तीर्थ घुमाने के बहाने बेटे ने बूढ़ी माँ को बैद्यनाथ धाम छोड़ा, पर भगवान के घर देर था, अंधेर नहीं फिर

.
.

मां और बेटे की कहानी: एक अनकही दास्तान

सावित्री देवी ने अपनी पूरी जिंदगी बेटे रोहित की परवरिश में लगा दी थी। उन्होंने अपनी भूख, नींद, और सभी सपनों का त्याग किया, ताकि उनका बेटा हर सपना पूरा कर सके। खेतों में मजदूरी करके उन्होंने रोहित की पढ़ाई कराई, जेवर बेचकर उसकी फीस भरी, और खुद फटे कपड़ों में रहकर भी उसे अच्छे कपड़े पहनाए। मां का दिल बस एक ही सपना देखता था—”मेरा बेटा बड़ा आदमी बने।” और सच में, रोहित बड़ा आदमी बन गया।

लेकिन जब रोहित बड़ा हुआ, पैसा और शोहरत मिली, तो मां धीरे-धीरे उसके लिए बोझ बन गई। शहर में रहने वाली उसकी पत्नी रीना अक्सर कहती, “घर छोटा है, खर्चा बड़ा है। आपकी मां कब तक हम इन्हें ढोते रहेंगे?” रोहित कभी चुप रह जाता, कभी हल्के गुस्से में कह देता, “मां, आप थोड़ा संभल कर रहा करो, क्यों हर बार बीमार हो जाती हो?” सावित्री सब सुनती, लेकिन होठों पर शिकायत का एक शब्द नहीं लाती। उनके लिए बेटे के घर की दहलीज ही मंदिर थी।

दिन बीतते गए। रीना के तानों ने रोहित के मन में धीरे-धीरे जगह बना ली। उसने सोचना शुरू कर दिया, “सही कहती है रीना। मां अब बोझ बन गई है। अगर यह ना रहे, तो घर में शांति रहेगी।” और फिर एक दिन उसने ठान लिया कि मां से छुटकारा पाना ही होगा। लेकिन यह काम आसान नहीं था। गांव की मां को सीधे बाहर निकालना लोगों की नजरों में अच्छा नहीं लगता।

इसलिए उसने एक योजना बनाई। उसने मां से कहा, “मां, तुम्हारी बरसों की तमन्ना पूरी करने का समय आ गया है। मैं तुम्हें बाबा वैद्यनाथ धाम के दर्शन कराने ले चलूंगा।” यह सुनकर सावित्री की आंखों से आंसू बह निकले। उन्होंने बेटे का चेहरा पकड़कर आशीर्वाद दिया, “भोलेनाथ तुझे लंबी उम्र दे बेटा। तूने मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना पूरा कर दिया।”

रात भर उन्होंने अपनी सबसे अच्छी साड़ी निकाल कर रखी। पोटली में पुराने बेलपत्र, थोड़े चावल और वह माला रखी जो बरसों से भगवान को अर्पित करने की सोच रही थीं। उनके होठों पर बस यही बात थी, “भोलेनाथ के दरबार में जाऊंगी। जीवन सफल हो जाएगा।” सुबह कार में बैठते हुए सावित्री ने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाई, “धन्यवाद भोले। तूने मेरी सुन ली।”

रास्ते भर वह उत्साहित होकर बेटे से बातें करती रहीं। “बचपन में जब तुझे तेज बुखार आया था, तब मैंने मनौती मानी थी कि तुझे भोलेनाथ ठीक कर दे, तो देवघर लेकर जाऊंगी। आज तू मुझे ले जा रहा है। यह तेरे संस्कार हैं।” रोहित बस मुस्कुराता रहा। उसे पता था कि मां की यह खुशी क्षणिक है, क्योंकि आगे उसका इरादा कुछ और था।

देवघर की सीमा में प्रवेश करते ही माहौल बदल गया। सड़कों पर “बोल बम” के जयकारे, दुकानों पर बेलपत्र और प्रसाद की कतारें, मंदिर की घंटियों की गूंज। सावित्री की आंखें भर आईं। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कहा, “भोलेनाथ, आज मेरी तपस्या पूरी हुई।” लेकिन उन्हें कहां पता था कि यही यात्रा, जिसे उन्होंने जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य समझा था, उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा दर्द बनने वाली है।

