तीर्थ घुमाने के बहाने बेटे ने बूढ़ी माँ को बैद्यनाथ धाम छोड़ा, पर भगवान के घर देर था, अंधेर नहीं फिर
सावित्री देवी एक साधारण सी महिला थीं, जिन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकांश भाग अपने बेटे रोहित की परवरिश में समर्पित कर दिया। उनके पति का देहांत जब रोहित बहुत छोटा था, तब हुआ। सावित्री ने अकेले ही अपने बेटे को बड़ा किया। वह दिन-रात खेतों में काम करतीं, कभी मजदूरी करतीं, कभी घर में छोटे-मोटे काम कर के अपने बेटे की पढ़ाई और उसकी जरूरतों का ध्यान रखतीं। उन्होंने अपने सपने, अपनी इच्छाएं सब कुछ त्याग दिया ताकि उनका बेटा हर सुख-सुविधा प्राप्त कर सके।
रोहित का विकास
रोहित ने अपनी मां की मेहनत और बलिदान को समझा। उसने स्कूल में अच्छे अंक प्राप्त किए और कॉलेज में दाखिला लिया। सावित्री देवी ने अपनी सारी जमा-पूंजी, अपने गहने, यहां तक कि अपनी पुरानी साड़ी तक बेचकर अपने बेटे की पढ़ाई का खर्च उठाया। रोहित ने भी अपनी मां के सपनों को साकार करने के लिए मेहनत की और एक सफल व्यवसायी बन गया। उसने अच्छी नौकरी पाई, पैसे कमाए और एक सुंदर सी पत्नी रीना से शादी की।
लेकिन जैसे-जैसे रोहित बड़ा होता गया, उसकी मां की जरूरतें और स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ने लगीं। धीरे-धीरे, रोहित की नजरों में उसकी मां बोझ बनने लगी। उसकी पत्नी रीना अक्सर कहती, “हमें अपनी जिंदगी जीने दो। तुम्हारी मां अब हमारी जिम्मेदारी बन चुकी है।” रोहित ने अपनी पत्नी की बातों को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया।
मां का त्याग
सावित्री देवी ने कभी भी अपने बेटे से कोई शिकायत नहीं की। वह हमेशा रोहित के लिए प्रार्थना करतीं और उसकी खुशियों में खुश रहतीं। लेकिन रोहित के मन में एक दिन विचार आया कि अगर मां का बोझ खत्म हो जाए तो उनकी जिंदगी कितनी आसान हो जाएगी। उसने एक योजना बनाई। उसने अपनी मां से कहा, “मां, मैं तुम्हें बाबा वैद्यनाथ धाम के दर्शन कराने ले जाऊंगा।”
सावित्री देवी की आंखों में खुशी के आंसू थे। उन्हें अपने बेटे के साथ तीर्थ यात्रा का सपना पूरा होता दिख रहा था। उन्होंने अपनी सबसे अच्छी साड़ी निकाली, कुछ चावल और बेलपत्र एक पोटली में रखे और तैयार हो गईं।
तीर्थ यात्रा का सच
जब वे देवघर पहुंचे, तो सावित्री देवी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मंदिर के शिखर को देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। लेकिन रोहित के मन में कुछ और ही चल रहा था। उसने मां को मंदिर के बाहर छोड़कर कहा, “आप यहीं बैठिए, मैं प्रसाद लेकर आता हूं।” सावित्री देवी ने विश्वास के साथ अपनी आंखें बंद कर लीं।
समय बीतता गया, लेकिन रोहित वापस नहीं आया। सावित्री देवी बेचैन होने लगीं। उनका दिल धड़कने लगा। कहीं रोहित उन्हें छोड़कर तो नहीं चला गया? लेकिन उन्होंने खुद को समझाया कि ऐसा नहीं हो सकता। वह उनका बेटा है, जो कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ेगा।
अकेलापन और धोखा
रात का अंधेरा छा गया, और सावित्री देवी को एहसास हुआ कि उनका बेटा उन्हें छोड़कर जा चुका है। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, “भोलेनाथ, मुझे अकेला मत छोड़ना।” लेकिन उनकी आंखों से आंसू बहते रहे।
