तूफ़ानी रात में विधवा माँ और बच्चे को घर से निकालने वाले निर्दयी मकान मालिक का हुआ बुरा अंजाम

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तूफ़ानी रात में विधवा माँ और बच्चे को घर से निकालने वाले निर्दयी मकान मालिक का हुआ बुरा अंजाम

भाग 1: पत्थर के मकान, इंसानियत की ईंटें

कहते हैं कि पत्थर से मकान तो बन सकता है लेकिन घर बनने के लिए इंसानियत की ईंटें चाहिए होती हैं। पर जब आंखों पर दौलत की पट्टी बंध जाए तो इंसान को न मजबूरी दिखती है, न मासूम के आंसू।

मुंबई के एक पुराने मोहल्ले में, एक जर्जर मकान की छोटी सी कोठरी में सुनीता अपनी सिलाई मशीन पर झुकी थी। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। कमरे में रोशनी के नाम पर बस एक दिया जल रहा था। कोने में फटे कंबलों के बीच उसका छह साल का बेटा मयंक बुखार से तप रहा था। सुनीता की उंगलियां मशीन पर चल रही थीं, लेकिन आंखों में डर था—कर्ज का डर, किराया न दे पाने का डर।

छह महीने पहले पति रमेश की मौत ने उसकी दुनिया उजाड़ दी थी। वह दिन-रात सिलाई करके किसी तरह मयंक का पेट पाल रही थी। लेकिन पिछले दो महीने से काम मंदा था, किराया नहीं चुका पाई थी।

भाग 2: निर्दयी मकान मालिक की रात

अचानक दरवाजे पर जोर की लात पड़ी। “सुनीता, दरवाजा खोल!” बाहर सेठ जगन लाल की भारी आवाज आई। पूरे मोहल्ले में उसकी निर्दयता के किस्से मशहूर थे। सुनीता ने कांपते हाथों से दरवाजा खोला। जगन लाल छाता लिए, चेहरे पर क्रोध लिए खड़ा था, पीछे उसके दो गुर्गे।

“रात हो या दिन, मुझे मेरा पैसा चाहिए। दो महीने हो गए हैं। या तो पूरा किराया दे या अपना कबाड़ लेकर दफा हो जा।” सुनीता उसके पैरों में गिर पड़ी, “सेठ जी, भगवान के लिए ऐसा मत कीजिए। बाहर तूफान है, मेरा बेटा बीमार है। दो दिन की मोहलत दे दीजिए।”

जगन लाल ने क्रूरता से हंसते हुए अपने गुर्गों को इशारा किया। उन्होंने घर का सामान बाहर कीचड़ में फेंकना शुरू कर दिया। सुनीता की सिलाई मशीन भी बेरहमी से बाहर लुड़का दी गई। मयंक जो बुखार में सो रहा था, शोर सुनकर जाग गया और डर के मारे रोने लगा। “मां…मां…”

सुनीता ने बेटे को गले से लगा लिया, “सेठ जी, मेरे बच्चे पर रहम कीजिए।” लेकिन जगन लाल का दिल पत्थर का था। उसने सुनीता और मयंक को बाहर धकेल दिया, “निकल यहां से, जब तक पैसे न हो।” दरवाजा बंद कर दिया।

भाग 3: बेबस माँ की तड़प

सुनीता कीचड़ में अपने बीमार बच्चे को छाती से लगाए बैठी रही। ऊपर से बारिश तेज होती जा रही थी। मोहल्ले के लोग खिड़कियों से देख रहे थे, लेकिन जगन लाल के खौफ से कोई मदद के लिए आगे नहीं आया।

बारिश की बूंदें अब पानी नहीं, तेजाब बनकर गिर रही थीं। सुनीता अपनी फटी साड़ी के पल्लू से मयंक को ढकने की कोशिश कर रही थी। उसकी नजर अपनी सिलाई मशीन पर पड़ी, जो नाली के किनारे पड़ी थी। वह मशीन जिससे उसने मयंक की स्कूल फीस और दवाई का इंतजाम किया था, आज लावारिस लाश की तरह भीग रही थी। लेकिन अब सवाल पेट भरने का नहीं, प्राण बचाने का था।

