” दोनों के बीच खामोशी की पतली पर बेहद सख्त परत जम गई।
हवा में कहीं से भुनी मूंगफली की खुशबू आकर ठहर गई। फिर धूल में मिलकर गुम हो गई। स्मिता ने सांस भरी। “चलो, कहीं बैठते हैं।” “यह जगह,” राकेश ने हाथ से इशारा किया। “यही मेरी जगह है। यही बैठते हैं। जो कुछ टूटा, यही टूटता दिखा। जो कुछ समझना है, यही समझ लो।”
स्मिता जमीन पर उसके सामने नहीं बैठी। वो खड़ी रही। जैसे उसके पैरों में अब भी पुरानी हट और नई हिचकिचाहट साथ-साथ बंधी हो। “कब से?” “काश, यह सवाल तुमने तब किया होता।” राकेश ने कटोरे के किनारे उंगली घुमाते हुए कहा, “जब घर के भीतर भूखेपन की आवाज दीवारों से टकराती थी और लौट आती थी।”
एक दर्दनाक सच
स्मिता की पलकें फड़फड़ा उठीं। “तुम जानते हो मैंने जो निर्णय लिया वो आसान नहीं था।” “आसान किसी ने कहा भी नहीं। पर सही था। मैंने तुम्हें टूटते देखा।” राकेश ने कहा, “रोज-रोज थोड़ा-थोड़ा तुम्हारी नौकरी चली गई थी। तुमने कोशिशें की पर हर कोशिश के बाद तुम और खामोश हो जाते। घर में सन्नाटा भर जाता। मैं भी डरती थी। भविष्य वो रुक गई। मैं अपने हिस्से की गलती से भाग नहीं रही। पर तुमने भी हाथ छोड़ दिया था।”
राकेश की नजर दूर जाती स्कॉर्पियो की चमक पर टिकी। उसी चमक से आंखें चुभती थीं। हाथ। वो मुस्कुराया। “हाथ तो मैंने तब छोड़ा जब मेरे हाथ से सब कुछ छूट गया था और तुमने तब हाथ छोड़ा जब मेरा हाथ तुम्हारे काम का नहीं रहा।”
एक नई शुरुआत
सड़क के किनारे एक बुजुर्ग ठेले वाला अपनी घंटी बजाते हुए गुजरा। “बेटा, कुछ लोग लौटते हैं। कुछ लोग छूटते हैं पर भूख रोज आती है।” राकेश ने लापरवाही से सिर हिलाया। “आज नहीं, काका।” ठेले वाला आगे बढ़ गया। पर उसकी बात जैसे हवा में लटकती रही।
स्मिता ने अपनी पर्स से नोट निकाला। राकेश ने एक झटके से कटोरा उठा लिया। “यह नहीं, यह मेरे हिस्से की सजा है। इसे मेरे हाथ से मत छीनो।” “सजा?” “हां।” राकेश की आवाज में कराहत छिपी थी। “हर आदमी एक दिन अपने चुने हुए रास्ते का किराया देता है। मैंने अपना दिया। तुम में भी फर्क बस इतना रहा कि तुम्हारा किराया कार्ड से कट गया। मेरा शरीर से।”
स्मिता का गला भर आया। उसने पहली बार नीचे झुककर दूरी तोड़ते हुए जमीन पर राकेश के सामने बैठने की कोशिश की। पर उसके कपड़ों की कड़क, स्त्री कलाई की घड़ी, मोतियों का पतला सा हार मानो उसे याद दिला रहे थे कि यह मिट्टी उसके हिस्से की नहीं।
एक नया रास्ता
“चलो,” उसने धीमे से कहा, “पास में एक धर्मशाला है। वहां चलते हैं।” “मैं बस जानना चाहती हूं कि तुम यहां तक कैसे पहुंचे।” राकेश ने पल भर उसे देखा। शायद उसे लगा। कहानी सुनाए बिना घाव का मवाद बाहर नहीं आएगा। उसने झोला उठाया, कंबल मोड़ा और बिना कुछ बोले उठ खड़ा हुआ।
दोनों फुटपाथ के किनारे-किनारे चलते हुए चौराहे से थोड़ा दूर एक पुराने बरगद के नीचे बने पत्थर के चबूतरे तक आए। पास ही एक चाय वाले की दुकान थी। ऊपर टीन की छत और कोयले की आंच पर उबलती केतली। चाय वाला दोनों को देखता रहा। फिर खुद-ब-खुद दो कुल्हड़ आगे बढ़ा दिए। “ले जाइए, पैसे बाद में।”
राकेश ने कुल्हड़ को हथेलियों में थामा। गर्माहट सीधी हड्डियों तक उतरती महसूस हुई। स्मिता ने कुल्हड़ को होठों तक ले जाकर वापस रख दिया। वो शायद पीना चाहती थी। पर उससे पहले सुनना चाहती थी। “तुम याद करते हो वो दिन?”