सावित्री देवी ने जैसे ही बाबा वैद्यनाथ धाम के शिखर को दूर से देखा, उनके पैरों में कंपन होने लगी। आंखें भर आईं और होंठ बुदबुदाने लगे। “भोलेनाथ, आखिर आज मुझे अपनी शरण में बुला ही लिया।” उन्होंने अपने पल्लू से आंसू पोंछे और बेटे रोहित का हाथ पकड़ कर कहा, “बेटा, तेरे कारण मेरी जिंदगी सफल हो गई। यह वह सपना है जो मैं सोच भी नहीं सकती थी।”

रोहित ने बस हल्की सी मुस्कान दी। भीतर से वह जानता था कि मां की मासूम खुशी कुछ ही पलों की मेहमान है। पत्नी रीना के तानों ने उसके दिल को ऐसा कठोर बना दिया था कि उसे मां की आंखों की चमक भी अब बोझ लगने लगी थी। मंदिर परिसर में पहुंचकर सावित्री भीड़ के बीच किसी बच्चे की तरह हर ओर देखने लगी। बेलपत्र की दुकानों पर रुकी। गंगाजल की छोटी बोतलों को हाथ में उठाया और हर भक्त को देखकर बोली, “कितना पुण्य है इस जगह का। आज तो मेरी आत्मा तृप्त हो गई।”

भीड़ बहुत थी। तो रोहित ने मां से कहा, “मां, आप यहीं इस विश्रामालय की सीढ़ियों पर बैठ जाइए। मैं प्रसाद और पूजा की पर्ची लेकर आता हूं। भीड़ में आप थक जाएंगी।” सावित्री देवी ने बेटे की बात पर आंख बंद कर भरोसा किया। वह धीरे-धीरे सीढ़ियों पर बैठ गईं। दोनों हाथ जोड़कर मंदिर की ओर देखने लगीं। चेहरे पर संतोष और आंखों में आस्था थी। उन्होंने मन ही मन कहा, “बाबा, जब तक बेटा लौटे, मैं तेरा नाम जपती रहूंगी।”

लेकिन वक्त बीतने लगा। आधा घंटा, फिर एक घंटा, फिर दो घंटे। सूरज ढलने लगा, लेकिन रोहित लौट कर नहीं आया। सावित्री देवी बेचैन होकर इधर-उधर देखने लगीं। हर आते-जाते चेहरे में उन्हें बेटे का चेहरा नजर आता। कभी कोई युवक पास से गुजरता, तो वह सोचती, “यही होगा मेरा रोहित।” लेकिन हर बार उनकी उम्मीद टूट जाती।

धीरे-धीरे उनके दिल में शक की एक चिंगारी उठी। “कहीं रोहित मुझे छोड़कर तो नहीं चला गया?” यह विचार आते ही उनके पूरे बदन में कंपकंपी दौड़ गई। लेकिन अगले ही पल उन्होंने खुद को समझाया, “नहीं, मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता। मैंने अपना खून पिलाकर पाला है उसे। वो मुझे अकेला कैसे छोड़ सकता है?”

रात उतर आई थी। मंदिर के शिखर पर दीप जल उठे। श्रद्धालु लौटने लगे। सावित्री देवी अब भी थक कर वही सीढ़ियों पर बैठी थीं। भूख से पेट जल रहा था। पांव सुन्न हो रहे थे। लेकिन दिल बस एक ही बात पर अटका था, “मेरा बेटा आएगा। जरूर आएगा।”

किसी ने आकर पूछा, “माई, कहां से आई हो? अकेली क्यों बैठी हो?” सावित्री देवी ने कांपती आवाज में कहा, “मेरा बेटा गया है प्रसाद लेने। वो अभी आता ही होगा।” पर उस रात वो बेटा कभी नहीं आया। भीड़ छंट गई। मंदिर के बाहर सन्नाटा छा गया। सावित्री देवी का दिल अब समझ चुका था। बेटा उन्हें छोड़कर चला गया है। लेकिन मां का दिल अजीब होता है। धोखा साफ दिखते हुए भी वो बेटे के लिए दुआ ही करती है।

“भोलेनाथ, मेरा रोहित जहां भी रहे, सुखी रहे। अगर उसने मुझे बोझ समझा है, तो शायद मेरी किस्मत ही यही थी।” आंखों से बहते आंसुओं के बीच उन्होंने बाबा धाम के शिखर की ओर देखा और धीरे स्वर में बोलीं, “अब मेरी जिंदगी तेरे हवाले।”