मयंक की कमजोर आवाज आई, “मां, ठंड बहुत लग रही है।” सुनीता ने बेटे को कसकर भींच लिया और अंधेरी सड़क पर नंगे पांव चल पड़ी।

भाग 4: दर-दर की ठोकरें

सुनीता एक बंद दुकान के छज्जे के नीचे छिपी, लेकिन वहां पहले से ही कुत्ते बैठे थे। डरकर वहां से भी हटना पड़ा। हर बंद दरवाजा उसके मुंह पर तमाचा था।

चलते-चलते वह मोहल्ले के बड़े शिव मंदिर के पास पहुंची। उसे लगा—शायद भगवान का दरवाजा खुला हो। लेकिन मंदिर के गेट पर भी ताला लटका था। सुनीता ने बेतहाशा गेट को पीटना शुरू किया, “हे भगवान, कोई तो खोलो, मेरा बच्चा मर जाएगा!” लेकिन अंदर से कोई पुजारी नहीं आया।

थक हारकर वह मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गई। मयंक का शरीर आग की तरह तप रहा था, लेकिन हाथ-पैर बर्फ जैसे ठंडे पड़ रहे थे। सुनीता ने अपनी साड़ी का गीला पल्लू निचोड़कर मयंक के माथे पर रखा। उसकी आंखों से बहते आंसू बारिश में मिल गए।

भाग 5: खतरा और करुणा

तभी सड़क पर एक कार तेज रफ्तार में आई और कीचड़ उछालते हुए रुक गई। हेडलाइट की रोशनी सुनीता के चेहरे पर पड़ी। वह उम्मीद से भरी नजरों से उस तरफ लपकी, शायद कोई मदद मिल जाए। लेकिन गाड़ी से एक शराबी आदमी उतरा, नशे में धुत, हाथ में बोतल।

वह लड़खड़ाता हुआ सुनीता की ओर बढ़ने लगा। “कौन है मां? इतनी रात को अकेली?” उसकी आवाज में हमदर्दी नहीं, घिनौनी नियत थी। सुनीता ने पास पड़ा एक पत्थर उठा लिया। “खबरदार, जो एक कदम भी आगे बढ़ाया। मैं जान ले भी सकती हूं और दे भी सकती हूं।”

शराबी ठिटका, लेकिन फिर बेशर्मी से हंसा। जैसे ही उसने सुनीता की बाह पकड़ने की कोशिश की, अचानक एक सफेद एंबेसडर कार चीखती हुई पास आकर रुकी। गाड़ी से एक रबदार बुजुर्ग निकले, हाथ में मोटी छड़ी। बिना बोले, उन्होंने छड़ी शराबी की पीठ पर दे मारी, “भाग यहां से नीच इंसान। एक मजबूर औरत पर डोरे डालता है!”

शराबी माफी मांगते हुए अंधेरे में गायब हो गया।

भाग 6: एक फरिश्ता मिलता है

बुजुर्ग ने छतरी सुनीता के ऊपर की और नरम आवाज में बोले, “डरो मत बेटी, मैं तुम्हारी मदद करने आया हूं। मैं तुम्हारे पिता की उम्र का हूं।”

उन्होंने मयंक का माथा छुआ, “हे भगवान, इसका शरीर तो अंगारे की तरह तप रहा है। अगर तुरंत इलाज नहीं मिला तो निमोनिया बिगड़ सकता है। जिद मत करो, गाड़ी में बैठो। मेरा घर पास ही है, मेरी पत्नी डॉक्टर है।”

डॉक्टर शब्द सुनते ही सुनीता की ममता ने डर को हरा दिया। वह जानती थी कि अगर यहां रही तो मयंक सुबह का सूरज नहीं देख पाएगा। कांपते कदमों से गाड़ी की पिछली सीट पर पनाह ली।