संघर्ष की कहानी
राकेश ने धीमे-धीमे कहना शुरू किया। “जब कंपनी का प्रोजेक्ट डूबा और हमारी टीम एक-एक करके निकाली गई। मैंने कहा था ना 2 महीने में कुछ करूंगा। मैंने पूरे शहर में रिज्यूमे फेंका। दरवाजे खटखटाए। हर जगह से एक ही आवाज आई। हम संपर्क करेंगे। संपर्क किसी ने नहीं किया। घर लौटा तो दीवारों पर तुम्हारे सपनों की परछाइयां थी। बहुत उजली। बहुत साफ और मेरे हाथ खाली।”
स्मिता की आंखें भीग गईं। “मैंने पार्ट टाइम जॉब शुरू की। तुम्हें कहा भी था कि चलो मेरे साथ हम दोनों मिलकर।” “हां,” राकेश ने बात काटी, “पर मेरा अपने आप से झगड़ा चल रहा था। मैंने अपने भीतर हार गया था।”
स्मिता फिर पिताजी की तबीयत बिगड़ी। “इलाज के लिए पैसे चाहिए थे। मैंने पुराना स्कूटर बेचा। दोस्त से उधार लिया। कुछ दिन निकले। फिर दोस्त भी दोस्त ना रहे। मैंने मजदूरी की। रात को गली-गली सब्जियां बेची। पर तुम जानती हो, शहर भूख से नहीं, शर्म से ज्यादा मारता है। मेरे भीतर की शर्म ने मेरा गला दबा दिया। और एक दिन तुमने मेरे सामने कागज रख दिए।”
स्मिता ने आंखें मूंद ली। “वो कागज जिन पर तलाक के शब्द थे। आज भी उसकी उंगलियों की पोर में चुभते थे। मैं टूट रही थी।”
नई पहचान
“राकेश, हमारे बीच बातचीत खत्म हो चुकी थी। घर में चुप्पी दीवारों से टपकती थी। मैंने सोचा, हम दोनों एक दूसरे को और बर्बाद करने से पहले अलग हो जाए। और हम हो गए।” राकेश ने सिर हिलाया। “तुम आगे बढ़ गई। नौकरी, इज्जत सब कुछ तुम्हारे हिस्से लौट आया। मेरे हिस्से बरगद का यह चबूतरा, चौराहे की धूल और कटोरे का घुमाव।”
कुछ देर तक दोनों चुप रहे। दूर कहीं कोई मंदिर की घंटी बजी। हवा में धूप का स्वाद था और किसी पुराने गीत की याद जिसे कोई गुनगुनाना नहीं रहा था। स्मिता ने धीरे से पूछा, “और तुम्हारे अपने, तुम्हारी मां?”
“राकेश की आवाज भर गई। वो चली गई। उसी साल आखिरी बार कहा, हार मत मानना। और मैंने उसी दिन से जीतना छोड़ दिया।”
एक नई शुरुआत
स्मिता का कलेजा मरोड़ खा गया। उसने पहली बार अपनी हथेली राकेश की सूखी उंगलियों पर रख दी। संकोच से, अपराध बोध से और शायद किसी पुराने स्नेह की रोशनी से भी। “मेरे बस में जो हो, मैं करना चाहती हूं। पर शर्त यह कि यह मेरी दया नहीं होगी। हम एक इंसान की दूसरे इंसान के प्रति जिम्मेदारी की तरह आगे बढ़ेंगे। तुम्हें अस्पताल दिखाना होगा। कोई पुनर्वास केंद्र या कोई काम? मैं साथ चलूंगी।”
राकेश ने उसकी तरफ देखा। उसकी आंखों में थकान थी। पर पहली बार कही बहुत भीतर एक कोमल सी चिंगारी झिलमिलाई। “काम,” उसने शब्द को चबाया। “काम चाहिए। पर उससे पहले एक दिन चाहिए जिस दिन मैं अपने आप से माफी मांग सकूं। क्या तुम उस दिन के गवाह बनोगी?”