इसी बीच, एक पुजारी और एक समाजसेवी महिला मीरा वहां से गुजरी। उन्होंने सावित्री देवी की स्थिति देखी और उनकी मदद करने का निर्णय लिया। मीरा ने उन्हें अपने घर ले जाकर खाना खिलाया और पानी पिलाया। सावित्री देवी ने पहली बार किसी और की दया से भोजन किया और उनके दिल में एक नया संकल्प जाग उठा।
नई शुरुआत
सावित्री देवी ने तय किया कि वह अब अपने पैरों पर खड़ी होंगी। उन्होंने मीरा और पुजारी की मदद से मंदिर के बाहर फूल बेचने का काम शुरू किया। शुरुआत में उन्हें बहुत कठिनाई हुई, लेकिन धीरे-धीरे श्रद्धालुओं ने उनकी मासूमियत और सच्चाई को पहचान लिया।
उनकी दुकान छोटी-छोटी चीजों से शुरू हुई, लेकिन समय के साथ वह मंदिर की सबसे प्रसिद्ध फूलों की दुकान बन गई। लोग दूर-दूर से सिर्फ सावित्री देवी से फूल लेने आते थे। उन्होंने अपने हाथों से फूल सजाना शुरू किया और श्रद्धालुओं से कहा, “बाबा के लिए बेलपत्र ले लो। बाबा आशीर्वाद देंगे।”
आत्मनिर्भरता की पहचान
सावित्री देवी ने अपने काम में न केवल आत्मनिर्भरता पाई, बल्कि उन्होंने अपने जीवन में एक नया उद्देश्य भी खोज लिया। वह अब किसी पर निर्भर नहीं थीं। उनके चेहरे पर संतोष और आत्मविश्वास था। उन्होंने कई लोगों को प्रेरित किया और अपने संघर्ष की कहानी सुनाई।
समय बीतता गया, और उनकी दुकान अब एक पहचान बन गई। लोग कहते थे कि सावित्री देवी के फूलों में एक विशेष आशीर्वाद होता है। उनका नाम हर जुबान पर था।
बेटे की वापसी
एक दिन, रोहित अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा था। उसके कारोबार में भारी नुकसान हुआ था, और उसकी पत्नी उसे छोड़कर जा चुकी थी। जब उसने मंदिर के बाहर सावित्री देवी को देखा, तो उसकी आंखों में आंसू आ गए। वह दौड़कर मां के पैरों में गिर पड़ा और बोला, “मां, मुझे माफ कर दो। मैंने तुमसे धोखा दिया।”
सावित्री देवी ने बेटे के सिर पर हाथ रखा और कहा, “बेटा, मां अपने बच्चों को कभी श्राप नहीं देती। मैंने तुम्हें माफ कर दिया था। लेकिन याद रखो, इंसान के कर्म ही उसका भाग्य लिखते हैं।”
अंतिम संदेश
सावित्री देवी ने रोहित को समझाया कि माता-पिता को बोझ समझना सबसे बड़ा अपराध है। उन्होंने कहा, “भगवान तुझे सुधरने का अवसर दे। यही मेरी अंतिम दुआ है।”
रोहित ने सिर झुका लिया और समझ गया कि उसे अपनी गलतियों का अहसास हो चुका है।
इस तरह, सावित्री देवी ने न केवल अपने बेटे को माफ किया, बल्कि उसे जीवन का एक महत्वपूर्ण सबक भी सिखाया। उन्होंने साबित किया कि एक मां का प्यार कभी खत्म नहीं होता और वह अपने बच्चों के लिए हमेशा दुआ करती है।
निष्कर्ष
इस कहानी से यह सिखने को मिलता है कि माता-पिता का त्याग और प्रेम अनमोल होता है। हमें उन्हें कभी बोझ नहीं समझना चाहिए। सावित्री देवी की तरह हमें भी अपने जीवन में आत्मनिर्भरता और सम्मान की ओर बढ़ना चाहिए।
आपकी राय में, क्या सावित्री देवी का फैसला सही था कि उसने बेटे को माफ तो कर दिया लेकिन उसके साथ नहीं गई? अगर आप उसकी जगह होते तो क्या करते? अपनी राय हमें कमेंट में जरूर बताइए।
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