नई दिल्ली के वसंत विहार में फैला हुआ विशाल बंगला हर शाम चमचमाती रोशनी से जगमगा उठता था। बाहर खड़ी लग्ज़री कारों और भीतर फैले सन्नाटे के बीच यह घर मानो एक ठंडी हवेली जैसा लगता था – जहाँ सब कुछ था, पर जीवन की असली गर्माहट कहीं गुम थी। इस घर का मालिक था – रजत मेहरा, देश का एक युवा और सफल अरबपति।

रजत के पास सब कुछ था – दौलत, शोहरत, बिज़नेस साम्राज्य। लेकिन उसके जीवन में एक ऐसी कमी थी जिसे कोई पैसा पूरा नहीं कर सकता था: अपने बेटे आरव की मुस्कान। छह साल का मासूम आरव, जिसकी आँखें सितारों की तरह चमकती थीं, मगर जिसके पैर बचपन की एक दुर्घटना में कमज़ोर हो गए थे। वह कभी सामान्य बच्चों की तरह दौड़-भाग नहीं सका। रजत ने बड़े से बड़े डॉक्टर, महंगे से महंगे अस्पताल दिखाए, पर नतीजा वही – निराशा।

उस दिन, किस्मत ने कुछ अलग ही तय किया था। रजत की सिंगापुर की फ्लाइट अचानक रद्द हो गई। आमतौर पर वह देर रात घर लौटता था, लेकिन इस बार उसने सोचा – “चलो, आज आरव को सरप्राइज़ दिया जाए।”

वह जैसे ही घर पहुँचा, चारों तरफ़ शांति थी। पर ऊपर से हँसी और तालियों की आवाज़ आ रही थी। यह आवाज़ आरव की देखभाल करने वाली नौकरानी आशा की थी। तीस साल की साधारण महिला, सीधी-सादी साड़ी में, गाँव की बोली लिए हुए। रजत ने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया था, बस एक मामूली कामवाली समझा था।

धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ते हुए रजत के कानों में वह आवाज़ गूँज रही थी –
“चलो बेटा, बस एक कदम और! हाँ, बहुत अच्छा… देखो, तुम कर सकते हो!”

दरवाज़े की दरार से झाँकते ही रजत के कदम जम गए। सामने का दृश्य उसकी आँखों को नम कर गया।

आरव ज़मीन पर बिछी एक साधारण चटाई पर खड़ा था। उसके पैर काँप रहे थे, पसीना उसके चेहरे पर बह रहा था। और आशा – दोनों हाथों से उसका सहारा बने हुए थी। हर बार जब आरव लड़खड़ाता, आशा उसे थाम लेती और फिर हिम्मत देती। छोटे-छोटे कदम उठाने की कोशिश में आरव का चेहरा खुशी से दमक रहा था।

रजत के मन में तूफ़ान उमड़ पड़ा। वर्षों से करोड़ों खर्च करने के बाद भी जो नतीजा नहीं मिला, वह आज एक साधारण महिला के धैर्य और प्यार से मुमकिन हो रहा था। उसके गले में हूक सी उठी – एक पिता की, जिसने कभी बेटे को इतना समय नहीं दिया।

उसने तुरंत दरवाज़ा खोला। आशा सकपका गई और पीछे हटने लगी। पर रजत ने हाथ उठाकर रोक दिया –
“नहीं, मत रुकना… मैं देखना चाहता हूँ।”

आरव ने पिता को देखकर चिल्लाकर कहा –
“पापा! देखो, मैं चल सकता हूँ! आशा-दीदी ने मुझे सिखाया है!”

ये शब्द रजत के दिल में तीर की तरह चुभे। वह घुटनों के बल बैठ गया और बेटे को सीने से लगा लिया। उसकी आँखें भर आईं।

कुछ पल बाद उसने आशा से पूछा –
“तुमने यह कैसे किया? इतने सालों में कोई डॉक्टर उसे खड़ा नहीं कर पाया…”

आशा ने धीमी आवाज़ में कहा –
“साहब, गाँव में मेरा एक भतीजा पोलियो से अपंग हो गया था। पैसे नहीं थे, तो पूरे परिवार ने बारी-बारी से उसे रोज़ खड़ा करने की कोशिश की। धीरे-धीरे वह अपने पैरों पर खड़ा होने लगा। तभी मुझे यक़ीन हुआ कि मेहनत और हिम्मत से चमत्कार हो सकते हैं। आरव तो और भी मज़बूत है। बस उसे रोज़ धैर्य और प्यार चाहिए।”

रजत सन्न रह गया। उसे लगा मानो किसी ने उसके सामने आईना रख दिया हो। उसने हमेशा सोचा था कि पैसे से हर समस्या का हल निकल सकता है। पर यहाँ, उसके सामने, एक साधारण औरत अपने प्यार और लगन से वह कर रही थी जो उसकी दौलत नहीं कर सकी।

उस दिन से रजत बदल गया। उसने अपने बिज़नेस शेड्यूल को बदला, कई पार्टियों और मीटिंग्स रद्द कर दीं। अब हर शाम वह घर पर होता, बेटे के अभ्यास का हिस्सा बनता। शुरुआत में उसके हाथ काँपते, वह अनाड़ी था। पर हर बार जब आरव मुस्कुराकर कहता – “पापा, एक और कदम!” – तो रजत का दिल ख़ुशी से भर जाता।

धीरे-धीरे आरव के कदम मज़बूत होने लगे। कभी-कभी वह बिना सहारे कुछ सेकंड तक खड़ा रह पाता। रजत के लिए यह किसी अरबों के कॉन्ट्रैक्ट से भी बड़ी सफलता थी।

आशा अब भी वही रही – शांत, सादगी से भरी। वह किसी इनाम की हक़दार नहीं बनना चाहती थी। लेकिन रजत की नज़रों में अब वह सिर्फ़ एक नौकरानी नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा थी।

एक रात, खाने की मेज़ पर रजत ने गिलास उठाया और गंभीरता से बोला –
“आशा, मैं तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ। सिर्फ़ आरव की मदद के लिए नहीं, बल्कि मेरी आँखें खोलने के लिए भी। तुमने मुझे सिखाया कि असली रिश्ते और खुशियाँ पैसे से नहीं, धैर्य और प्यार से बनते हैं।”

आशा मुस्कुराई और बोली –
“साहब, मैं तो बस वही कर रही हूँ जो एक इंसान को करना चाहिए। असली दौलत तो बच्चों की हँसी है।”

उस पल बंगले का माहौल बदल गया। जहाँ पहले ठंडा सन्नाटा होता था, वहाँ अब आरव की खिलखिलाहट गूँजती थी। घर एक सच्चे आशियाने में बदल गया।

कुछ महीनों बाद, एक सुबह धूप में नहाई दिल्ली की हवा में, आरव काँपते पैरों से कुछ और कदम चला और पिता की बाहों में गिर पड़ा। उसने हँसते हुए कहा –
“पापा, देखो! अब मैं सच में चल सकता हूँ।”

रजत ने उसे कसकर गले लगा लिया। आँसू बह निकले, पर इस बार वे दुःख के नहीं थे, बल्कि एक पिता की जीत के थे।

और उसी पल, रजत ने महसूस किया – उसकी अरबों की दौलत कहीं न कहीं महत्व रखती होगी, पर उसके बेटे की यह मुस्कान, यह छोटा सा चमत्कार – दुनिया की सबसे बड़ी संपत्ति थी।