स्मिता के होंठ कांपे। “हां, अगर तुम चाहो तो।” राकेश ने धीमे से कुल्हड़ की आखिरी चुस्की ली। “ठीक है। कल सुबह मैं तुम्हें इसी चौराहे पर मिलूंगा। पर कटोरे के बिना। मैं देखना चाहता हूं। क्या मेरे हाथ फिर से किसी और वजह के लिए फैल सकते हैं? थोड़ी रोशनी, थोड़ी इज्जत और शायद थोड़ी जिंदा सी उम्मीद पकड़ने के लिए।”
स्मिता उठ खड़ी हुई। “मैं आऊंगी। लेकिन याद रखना राकेश, रास्ता लंबा होगा और बीच में मैं भी डगमगा सकती हूं। फिर भी चलो कोशिश करते हैं।”
राकेश ने सिर हिलाया। दोनों ने एक दूसरे को देखा। बिना किसी वादे, बिना किसी फैसले। बस यह मानकर कि तिलतिल करके भी टूटे हुए लोगों की दुनिया में धीरे-धीरे कुछ जुड़ सकता है।
एक नया दिन
दूर स्कॉर्पियो खड़ी थी। चमकती, चौड़ी और उसी तरह बेईमानी जैसी अमीरी की चमक अक्सर गरीबी की आंखों में लगती है। स्मिता ने लौट कर दरवाजा खोला पर बैठने से पहले एक पल को ठिठकी और अपने ड्राइवर से बोली, “कल यही समय और हां, जितनी जल्दी हो सके पास की किसी संस्था से पूछो। पुनर्वास कौशल प्रशिक्षण जो मिल सके।”
राकेश बरगद के नीचे खड़ा रहा। धूप उसकी पलकें चीर कर भीतर उतर रही थी। उसने जेब से एक मुड़ातड़ा कागज निकाला। मां की लिखावट, “हार मत मानना।” उसने कागज को फिर से तय किया। दिल पर रखा और धीरे से फुसफुसाया, “कल से शुरू।”
स्कॉर्पियो धीरे-धीरे आगे बढ़ गई। चौराहे पर भीड़ लौट आई। और उस भीड़ में राकेश ने पहली बार वर्षों बाद अपने कटोरे को झोले में डाल दिया। जैसे कोई सिपाही थकाहारा सही पर फिर भी अपने हथियार को अस्थाई रूप से रखकर नई रणनीति सोचने बैठा हो।
बरगद की छाया लंबी होती चली गई और उसके साथ दो जिंदगियों के बीच का साया थोड़ा सा छोटा।
एक नई पहचान
चौराहे की भीड़ अभी पूरी तरह नहीं जगी थी। दूध वालों की गाड़ियां, अखबार बांटते लड़के और सड़कों पर बिखरी ठंडी हवा। सब मिलकर एक नई शुरुआत का संकेत दे रहे थे। बरगद के नीचे आज राकेश बैठा नहीं था। उसने रात को ही तय कर लिया था कि अब उस कटोरे को नहीं उठाना।
सुबह उसने अपना फटा हुआ झोला संभाला। कंबल मोड़ा और बरगद की जड़ों के पास रख दिया। जैसे किसी योद्धा ने अपना पुराना टूटा हुआ हथियार छोड़ दिया हो। उसके चेहरे पर थकान तो थी लेकिन आंखों में लंबे समय बाद हल्की सी रोशनी भी थी।
रात उसने मां का वही कागज अपने सीने से लगाकर काटी थी। “हार मत मानना।” स्मिता की स्कॉर्पियो समय पर आई। गाड़ी से उतरते ही उसने देखा। राकेश अब कटोरे के बिना खड़ा था। चेहरे की दाढ़ी, झुर्रियों और मैले कपड़ों के बावजूद उसमें एक अजीब सा आत्मसम्मान झलक रहा था।