भोले देवघर की रात उस दिन असामान्य रूप से ठंडी थी। मंदिर परिसर के बाहर धीरे-धीरे भीड़ छंट चुकी थी। जो श्रद्धालु दूर-दराज से आए थे, वे अपने ठिकानों को लौट रहे थे। घंटियों की गूंज थम चुकी थी और पूरे वातावरण में एक अजीब सा सन्नाटा भर गया था। सीढ़ियों पर बैठी सावित्री देवी अब पत्थर की मूर्ति सी लग रही थीं। आंखों से आंसू बहकर सूख चुके थे। गला बैठ चुका था और मन में सिर्फ एक ही सवाल बार-बार उठ रहा था, “क्या सचमुच मेरा बेटा मुझे छोड़ गया?”

लेकिन जैसे-जैसे रात गहराती गई, यह बात शायद टूट कर कांच की तरह उनके दिल को लहूलुहान करने लगी। धीरे-धीरे मंदिर की सीढ़ियों पर भटकते कुत्ते, दूर कहीं अलाव जलाकर बैठे कुछ भिखारी और बीच-बीच में पुजारी की धीमी आवाजें ही साथ रह गईं। थक कर सावित्री मंदिर की सीढ़ियों पर ही लेट गईं। आकाश की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, “भोलेनाथ, जब मैंने रोहित को जन्म दिया था, तब सोचा भी नहीं था कि एक दिन उसका प्यार यूं खत्म हो जाएगा। पर मैं तुझे छोड़कर नहीं जाऊंगी। अगर बेटा मेरा साथ नहीं देगा, तो अब तू ही मेरा सहारा है।”

रात के तीसरे पहर अचानक उनके आंचल पर किसी ने हल्के हाथ से स्पर्श किया। “माई, आप यहां अकेली क्यों बैठी हैं?” यह आवाज एक मंदिर के पुजारी की थी, जो देर रात अपने कमरे की ओर लौट रहा था। सावित्री ने कांपते हुए कहा, “मेरा बेटा वो गया है प्रसाद लेने। आएगा अभी।”

पुजारी ने उनकी हालत देखी और तुरंत समझ गया कि यह कोई साधारण स्थिति नहीं है। तभी पास ही खड़ी एक समाजसेवी महिला, मीरा, भी उधर से गुजरी। उसने जब बूढ़ी मां की आंखों से बहते आंसू और कांपते हाथ देखे, तो उसका दिल पिघल गया। मीरा ने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा। “मां, आप चिंता मत कीजिए। यहां कोई किसी को अकेला नहीं छोड़ता। बाबा वैद्यनाथ की नगरी में इंसानियत अभी जिंदा है।”

सावित्री इन शब्दों को सुनकर फूट-फूट कर रो पड़ीं। पहली बार उन्हें लगा कि अजनबियों के बीच भी कोई अपना हो सकता है। मीरा ने उन्हें सहारा देकर उठाया और पुजारी के साथ अपने छोटे से घर ले गईं। वहां उन्हें खाना दिया गया। पानी पिलाया गया। सावित्री हर कौर खाते हुए रो पड़तीं। “आज तक मैं बेटे को खिलाकर ही संतुष्ट होती थी। आज पहली बार अजनबी मुझे खिला रहे हैं।”

उस रात उन्होंने करवटें बदलते हुए यही सोचा, “जिस बेटे को पालने के लिए मैंने अपनी जिंदगी खपा दी, उसी ने मुझे छोड़ दिया। लेकिन शायद भगवान यही चाहते थे कि मैं अब अपने पैरों पर खड़ी हूं। किसी के सहारे नहीं।”

सुबह की पहली किरण जब देवघर के आकाश को सुनहरी बना रही थी, तब सावित्री देवी मीरा के छोटे से घर के आंगन में बैठी थीं। पिछली रात की थकान और आंसुओं ने उनकी आंखों को लाल कर दिया था। पर दिल में कहीं एक नया संकल्प भी जन्म ले चुका था।

मीरा ने उनके पास बैठते हुए कहा, “मां, जिंदगी किसी एक इंसान के सहारे नहीं रुकती। जिसे तुम अपना सब कुछ मानती थीं, उसने ही छोड़ दिया। अब भगवान ने तुम्हें दूसरा रास्ता दिखाने के लिए यहां भेजा है।” सावित्री देवी ने उसकी ओर देखा। उनके चेहरे पर अनगिनत शिकनें थीं। पर भीतर से एक दृढ़ता झलक रही थी।

उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “बेटी, सच कहूं तो अब मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती। मैं अपने हाथों से कमाकर जीना चाहती हूं। बस भगवान का नाम मेरे साथ रहे।” यहीं से उनकी नई यात्रा की शुरुआत हुई। मीरा और पुजारी ने मिलकर उन्हें मंदिर के बाहर छोटी सी जगह दिला दी।

एक पुरानी टोकरी और कुछ फूल लेकर सावित्री ने बाबा वैद्यनाथ के दरवाजे पर फूल बेचने का काम शुरू किया। पहले दिन ही उनकी झिझक साफ झलक रही थी। कांपते हाथों से वह बेलपत्र और फूलों की माला सजाती और श्रद्धालुओं से कहती, “बाबा के लिए बेलपत्र ले लो। बाबा आशीर्वाद देंगे।” लोग उनके चेहरे की मासूमियत और आंखों की सच्चाई देखकर रुक जाते।

कोई उनसे फूल लेता, तो कोई बिना लिए भी उनके पैर छूकर आशीर्वाद मांगता। धीरे-धीरे श्रद्धालुओं में यह बात फैल गई। “मां से फूल लो। उनका आशीर्वाद साथ मिलेगा।” दिन गुजरते गए। छोटा सा काम अब चलने लगा। उनकी दुकान पहले टोकरी से बढ़कर एक छोटी मेज तक पहुंची। फिर दुकान की शक्ल लेने लगी।

अब सावित्री देवी हर सुबह खुद फूल सजातीं। साफ-सुथरे कपड़े पहनतीं और दुकान पर बैठ जातीं। उनके चेहरे पर दुख की परछाई धीरे-धीरे मिट रही थी। एक दिन मीरा ने हंसकर कहा, “मां, देखो बाबा ने आपको कितना बड़ा तोहफा दिया है। जिसने आपको छोड़ा था, उसने तो सोचा भी नहीं होगा कि आप एक दिन इतनी मजबूत बन जाएंगी।”

सावित्री की आंखें भर आईं। उन्होंने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाई, “सही कहा बेटी। बेटे ने मुझे बोझ समझा। लेकिन बाबा ने मुझे सहारा दिया। अब यह फूल ही मेरा जीवन है। और यही मेरी पहचान।”

समय के साथ उनकी दुकान मंदिर की सबसे प्रसिद्ध फूल की दुकान बन गई। लोग दूर-दूर से सिर्फ मां से फूल लेने आते। कोई कहता, “माई का आशीर्वाद लगता है,” तो कोई कहता, “इनसे लिया फूल सीधे बाबा तक पहुंचता है।” अब उनके पास न सिर्फ सम्मान था, बल्कि पैसों की कोई कमी भी नहीं रही। लाखों रुपए तक उनकी दुकान से कमाई होने लगी।

लेकिन पैसों से ज्यादा उन्हें इस बात की खुशी थी कि अब वह किसी पर निर्भर नहीं रही। मां के चेहरे पर अब दर्द नहीं, बल्कि संतोष और आत्मविश्वास था। वह अक्सर श्रद्धालुओं से कहतीं, “बाबा वैद्यनाथ की नगरी में जो भी आता है, खाली हाथ नहीं जाता। मुझे बेटा छोड़ गया था, लेकिन बाबा ने मुझे नया परिवार दे दिया।”

भीड़भाड़ वाले उस मंदिर के बाहर फूलों की खुशबू और श्रद्धा के गीतों के बीच सावित्री देवी अब किसी छोड़ी हुई मां की नहीं, बल्कि एक आत्मनिर्भर मां की पहचान बन चुकी थीं। बरसों बीत गए। देवघर की गलियों में अब एक नाम हर जुबान पर था—”मां की फूलों की दुकान।” बाबा वैद्यनाथ के मंदिर में आने वाला हर श्रद्धालु मानो बिना वहां से फूल लिए दर्शन अधूरे समझता।

बूढ़ी सावित्री देवी अब सिर्फ फूल नहीं बेचती थीं, बल्कि हर फूल के साथ आशीर्वाद भी देती थीं। जिन हाथों ने कभी बेटे के लिए रोटियां सेकी थीं, वही हाथ अब लोगों के माथे पर दुआ के लिए उठते थे। समय ने उनके घाव को भरा तो नहीं, लेकिन उन्हें इतना मजबूत जरूर बना दिया था कि अब वो किसी पर निर्भर नहीं रहीं। उनके चेहरे पर संतोष की चमक थी, आंखों में दृढ़ता और आवाज में विश्वास।