बुजुर्ग वकील हरिशंकर थे, शहर के ईमानदार वकील। उन्होंने गाड़ी चलाते हुए पूछा, “इतनी रात को इस तूफान में तुम्हें सड़क पर किसने निकाला?” सुनीता के सब्र का बांध टूट गया। गाड़ी की पिछली सीट पर सिसकते हुए उसने पूरी आपबीती सुना दी—पति की मौत, गरीबी, सिलाई मशीन, सेठ जगन लाल की हैवानियत।

पूरी बात सुनकर हरिशंकर की मुट्ठी स्टीयरिंग पर कस गई, “मैं जानता हूं उस गिद्ध को। उसने कई गरीबों का खून चूसा है। लेकिन आज उसने इंसानियत को चुनौती दी है।”

भाग 7: नया घर, नई लड़ाई

गाड़ी एक बंगले के आगे रुकी। हरिशंकर की पत्नी शारदा बाहर आईं। उन्होंने कीचड़ में सनी सुनीता और बेहोश मयंक को देखा तो दिल पसीज गया। बिना सवाल किए, मयंक को गोद में ले लिया। उस रात सुनीता को वह घर मिला, जो पत्थरों से नहीं, भावनाओं से बना था। मयंक को दवा दी गई, गर्म कपड़े पहनाए गए, सुनीता को खाना खिलाया गया।

अगली सुबह जब सुनीता की आंख खुली, तो सूरज निकल आया था। हरिशंकर ड्राइंग रूम में फाइल पढ़ रहे थे। सुनीता उनके पैरों में झुकने लगी, लेकिन हरिशंकर ने रोक दिया। “सिर मत झुकाओ बेटी, सिर तो अब उस पापी का झुकेगा।”

“तुमने कल रात जो सहा, वह अपराध था। मैं उस जगनलाल को कोर्ट में घसीटूंगा। क्या तुम लड़ाई के लिए तैयार हो?”

सुनीता की बेबसी अब गुस्से में बदल गई थी। उसने दृढ़ता से कहा, “हां बाबूजी, मैं तैयार हूं। उसने मेरा घर छीना है, मैं उसका गुरूर छीनूंगी।”

भाग 8: इंसानियत की जंग

हरिशंकर ने सुनीता को सहारा दिया। उसे सिलाई का काम दिलवाया, एक छोटी कोठरी किराए पर दिलवाई ताकि मयंक का इलाज चलता रहे। दो दिन बाद हरिशंकर ने अत्याचार और अनैतिक बेदखली के आधार पर सेठ जगनलाल के खिलाफ कानूनी नोटिस भेजा।

जगनलाल ने पहले हंसकर नोटिस को नजरअंदाज किया, फिर हरिशंकर को खरीदने की कोशिश की। लेकिन हरिशंकर ने जवाब दिया, “यह लड़ाई पैसे की नहीं, इंसानियत की है।”

जब जगनलाल को एहसास हुआ कि हरिशंकर सच में लड़ने वाले हैं, उसने सुनीता को धमकाने की कोशिश की। लेकिन इस बार सुनीता अकेली नहीं थी। हरिशंकर ने मोहल्ले के ईमानदार लोगों को इकट्ठा कर लिया, जिन्होंने गुर्गों को भगा दिया।

भाग 9: कोर्ट की लड़ाई

केस की पहली सुनवाई में जगनलाल बड़े ठाट-बाट से कोर्ट आया। उसने झूठ बोला, “मैंने नोटिस दिया था, यह औरत झूठ बोल रही है।” हरिशंकर ने मोहल्ले के गवाहों को पेश किया, जिन्होंने सच बताया। सबसे बड़ा सबूत था मयंक की मेडिकल रिपोर्ट—बच्चा अत्यधिक ठंड और सदमे के कारण निमोनिया की चपेट में आ गया था।