“तुमने कटोरा नहीं उठाया।” स्मिता के होठों पर हल्की सी मुस्कान थी। राकेश ने सिर झुका लिया। “आज पहली बार सोचा, अगर हाथ फैलाऊं तो सिर्फ काम के लिए।”
नया सफर
दोनों पास के चाय वाले की दुकान की ओर बढ़े। चाय वाला दोनों को देखता रहा। फिर खुद-ब-खुद दो कुल्हड़ आगे बढ़ा दिए। “ले जाइए, पैसे बाद में।” राकेश ने कुल्हड़ को हथेलियों में थामा। गर्माहट सीधी हड्डियों तक उतरती महसूस हुई।
स्मिता ने कुल्हड़ को होठों तक ले जाकर वापस रख दिया। वो शायद पीना चाहती थी। पर उससे पहले सुनना चाहती थी। “तुम याद करते हो वो दिन?” राकेश ने धीमे-धीमे कहना शुरू किया। “जब कंपनी का प्रोजेक्ट डूबा और हमारी टीम एक-एक करके निकाली गई। मैंने कहा था ना 2 महीने में कुछ करूंगा। मैंने पूरे शहर में रिज्यूमे फेंका। दरवाजे खटखटाए। हर जगह से एक ही आवाज आई। हम संपर्क करेंगे। संपर्क किसी ने नहीं किया। घर लौटा तो दीवारों पर तुम्हारे सपनों की परछाइयां थी। बहुत उजली। बहुत साफ और मेरे हाथ खाली।”
स्मिता की आंखें भीग गईं। “मैंने पार्ट टाइम जॉब शुरू की। तुम्हें कहा भी था कि चलो मेरे साथ हम दोनों मिलकर।” “हां,” राकेश ने बात काटी, “पर मेरा अपने आप से झगड़ा चल रहा था। मैंने अपने भीतर हार गया था।”
एक नया अध्याय
स्मिता फिर पिताजी की तबीयत बिगड़ी। “इलाज के लिए पैसे चाहिए थे। मैंने पुराना स्कूटर बेचा। दोस्त से उधार लिया। कुछ दिन निकले। फिर दोस्त भी दोस्त ना रहे। मैंने मजदूरी की। रात को गली-गली सब्जियां बेची। पर तुम जानती हो, शहर भूख से नहीं, शर्म से ज्यादा मारता है। मेरे भीतर की शर्म ने मेरा गला दबा दिया। और एक दिन तुमने मेरे सामने कागज रख दिए।”
स्मिता ने आंखें मूंद ली। “वो कागज जिन पर तलाक के शब्द थे। आज भी उसकी उंगलियों की पोर में चुभते थे। मैं टूट रही थी।”
खुद को पहचानना
“राकेश, हमारे बीच बातचीत खत्म हो चुकी थी। घर में चुप्पी दीवारों से टपकती थी। मैंने सोचा, हम दोनों एक दूसरे को और बर्बाद करने से पहले अलग हो जाए। और हम हो गए।” राकेश ने सिर हिलाया। “तुम आगे बढ़ गई। नौकरी, इज्जत सब कुछ तुम्हारे हिस्से लौट आया। मेरे हिस्से बरगद का यह चबूतरा, चौराहे की धूल और कटोरे का घुमाव।”
कुछ देर तक दोनों चुप रहे। दूर कहीं कोई मंदिर की घंटी बजी। हवा में धूप का स्वाद था और किसी पुराने गीत की याद जिसे कोई गुनगुनाना नहीं रहा था। स्मिता ने धीरे से पूछा, “और तुम्हारे अपने, तुम्हारी मां?”
“राकेश की आवाज भर गई। वो चली गई। उसी साल आखिरी बार कहा, हार मत मानना। और मैंने उसी दिन से जीतना छोड़ दिया।”
एक नई पहचान
स्मिता का कलेजा मरोड़ खा गया। उसने पहली बार अपनी हथेली राकेश की सूखी उंगलियों पर रख दी। संकोच से, अपराध बोध से और शायद किसी पुराने स्नेह की रोशनी से भी। “मेरे बस में जो हो, मैं करना चाहती हूं। पर शर्त यह कि यह मेरी दया नहीं होगी। हम एक इंसान की दूसरे इंसान के प्रति जिम्मेदारी की तरह आगे बढ़ेंगे। तुम्हें अस्पताल दिखाना होगा। कोई पुनर्वास केंद्र या कोई काम? मैं साथ चलूंगी।”
राकेश ने उसकी तरफ देखा। उसकी आंखों में थकान थी। पर पहली बार कही बहुत भीतर एक कोमल सी चिंगारी झिलमिलाई। “काम,” उसने शब्द को चबाया। “काम चाहिए। पर उससे पहले एक दिन चाहिए जिस दिन मैं अपने आप से माफी मांग सकूं। क्या तुम उस दिन के गवाह बनोगी?”
स्मिता के होंठ कांपे। “हां, अगर तुम चाहो तो।” राकेश ने धीमे से कुल्हड़ की आखिरी चुस्की ली। “ठीक है। कल सुबह मैं तुम्हें इसी चौराहे पर मिलूंगा। पर कटोरे के बिना। मैं देखना चाहता हूं। क्या मेरे हाथ फिर से किसी और वजह के लिए फैल सकते हैं? थोड़ी रोशनी, थोड़ी इज्जत और शायद थोड़ी जिंदा सी उम्मीद पकड़ने के लिए।”
स्मिता उठ खड़ी हुई। “मैं आऊंगी। लेकिन याद रखना राकेश, रास्ता लंबा होगा और बीच में मैं भी डगमगा सकती हूं। फिर भी चलो कोशिश करते हैं।”
राकेश ने सिर हिलाया। दोनों ने एक दूसरे को देखा। बिना किसी वादे, बिना किसी फैसले। बस यह मानकर कि तिलतिल करके भी टूटे हुए लोगों की दुनिया में धीरे-धीरे कुछ जुड़ सकता है।
एक नया दिन
दूर स्कॉर्पियो खड़ी थी। चमकती, चौड़ी और उसी तरह बेईमानी जैसी अमीरी की चमक अक्सर गरीबी की आंखों में लगती है। स्मिता ने लौट कर दरवाजा खोला पर बैठने से पहले एक पल को ठिठकी और अपने ड्राइवर से बोली, “कल यही समय और हां, जितनी जल्दी हो सके पास की किसी संस्था से पूछो। पुनर्वास कौशल प्रशिक्षण जो मिल सके।”
राकेश बरगद के नीचे खड़ा रहा। धूप उसकी पलकें चीर कर भीतर उतर रही थी। उसने जेब से एक मुड़ातड़ा कागज निकाला। मां की लिखावट, “हार मत मानना।” उसने कागज को फिर से तय किया। दिल पर रखा और धीरे से फुसफुसाया, “कल से शुरू।”
स्कॉर्पियो धीरे-धीरे आगे बढ़ गई। चौराहे पर भीड़ लौट आई। और उस भीड़ में राकेश ने पहली बार वर्षों बाद अपने कटोरे को झोले में डाल दिया। जैसे कोई सिपाही थकाहारा सही पर फिर भी अपने हथियार को अस्थाई रूप से रखकर नई रणनीति सोचने बैठा हो।
बरगद की छाया लंबी होती चली गई और उसके साथ दो जिंदगियों के बीच का साया थोड़ा सा छोटा।
एक नई पहचान
चौराहे की भीड़ अभी पूरी तरह नहीं जगी थी। दूध वालों की गाड़ियां, अखबार बांटते लड़के और सड़कों पर बिखरी ठंडी हवा। सब मिलकर एक नई शुरुआत का संकेत दे रहे थे। बरगद के नीचे आज राकेश बैठा नहीं था। उसने रात को ही तय कर लिया था कि अब उस कटोरे को नहीं उठाना।