इसी बीच एक दिन मंदिर परिसर में भीड़ में अचानक एक चेहरा दिखा। रोहित, उसके चेहरे पर वही तेज था। लेकिन अब थकावट और परेशानी की गहरी लकीरें साफ झलक रही थीं। उसके कारोबार में भारी नुकसान हुआ था। घर टूटने की कगार पर था और पत्नी रीना भी उसे छोड़कर जा चुकी थी। वह अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा था।

जैसे ही उसकी नजर फूलों की दुकान पर बैठी मां पर पड़ी, उसके कदम थम गए। वो वही पत्थर बनकर खड़ा रह गया। यह वही मां थी जिसे उसने बोझ समझा था। तीर्थ यात्रा के बहाने यहां छोड़ गया था। लेकिन आज वही मां मंदिर के बाहर सम्मान की मूरत बन चुकी थी। आंखों से आंसू बह निकले। वह दौड़कर मां के पैरों में गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा। “मां, मुझे माफ कर दो। मैंने बहुत बड़ा पाप किया। मैंने तुम्हें धोखा दिया। तुम्हें छोड़ा और आज देखो मेरी हालत। कृपया मेरे साथ चलो मां। मैं तुम्हें घर ले जाना चाहता हूं।”

आसपास खड़े श्रद्धालु यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए। सबकी नजरें मां पर टिक गईं। सावित्री देवी ने बेटे के सिर पर हाथ रखा। उनकी आंखों से आंसू बहे, लेकिन होठों पर शांत शब्द निकले। “बेटा, मां अपने बच्चों को कभी श्राप नहीं देती। जिस दिन तूने मुझे यहां छोड़ा था, उसी दिन मैंने तुझे माफ कर दिया था। लेकिन याद रख, इंसान के कर्म ही उसका भाग्य लिखते हैं। तूने मुझे बोझ समझा था, पर बाबा ने मुझे सहारा दिया। अब मेरा घर यही है। मेरा परिवार यही है। मैं तेरे साथ नहीं जाऊंगी।”

रोहित ने सिर झुका लिया। उसके पास कहने को शब्द नहीं बचे थे। पछतावे का बोझ उसके कंधों पर और भारी हो गया। भीड़ में खड़े लोगों की आंखें नम हो गईं। किसी ने धीमे से कहा, “देखो, यही भगवान का न्याय है। जिसने मां को छोड़ा, वो आज खाली हाथ रह गया और जिसे छोड़ा गया, वही मां आज हजारों का सहारा बन गई।”

मां ने अंतिम बार बेटे को उठाया और कहा, “बेटा, अगर तुझे सच में मेरी माफी चाहिए, तो जा और अपने कर्म बदल। माता-पिता को बोझ समझना सबसे बड़ा अपराध है। भगवान तुझे सुधरने का अवसर दे। यही मेरी अंतिम दुआ है।” रोहित रोते-रोते वही जमीन पर बैठ गया।

मां ने हाथ जोड़कर मंदिर की ओर देखा और अपने फूलों की दुकान पर बैठ गईं। उनके चेहरे पर अब किसी छोड़ी गई इंसान का दर्द नहीं था, बल्कि उस मां का गर्व था जो अपने त्याग और आत्मनिर्भरता से समाज को सिखा रही थी कि माता-पिता को कभी बोझ मत समझो। जिनसे तुम मुंह मोड़ते हो, वही भगवान उन्हें और मजबूत बना देते हैं और तुम्हें पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलता।

लेकिन दोस्तों, अब एक सवाल आपसे है—क्या मां का यह फैसला सही था कि उसने बेटे को माफ तो कर दिया, लेकिन उसके साथ कभी नहीं गई? अगर आप मां की जगह होते, तो क्या यही करते? अपनी राय हमें कमेंट में जरूर बताइए।

अगर कहानी ने आपके दिल को छू लिया हो, तो वीडियो को लाइक कीजिए। अपने दोस्तों तक पहुंचाने के लिए शेयर कीजिए और हमारे चैनल “स्टोरी बाय आरके” को सब्सक्राइब करना न भूलिए। मिलते हैं अगले वीडियो में। तब तक खुश रहिए, अपनों के साथ रहिए और रिश्तों की कीमत समझिए। जय हिंद। जय भारत।

.
play video: