दहेज मांगा तो दुल्हन ने लौटाई बारात, फिर जो हुआ इंसानियत हिल गई
शहर के बीचों-बीच, रोशनी से जगमगाता एक मंडप सजा हुआ था। फूलों की मालाएँ, रंग-बिरंगी झालरें और शहनाई की मधुर धुन से पूरा वातावरण शादी की खुशी में डूबा हुआ था। मेहमान सजधजकर आए थे, रिश्तेदार इधर-उधर दौड़ रहे थे। सब कुछ किसी सपने जैसा लग रहा था।
इस मंडप की दुल्हन थी आरती, जिसने अपने माता-पिता की आंखों का सपना पूरा करने के लिए वर्षों से इंतजार किया था। लाल जोड़े में सजी आरती के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, लेकिन उसके दिल की धड़कनें तेज़ थीं। मां पास बैठी थीं और पिता देवेंद्र मेहमानों का स्वागत कर रहे थे।
उधर, दूल्हा रोहन बारात लेकर पहुंच चुका था। ढोल-नगाड़ों और बैंड की आवाज से गली गूंज उठी थी। सब कुछ ठीक चल रहा था, तभी अचानक माहौल बदल गया।
दहेज की मांग
जब पंडित जी ने मंत्रोच्चारण शुरू किया और जयमाल की तैयारी हो रही थी, तभी रोहन के चाचा ने ऊँची आवाज में कहा—
“देवेंद्र जी, एक छोटी-सी बात रह गई है। लड़के के लिए कार और घर बसाने के लिए कुछ पैसे दे दीजिए। लिस्ट तो बनी रहेगी।”
पूरा मंडप सन्नाटे में डूब गया। सभी की निगाहें देवेंद्र जी की ओर टिक गईं।
देवेंद्र जी ने हिम्मत जुटाकर कहा—
“हमने पहले ही साफ कहा था कि हम दहेज नहीं देंगे। जितना हमारे बस में था, उतना हमने खुशी-खुशी किया है।”
रोहन ने कंधे उचकाकर कहा—
“डैड, ये छोटी-सी मदद है। इससे शुरुआत आसान हो जाएगी।”
आरती की हिम्मत
यह सुनकर आरती ने पहली बार सीधे रोहन की ओर देखा। उसकी आंखों में ठहराव था और आवाज बिल्कुल साफ—
“मेरे पिता की झुकी हुई आंखें कोई छोटी बात नहीं। अगर शादी दहेज पर टिकती है, तो मुझे ऐसी शादी नहीं चाहिए।”
पूरे मंडप में खुसर-पुसर होने लगी। कुछ लोग बोले, “लड़की ज्यादा बोल रही है।” तो कुछ ने कहा, “सही कह रही है।”
पंडित जी ने मंत्र पढ़ना बंद कर दिया। मां घबराकर बोलीं—
“बिटिया, चुप रहो। बदनामी हो जाएगी।”
आरती ने मां का हाथ पकड़कर धीरे से कहा—
“मां, अगर इज्जत बची रहे, तो यही काफी है।”
दूल्हे के पिता ताना मारते हुए बोले—
“ये मंडप है, भाषण देने का मंच नहीं।”
आरती शांत खड़ी रही। उसकी आवाज दृढ़ थी—
“यह मेरी जिंदगी है। मैं सौदे में दुल्हन नहीं बनूंगी।”
देवेंद्र जी की आंखें भर आईं, लेकिन आवाज मजबूत थी—
“पंडित जी, मंत्र रोक दीजिए। यह शादी यहीं खत्म।”
रोहन ने सिर झुका लिया और चुपचाप एक तरफ हट गया। शहनाई की धुन थम गई। वरमाला की थाली में रखे फूल जैसे भारी हो गए।
अनपेक्षित प्रस्ताव
जब आरती मां-बाप का हाथ थामकर मंडप से बाहर निकल रही थी, तभी पीछे से किसी ने आवाज दी—