सुबह उसने अपना फटा हुआ झोला संभाला। कंबल मोड़ा और बरगद की जड़ों के पास रख दिया। जैसे किसी योद्धा ने अपना पुराना टूटा हुआ हथियार छोड़ दिया हो। उसके चेहरे पर थकान तो थी लेकिन आंखों में लंबे समय बाद हल्की सी रोशनी भी थी।
रात उसने मां का वही कागज अपने सीने से लगाकर काटी थी। “हार मत मानना।” स्मिता की स्कॉर्पियो समय पर आई। गाड़ी से उतरते ही उसने देखा। राकेश अब कटोरे के बिना खड़ा था। चेहरे की दाढ़ी, झुर्रियों और मैले कपड़ों के बावजूद उसमें एक अजीब सा आत्मसम्मान झलक रहा था।
“तुमने कटोरा नहीं उठाया।” स्मिता के होठों पर हल्की सी मुस्कान थी। राकेश ने सिर झुका लिया। “आज पहली बार सोचा, अगर हाथ फैलाऊं तो सिर्फ काम के लिए।”
नया सफर
दोनों पास के चाय वाले की दुकान की ओर बढ़े। चाय वाला दोनों को देखता रहा। फिर खुद-ब-खुद दो कुल्हड़ आगे बढ़ा दिए। “ले जाइए, पैसे बाद में।” राकेश ने कुल्हड़ को हथेलियों में थामा। गर्माहट सीधी हड्डियों तक उतरती महसूस हुई।
स्मिता ने कुल्हड़ को होठों तक ले जाकर वापस रख दिया। वो शायद पीना चाहती थी। पर उससे पहले सुनना चाहती थी। “तुम याद करते हो वो दिन?”
राकेश ने धीमे-धीमे कहना शुरू किया। “जब कंपनी का प्रोजेक्ट डूबा और हमारी टीम एक-एक करके निकाली गई। मैंने कहा था ना 2 महीने में कुछ करूंगा। मैंने पूरे शहर में रिज्यूमे फेंका। दरवाजे खटखटाए। हर जगह से एक ही आवाज आई। हम संपर्क करेंगे। संपर्क किसी ने नहीं किया। घर लौटा तो दीवारों पर तुम्हारे सपनों की परछाइयां थी। बहुत उजली। बहुत साफ और मेरे हाथ खाली।”
स्मिता की आंखें भीग गईं। “मैंने पार्ट टाइम जॉब शुरू की। तुम्हें कहा भी था कि चलो मेरे साथ हम दोनों मिलकर।” “हां,” राकेश ने बात काटी, “पर मेरा अपने आप से झगड़ा चल रहा था। मैंने अपने भीतर हार गया था।”
एक नया अध्याय
स्मिता फिर पिताजी की तबीयत बिगड़ी। “इलाज के लिए पैसे चाहिए थे। मैंने पुराना स्कूटर बेचा। दोस्त से उधार लिया। कुछ दिन निकले। फिर दोस्त भी दोस्त ना रहे। मैंने मजदूरी की। रात को गली-गली सब्जियां बेची। पर तुम जानती हो, शहर भूख से नहीं, शर्म से ज्यादा मारता है। मेरे भीतर की शर्म ने मेरा गला दबा दिया। और एक दिन तुमने मेरे सामने कागज रख दिए।”
स्मिता ने आंखें मूंद ली। “वो कागज जिन पर तलाक के शब्द थे। आज भी उसकी उंगलियों की पोर में चुभते थे। मैं टूट रही थी।”
खुद को पहचानना
“राकेश, हमारे बीच बातचीत खत्म हो चुकी थी। घर में चुप्पी दीवारों से टपकती थी। मैंने सोचा, हम दोनों एक दूसरे को और बर्बाद करने से पहले अलग हो जाए। और हम हो गए।” राकेश ने सिर हिलाया। “तुम आगे बढ़ गई। नौकरी, इज्जत सब कुछ तुम्हारे हिस्से लौट आया। मेरे हिस्से बरगद का यह चबूतरा, चौराहे की धूल और कटोरे का घुमाव।”
कुछ देर तक दोनों चुप रहे। दूर कहीं कोई मंदिर की घंटी बजी। हवा में धूप का स्वाद था और किसी पुराने गीत की याद जिसे कोई गुनगुनाना नहीं रहा था। स्मिता ने धीरे से पूछा, “और तुम्हारे अपने, तुम्हारी मां?”
