तुझमें मुझसे शादी करने की हिम्मत नहीं है, जिस लड़की ने उसे यह कहकर भगाया था कि एक दिन ऐसा आएगा…
दिल्ली का शहर हमेशा से अपने शोर-शराबे, चौड़ी सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों और आसमान को छूती इमारतों के लिए मशहूर रहा है। लेकिन इसके बीच कहीं न कहीं कुछ साधारण कहानियाँ भी जन्म लेती हैं, जो वक्त का पहिया घूमते ही असाधारण बन जाती हैं। यह कहानी भी ऐसी ही है — दो बिल्कुल अलग दुनियाओं के टकराने और वक्त के साथ बदलने की।
दिव्या बच्चन देश के मशहूर रियल एस्टेट टाइकून आर. के. बच्चन की इकलौती बेटी थी। पैसों की कोई कमी नहीं थी, ऐश्वर्य और शोहरत हर कदम पर उसके साथ चलते थे। कॉलेज उसके लिए पढ़ाई की जगह नहीं बल्कि एक मंच था जहाँ वह अपने फैशन, अपने रुतबे और अपनी दुनिया को दिखा सके। महंगी कारों का काफिला, डिज़ाइनर कपड़े और दोस्तों का हुजूम उसके इर्द-गिर्द हमेशा मंडराता था। उसके लिए जीवन का मतलब था पार्टियाँ, ब्रांडेड सामान और दिखावा।
दूसरी तरफ़ अभय कामावत था। नैनीताल का रहने वाला एक साधारण लड़का। पिता एक स्कूल शिक्षक, जिनकी कमाई बस घर चलाने लायक थी। लेकिन ईमानदारी और संस्कारों से भरी उस परवरिश ने अभय को मजबूत बनाया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने आया अभय अक्सर लाइब्रेरी या अपने नोट्स में डूबा दिखता। पुराने लेकिन साफ-सुथरे कपड़े पहनने वाला यह शांत लड़का अपनी ही दुनिया में रहता। उसका सपना बड़ा था — एक दिन खुद का ऐसा बिज़नेस खड़ा करना जो न केवल उसे बल्कि समाज को भी आगे बढ़ाए।
दोनों की दुनियाएँ कभी एक-दूसरे से टकराती नहीं थीं। लेकिन कॉलेज का वार्षिक महोत्सव इन दोनों को आमने-सामने ले आया। उस दिन एक बिज़नेस आइडिया प्रेजेंटेशन का आयोजन था। अधिकतर छात्रों के लिए यह सिर्फ एक बोरिंग इवेंट था, मगर अभय के लिए यह जिंदगी का सबसे बड़ा मौका था। उसने महीनों तक दिन-रात मेहनत करके एक आइडिया तैयार किया था — एक ऐसा मोबाइल एप्लिकेशन जो छोटे कारीगरों और कलाकारों को सीधे ग्राहकों से जोड़े ताकि उनका हुनर बिना बिचौलियों के सही कीमत पा सके।
स्टेज पर खड़े अभय की आवाज़ में घबराहट जरूर थी, लेकिन आँखों में सपना और आत्मविश्वास साफ झलक रहा था। उसकी बातों ने जजों और प्रोफेसरों का ध्यान खींच लिया। पूरे हॉल में सन्नाटा था, लोग उसकी प्रस्तुति को सुनते रह गए। और अंत में जब नतीजे आए, तो विजेता कोई और नहीं बल्कि अभय ही था। मंच पर उसकी ट्रॉफी और इनाम देखकर उसके चेहरे पर मासूम मुस्कान थी। लेकिन दिल के किसी कोने में वह दिव्या को खोज रहा था — वही दिव्या जिसे वह पहली बार कॉलेज में देखकर ही पसंद करने लगा था।
वह अपनी जीत की खुशी में दिव्या से अपने दिल की बात कहने की हिम्मत जुटा पाया। महोत्सव के बाद, जब दिव्या अपने दोस्तों संग लॉन में खड़ी थी, अभय उसके पास पहुँचा और सीधे कह दिया —
“दिव्या, मैं जानता हूँ कि हम दोनों की दुनिया अलग है। लेकिन मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूँ और अपनी हर सफलता तुम्हारे साथ बांटना चाहता हूँ। क्या तुम मेरी जिंदगी का हिस्सा बनोगी?”