“एक मिनट! अगर इज्जत ही शर्त है, तो मैं बिना दहेज इस लड़की से शादी करने को तैयार हूं।”
सबकी निगाहें मुड़ गईं। साधारण कपड़ों में, कंधे पर पुराना बैग टांगे, एक युवक खड़ा था। उसकी आंखों में भरोसा था। उसने कहा—
“मेरा नाम आदित्य है। मैं दहेज नहीं चाहता। मुझे साथी चाहिए, जो मेरे साथ बराबरी से चले।”
भीड़ में हलचल मच गई। “ये कौन है?” किसी ने कहा। “सीधा बोल रहा है।” किसी ने फुसफुसाया।
आरती ने आदित्य को देखा। चेहरा साधारण था, लेकिन आंखों में सच्चाई झलक रही थी। उसने मां और पिता की ओर देखा। दोनों की आंखों में चिंता भी थी और राहत भी।
आरती ने धीरे से कहा—
“अभी जवाब नहीं दूंगी। पहले समझना चाहती हूं कि तुम कौन हो और क्या सोचते हो।”
आदित्य मुस्कुराया—
“ठीक है। दबाव में नहीं, समझदारी से फैसला होना चाहिए।”
आदित्य का घर
अगले दिन आरती, मां और पिता आदित्य के घर पहुंचे। मोहल्ले की संकरी गली, उखड़ी हुई नीली दीवारें और छोटा-सा आंगन। घर में सिर्फ दो कमरे थे। एक में आदित्य के माता-पिता रहते थे और दूसरा उसका अपना था।
आदित्य की मां ने स्वागत करते हुए कहा—
“आइए, हमारे घर आए हमें बहुत खुशी है।”
कमरा साधारण था—लकड़ी की पुरानी अलमारी, एक मेज जिस पर किताबें ढेर लगी थीं और दीवार पर भगवान की छोटी सी तस्वीर।
देवेंद्र जी ने चारों तरफ देखा और गहरी सांस लेकर बोले—
“बेटा, तुम्हारे पास बहुत कुछ नहीं है, लेकिन ईमानदारी साफ झलकती है।”
आदित्य ने हंसते हुए कहा—
“अंकल, मेरे पास दौलत नहीं है, लेकिन मेहनत है। जिंदगी हम दोनों की मेहनत से आगे बढ़ेगी।”
आरती चुपचाप सब देख रही थी। उसके मन में सवाल थे—क्या वह इस साधारण घर में रह पाएगी? क्या इतनी मुश्किल जिंदगी झेल पाएगी? तभी आदित्य की मां ने उसका हाथ थाम लिया और कहा—
“बिटिया, हमारे पास ज्यादा नहीं है, लेकिन हम तुम्हें बहू नहीं, बेटी मानेंगे।”
आरती की आंखें भर आईं। उसने मन ही मन सोचा—“कल मंडप में मुझे खरीदा जा रहा था, और आज यहां मुझे अपनाया जा रहा है।”
साधारण शादी
कुछ ही दिनों बाद आरती और आदित्य की शादी तय हो गई। ना बैंड-बाजा, ना बड़ी बारात। बस मोहल्ले के मंदिर में परिवार और कुछ पड़ोसी।
आरती ने साधारण लाल साड़ी पहनी, माथे पर हल्का सिंदूर और गले में छोटी-सी माला। आदित्य सफेद कुर्ता-पायजामा पहने वहां मौजूद था।
पंडित जी ने मंत्रोच्चारण किया। देवेंद्र और उनकी पत्नी की आंखों से आंसू बह रहे थे—लेकिन इस बार राहत और गर्व के।
सात फेरे पूरे होने पर आदित्य ने सास-ससुर के सामने हाथ जोड़कर कहा—
“आज से आपकी बेटी मेरी भी जिम्मेदारी है। मैं उसे कभी अकेला नहीं छोड़ूंगा।”
मां ने बेटे की तरह उसका माथा छुआ और देवेंद्र जी ने कहा—
“बेटा, दहेज तो हम नहीं दे सकते, लेकिन दुआएं जरूर देंगे।”