“राकेश की आवाज भर गई। वो चली गई। उसी साल आखिरी बार कहा, हार मत मानना। और मैंने उसी दिन से जीतना छोड़ दिया।”
एक नई पहचान
स्मिता का कलेजा मरोड़ खा गया। उसने पहली बार अपनी हथेली राकेश की सूखी उंगलियों पर रख दी। संकोच से, अपराध बोध से और शायद किसी पुराने स्नेह की रोशनी से भी। “मेरे बस में जो हो, मैं करना चाहती हूं। पर शर्त यह कि यह मेरी दया नहीं होगी। हम एक इंसान की दूसरे इंसान के प्रति जिम्मेदारी की तरह आगे बढ़ेंगे। तुम्हें अस्पताल दिखाना होगा। कोई पुनर्वास केंद्र या कोई काम? मैं साथ चलूंगी।”
राकेश ने उसकी तरफ देखा। उसकी आंखों में थकान थी। पर पहली बार कही बहुत भीतर एक कोमल सी चिंगारी झिलमिलाई। “काम,” उसने शब्द को चबाया। “काम चाहिए। पर उससे पहले एक दिन चाहिए जिस दिन मैं अपने आप से माफी मांग सकूं। क्या तुम उस दिन के गवाह बनोगी?”
स्मिता के होंठ कांपे। “हां, अगर तुम चाहो तो।” राकेश ने धीमे से कुल्हड़ की आखिरी चुस्की ली। “ठीक है। कल सुबह मैं तुम्हें इसी चौराहे पर मिलूंगा। पर कटोरे के बिना। मैं देखना चाहता हूं। क्या मेरे हाथ फिर से किसी और वजह के लिए फैल सकते हैं? थोड़ी रोशनी, थोड़ी इज्जत और शायद थोड़ी जिंदा सी उम्मीद पकड़ने के लिए।”
स्मिता उठ खड़ी हुई। “मैं आऊंगी। लेकिन याद रखना राकेश, रास्ता लंबा होगा और बीच में मैं भी डगमगा सकती हूं। फिर भी चलो कोशिश करते हैं।”
राकेश ने सिर हिलाया। दोनों ने एक दूसरे को देखा। बिना किसी वादे, बिना किसी फैसले। बस यह मानकर कि तिलतिल करके भी टूटे हुए लोगों की दुनिया में धीरे-धीरे कुछ जुड़ सकता है।
एक नया दिन
दूर स्कॉर्पियो खड़ी थी। चमकती, चौड़ी और उसी तरह बेईमानी जैसी अमीरी की चमक अक्सर गरीबी की आंखों में लगती है। स्मिता ने लौट कर दरवाजा खोला पर बैठने से पहले एक पल को ठिठकी और अपने ड्राइवर से बोली, “कल यही समय और हां, जितनी जल्दी हो सके पास की किसी संस्था से पूछो। पुनर्वास कौशल प्रशिक्षण जो मिल सके।”
राकेश बरगद के नीचे खड़ा रहा। धूप उसकी पलकें चीर कर भीतर उतर रही थी। उसने जेब से एक मुड़ातड़ा कागज निकाला। मां की लिखावट, “हार मत मानना।” उसने कागज को फिर से तय किया। दिल पर रखा और धीरे से फुसफुसाया, “कल से शुरू।”
स्कॉर्पियो धीरे-धीरे आगे बढ़ गई। चौराहे पर भीड़ लौट आई। और उस भीड़ में राकेश ने पहली बार वर्षों बाद अपने कटोरे को झोले में डाल दिया। जैसे कोई सिपाही थकाहारा सही पर फिर भी अपने हथियार को अस्थाई रूप से रखकर नई रणनीति सोचने बैठा हो।
बरगद की छाया लंबी होती चली गई और उसके साथ दो जिंदगियों के बीच का साया थोड़ा सा छोटा।
एक नई पहचान
चौराहे की भीड़ अभी पूरी तरह नहीं जगी थी। दूध वालों की गाड़ियां, अखबार बांटते लड़के और सड़कों पर बिखरी ठंडी हवा। सब मिलकर एक नई शुरुआत का संकेत दे रहे थे। बरगद के नीचे आज राकेश बैठा नहीं था। उसने रात को ही तय कर लिया था कि अब उस कटोरे को नहीं उठाना।