पूरा माहौल थम गया। दिव्या कुछ पल चुप रही और फिर जोर से हँस पड़ी। उसके दोस्तों की ठहाके लगाती आवाज़ें गूंज उठीं। दिव्या ने घमंड से कहा —
“तुम्हारी औकात नहीं है कि तुम मेरे बारे में सोच भी सको। सपने देखने चाहिए, लेकिन अपनी हैसियत देखकर।”
यह शब्द अभय के दिल में किसी जलते लोहे की तरह धँस गए। उस दिन उसका भोला सपना टूट गया और उसकी जगह एक नया संकल्प जन्मा। उसने ठान लिया कि अब उसकी मेहनत, उसकी सफलता और उसका नाम ही उसका जवाब होगा।
पंद्रह साल बीत गए। वक्त का पहिया घूम चुका था।
अभय कामावत आज भारत के स्टार्टअप जगत का चमकता सितारा था। उसी “हुनरबाज़” नाम के एप्लिकेशन को उसने मेहनत और संघर्ष से खड़ा किया, जो अब लाखों कारीगरों को दुनिया भर से जोड़ रहा था। उसकी कंपनी अरबों की वैल्यू पर पहुँच चुकी थी। लेकिन उसके अंदर का इंसान वही साधारण, शांत और ज़मीन से जुड़ा रहा। उसने कभी मीडिया की चकाचौंध को महत्व नहीं दिया। शादी भी नहीं की। शायद दिल का पुराना जख्म अब भी कहीं गहरा था।
दूसरी ओर दिव्या की जिंदगी ने करवट ली थी। कॉलेज के बाद वह विदेश गई, पिता की दौलत पर ऐशो-आराम किए और एक बड़े उद्योगपति के बेटे से शादी कर ली। लेकिन किस्मत ने पलटी मारी। पिता का साम्राज्य गलत निवेश के कारण ढह गया, परिवार दिवालिया हो गया और पति ने उसे तलाक दे दिया। कल तक पार्टियों में जो दोस्तों की भीड़ होती थी, अब कोई फोन तक नहीं उठाता था। ऐश्वर्य और घमंड सब रेत की तरह हाथ से फिसल गए। मजबूरी में नौकरी की तलाश करनी पड़ी, लेकिन अनुभव न होने के कारण उसे कोई जगह नहीं मिल रही थी।
आखिरकार उसने “हुनरबाज़” कंपनी में आवेदन किया। इंटरव्यू में वह सफल रही और आखिरी चरण बचा था — कंपनी के सीईओ से मुलाकात। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, मगर उसने सोचा नहीं था कि दरवाज़े के उस पार उसकी तक़दीर उसका इंतजार कर रही है।
दरवाज़ा खुला और कुर्सी घूमी। सामने वही चेहरा था जिसे उसने बरसों पहले ठुकरा दिया था। थोड़ा परिपक्व, चश्मे के पीछे गहरी आँखें, और एक शांत मुस्कान। अभय कामावत।
दिव्या के पैरों तले जमीन खिसक गई। हाथ से बैग गिर गया। कानों में अपने ही शब्द गूंजने लगे — “तुम्हारी औकात नहीं है।”
कमरे में सन्नाटा छा गया। लेकिन अभय के चेहरे पर न गुस्सा था, न गुरूर। उसने बस शांत स्वर में कहा —
“कृपया बैठिए, मिस बच्चन।”
इंटरव्यू शुरू हुआ। वह पूरी प्रोफेशनलिज़्म के साथ दिव्या से सवाल पूछता रहा। दिव्या की जुबान लड़खड़ा रही थी। उसके आँसू आँखों से छलकने लगे। जब बातचीत खत्म हुई तो अभय ने कहा —
“आप योग्य हैं इस पद के लिए। लेकिन हुनरबाज़ में काम करने का पहला नियम है — हर इंसान का सम्मान करना। चाहे उसकी हैसियत कुछ भी हो।”
फिर उसने अपनी दराज़ से एक पुराना सूखा गुलाब निकाला और कहा —
“यह मुझे याद दिलाता है कि सपने किसी की औकात पर निर्भर नहीं होते। और यह भी कि शब्द किसी भी हथियार से ज्यादा गहरे जख्म दे सकते हैं।”
दिव्या फूट-फूटकर रो पड़ी। हाथ जोड़कर बोली —
“मुझे माफ कर दो, अभय। मैं उस दिन अहंकार में अंधी थी।”
अभय ने शांत मुस्कान के साथ कहा —
“मैंने उसी दिन तुम्हें माफ कर दिया था, दिव्या। क्योंकि तुम्हारे ही शब्दों ने मुझे वह आग दी जिसकी वजह से आज मैं यहाँ खड़ा हूँ। एक तरह से मैं तुम्हारा आभारी हूँ।”
उसने उसे अपॉइंटमेंट लेटर थमा दिया और कहा —
“यह नौकरी तुम्हारी है। लेकिन एक शर्त पर — अपनी पहली तनख्वाह से हमारे हुनरबाज़ फाउंडेशन में दान देना होगा, ताकि गरीब कलाकारों के बच्चों को शिक्षा मिल सके।”
दिव्या ने काँपते हाथों से लेटर लिया और रोते हुए सिर हिला दिया।
उस दिन वह ऑफिस से नौकरी लेकर निकली जरूर, लेकिन साथ ही जिंदगी का सबसे बड़ा सबक भी लेकर गई। उसने सीखा कि असली कीमत पैसे या रुतबे से नहीं, बल्कि इंसान के हौसलों और उसके चरित्र से होती है।
वक्त का पहिया घूम चुका था। और इस बार उसने साबित कर दिया कि गुरूर टूटता है, लेकिन सच्ची मेहनत और इंसानियत कभी हारती नहीं।
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