जज बोले, “किराया मांगना आपका हक है, लेकिन तूफान में बीमार बच्चे और मां को सड़क पर फेंकना बर्बरता है।”

भाग 10: कर्म का चक्र

कोर्ट की कार्यवाही ने जगनलाल के दिल में पहली बार डर पैदा किया। अब वह अकेला था। उसकी फैक्ट्री में आग लग गई, बेटे ने विदेश में जुए में पैसे गंवा दिए, पत्नी बीमार पड़ गई। कर्म का चक्र चल पड़ा था।

अंतिम सुनवाई के दिन कोर्ट खचाखच भरा था। हरिशंकर ने कानून की धारा नहीं, इंसानियत की बात की। “यह केस नैतिक दिवालियापन का है।” जज ने फैसला सुनाया—जगनलाल को मानसिक प्रताड़ना और नुकसान के लिए भारी जुर्माना, छह महीने की जेल की सजा।

कोर्ट रूम में तालियां गूंज उठीं। सुनीता की आंखों में खुशी के आंसू थे। जगनलाल का घमंड एक पल में ढह गया। मीडिया ने उसे खलनायक बना दिया। उसकी दौलत, इज्जत, परिवार सब छिन गया।

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भाग 11: सुनीता की नई शुरुआत

सुनीता ने जुर्माना राशि ली, अपनी सिलाई मशीन ठीक करवाई, एक नई कोठरी किराए पर ली। हरिशंकर के प्रोत्साहन से मोहल्ले की गरीब औरतों को सिलाई सिखाना शुरू किया। जल्द ही उसने “विश्वास” नाम से कार्यशाला खोल ली।

अब वह बेबस विधवा नहीं, विश्वास की मालकिन थी। एक साल बाद कार्यशाला एक साफ-सुथरी दुकान बन गई, जहां 8-10 औरतें काम सीखती थीं। मयंक स्कूल जाता था, सबसे पहले मां को गले लगाता था।

भाग 12: जगनलाल का पश्चाताप

एक दिन सुनीता दुकान पर बैठी थी, तभी दरवाजा खटखटाया। सामने वृद्ध व्यक्ति था—सेठ जगनलाल। छह महीने जेल काटने और सारी संपत्ति गंवाने के बाद वह अब टूटा हुआ इंसान था।

“मैं माफी मांगने आया हूं। उस रात मैंने पाप किया। जेल में हर पल तुम्हारे बेटे की रोने की आवाज सुनाई देती थी। मैंने इंसानियत को मार दिया था।”

सुनीता ने संयम से कहा, “मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। न्याय ने अपना काम किया, कर्म ने अपना। मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए थे, सिर्फ उस रात की इंसानियत चाहिए थी।”

जगनलाल ने कहा, “मेरे पास रहने को जगह नहीं है। मेरा बेटा भी मुझे छोड़ गया है।”

सुनीता ने अपने मन में हरिशंकर बाबूजी की दया याद की। “सेठ जी, मैं आपको वह सब नहीं दे सकती जो आपने खोया है, लेकिन मैं आपको उस जगह से निकाल सकती हूं जहां आपने मुझे छोड़ा था।”

उसने अपने मुनीम को बुलाया, जगनलाल को धर्मशाला भेजा, दो दिन का खाना और रहने का इंतजाम कराया। “यहां काम करना होगा, बिना काम के कोई नहीं रह सकता।”

जगनलाल की आंखों में इस बार न घमंड था, न लालच—बस अविश्वास और पछतावा। सुनीता जानती थी, उसने बदला नहीं लिया, कर्म का चक्र पूरा किया है।

भाग 13: इंसानियत की जीत

सुनीता ने दुकान के बोर्ड को देखा—”विश्वास”। उसे समझ आ गया कि जिंदगी में दौलत से ज्यादा जरूरी लोगों का विश्वास और इंसानियत होती है। उस तूफानी रात ने उसे तोड़ा नहीं, बल्कि एक मजबूत स्तंभ बना दिया।

समाप्त