सुबह उसने अपना फटा हुआ झोला संभाला। कंबल मोड़ा और बरगद की जड़ों के पास रख दिया। जैसे किसी योद्धा ने अपना पुराना टूटा हुआ हथियार छोड़ दिया हो। उसके चेहरे पर थकान तो थी लेकिन आंखों में लंबे समय बाद हल्की सी रोशनी भी थी।
रात उसने मां का वही कागज अपने सीने से लगाकर काटी थी। “हार मत मानना।” स्मिता की स्कॉर्पियो समय पर आई। गाड़ी से उतरते ही उसने देखा। राकेश अब कटोरे के बिना खड़ा था। चेहरे की दाढ़ी, झुर्रियों और मैले कपड़ों के बावजूद उसमें एक अजीब सा आत्मसम्मान झलक रहा था।
“तुमने कटोरा नहीं उठाया।” स्मिता के होठों पर हल्की सी मुस्कान थी। राकेश ने सिर झुका लिया। “आज पहली बार सोचा, अगर हाथ फैलाऊं तो सिर्फ काम के लिए।”
नया सफर
दोनों पास के चाय वाले की दुकान की ओर बढ़े। चाय वाला दोनों को देखता रहा। फिर खुद-ब-खुद दो कुल्हड़ आगे बढ़ा दिए। “ले जाइए, पैसे बाद में।” राकेश ने कुल्हड़ को हथेलियों में थामा। गर्माहट सीधी हड्डियों तक उतरती महसूस हुई।
स्मिता ने कुल्हड़ को होठों तक ले जाकर वापस रख दिया। वो शायद पीना चाहती थी। पर उससे पहले सुनना चाहती थी। “तुम याद करते हो वो दिन?”
राकेश ने धीमे-धीमे कहना शुरू किया। “जब कंपनी का प्रोजेक्ट डूबा और हमारी टीम एक-एक करके निकाली गई। मैंने कहा था ना 2 महीने में कुछ करूंगा। मैंने पूरे शहर में रिज्यूमे फेंका। दरवाजे खटखटाए। हर जगह से एक ही आवाज आई। हम संपर्क करेंगे। संपर्क किसी ने नहीं किया। घर लौटा तो दीवारों पर तुम्हारे सपनों की परछाइयां थी। बहुत उजली। बहुत साफ और मेरे हाथ खाली।”
स्मिता की आंखें भीग गईं। “मैंने पार्ट टाइम जॉब शुरू की। तुम्हें कहा भी था कि चलो मेरे साथ हम दोनों मिलकर।” “हां,” राकेश ने बात काटी, “पर मेरा अपने आप से झगड़ा चल रहा था। मैंने अपने भीतर हार गया था।”
एक नया अध्याय
स्मिता फिर पिताजी की तबीयत बिगड़ी। “इलाज के लिए पैसे चाहिए थे। मैंने पुराना स्कूटर बेचा। दोस्त से उधार लिया। कुछ दिन निकले। फिर दोस्त भी दोस्त ना रहे। मैंने मजदूरी की। रात को गली-गली सब्जियां बेची। पर तुम जानती हो, शहर भूख से नहीं, शर्म से ज्यादा मारता है। मेरे भीतर की शर्म ने मेरा गला दबा दिया। और एक दिन तुमने मेरे सामने कागज रख दिए।”
स्मिता ने आंखें मूंद ली। “वो कागज जिन पर तलाक के शब्द थे। आज भी उसकी उंगलियों की पोर में चुभते थे। मैं टूट रही थी।”
खुद को पहचानना
“राकेश, हमारे बीच बातचीत खत्म हो चुकी थी। घर में चुप्पी दीवारों से टपकती थी। मैंने सोचा, हम दोनों एक दूसरे को और बर्बाद करने से पहले अलग हो जाए। और हम हो गए।” राकेश ने सिर हिलाया
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