नया जीवन
शादी के बाद आरती आदित्य के छोटे से घर आ गई। शुरुआत आसान नहीं थी। घर में पैसे कम थे, जरूरतें ज्यादा। कभी दूध आधा लेना पड़ता, कभी सस्ती सब्जी। बरसात में छत टपकती थी। मोहल्ले वाले ताने मारते—
“देखो, कार छोड़कर अब रिक्शे में जा रही है।”
लेकिन आरती मुस्कुरा कर सब सह लेती। उसे लगता—“दिखावे वाले सुख से अच्छा है सच्चा साथी।”
धीरे-धीरे उसने मोहल्ले के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पांच से बढ़कर पंद्रह बच्चे आने लगे। आदित्य भी लाइब्रेरी में मेहनत से काम करता रहा।
एक दिन खुशखबरी आई। आदित्य को प्रमोशन मिला और तनख्वाह बढ़ गई। आरती ने कहा—
“देखा, मैंने कहा था ना, मेहनत और ईमानदारी कभी बेकार नहीं जाती।”
संघर्ष से सफलता तक
आदित्य ने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दी। रात-रात भर पढ़ता, आरती उसके लिए चाय और खाना रख देती।
आखिर एक दिन डाकिया बड़ा लिफाफा लाया। आदित्य ने कांपते हाथों से उसे खोला। उसमें नियुक्ति पत्र था—वह अफसर बन गया था।
आरती की आंखें नम हो गईं। उसने हाथ जोड़कर भगवान का धन्यवाद किया। अब मोहल्ले का नजरिया बदल गया। जो लोग कभी ताने मारते थे, वही अब तारीफ करने लगे।
शहर के अखबारों में खबर छपी—
“गरीब परिवार का बेटा अफसर बना, पत्नी ने मुश्किल हालात में दिया साथ।”
आरती ने अखबार देखकर कहा—
“अब सबको समझ आ गया होगा कि शादी दहेज से नहीं, भरोसे से टिकती है।”
मिसाल बन गई जिंदगी
आदित्य अब बड़ा अफसर था। सरकारी गाड़ी दरवाजे पर आती, लोग सलाम करते। लेकिन घर का माहौल वही सादा था—मेहनत, सच्चाई और अपनापन।
आरती अब भी मोहल्ले के बच्चों को पढ़ाती थी। लड़कियां उससे कहतीं—
“दीदी, हम भी आपकी तरह अपनी इज्जत के लिए खड़े होंगे।”
आरती मुस्कुरा कर कहती—
“याद रखना, आत्मसम्मान से बड़ा दहेज कोई नहीं।”
देवेंद्र जी जब बाजार जाते, लोग उन्हें सम्मान से सलाम करते—
“देखिए, यही हैं आरती के पिताजी, जिनकी बेटी ने मंडप में हिम्मत दिखाई थी।”
मां आंगन में बैठकर सोचतीं—“अगर उस दिन आरती डर जाती, तो शायद आज यह दिन कभी नहीं देख पाते।”
एक शाम आदित्य ऑफिस से लौटा। गेट पर आरती खड़ी थी। उसने मुस्कुराकर कहा—
“याद है, आदित्य? उस दिन मंडप में सब ताने मार रहे थे, और आज वही लोग हमारी मिसाल देते हैं।”
आदित्य ने उसकी आंखों में देखते हुए कहा—
“हां, आरती। क्योंकि तुमने उस दिन आत्मसम्मान चुना था। और आत्मसम्मान पर टिका रिश्ता कभी हारता नहीं।”
आरती ने आसमान की ओर देखा। सितारे चमक रहे थे। उसके मन में एक ही बात गूंज रही थी—
“शादी का असली आधार दहेज नहीं, भरोसा और आत्मसम्मान है।”
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