पति को बेसहारा छोड़ गई पत्नी, पर ऊपरवाले ने थाम लिया हाथ!

लखनऊ के पुराने मोहल्ले में एक छोटा सा घर था, जिसकी पहचान वहां से आती चंदन और सागोन की खुशबू से थी। यह घर था विपिन का, एक कुशल कारीगर जिसका हुनर उसकी पहचान था। विपिन के हाथों में जादू था; जब वह छेनी और हथौड़ी पकड़ता, तो बेजान लकड़ी के टुकड़े भी जीवन से भर जाते। वह नाचते हुए मोर और करुणा से भरी गौतम बुद्ध की प्रतिमा बनाता। विपिन की कला उसकी आत्मा का आईना थी।

विपिन की दुनिया छोटी और खूबसूरत थी। उसकी पत्नी सारिका, जो बड़े शहरों के सपने देखती थी, और उनकी छह साल की बेटी मायरा, जिसकी खिलखिलाहट में विपिन की पूरी कायनात बसती थी। विपिन सुबह से शाम अपनी वर्कशॉप में काम करता, जहां लकड़ी के बुरादे की महक और औजारों की ठकठक उसकी दिनचर्या का हिस्सा थे। कभी-कभी, मायरा दौड़कर आती और पूछती, “पापा, यह चिड़िया कब उड़ेगी?” यही उसके जीवन का सबसे हसीन संगीत था।

सारिका अक्सर कहती, “विपिन, कब तक इस छोटी सी दुकान में बैठे रहोगे? तुम्हारे हुनर की कीमत इन गलियों में नहीं है, बड़े-बड़े शोरूम तुम्हें पहचान सकते हैं। चलो, दिल्ली या मुंबई चलते हैं।” लेकिन विपिन मुस्कुराकर कहता, “सारिका, सुकून यहां है। अगर मैं अपनी कला को दौलत से तौलने लगूंगा, तो यह हाथ कांपने लगेंगे।” सारिका की आंखों में बसी चमक विपिन की सादगी को नहीं समझ पाती थी।

फिर एक दिन वक्त ने ऐसी करवट ली कि सब कुछ बिखर गया। वर्कशॉप में काम करते हुए एक भारी मशीन का हिस्सा विपिन के दाहिने हाथ पर गिर गया। जब उसे होश आया, तो वह अस्पताल के बिस्तर पर था। डॉक्टर ने कहा, “चोट बहुत गहरी है। हाथ काम तो करेगा, पर पहले जैसी पकड़ और ताकत शायद कभी वापस नहीं आएगी।” एक पल में विपिन कारीगर से मरीज बन गया। वह गिलास पानी पकड़ने में भी कांपने लगा।

घर लौटकर, जब उसने अपनी वर्कशॉप का दरवाजा खोला, तो औजार उसे देखकर जैसे मजाक उड़ा रहे थे। वही छेनी अब पत्थर की तरह भारी लग रही थी। लकड़ी की खुशबू अब उसे सुकून नहीं, बल्कि उसकी बेबसी का एहसास दिलाती थी। शुरुआती कुछ हफ्ते सहानुभूति में बीते; रिश्तेदार आते, अफसोस जताते और चले जाते। लेकिन असली तूफान तो अभी आना बाकी था। सारिका का सब्र अब जवाब दे रहा था। उसकी आंखों से सपने टूटने की हताशा साफ झलकती थी।

घर में अब मायरा की खिलखिलाहट नहीं, बल्कि सारिका की शिकायतों और तानों की गूंज सुनाई देती थी। “कैसे चलेगा घर? सारी जमापूंजी तुम्हारे इलाज में लग गई। अब क्या भीख मांगेंगे?” विपिन चुपचाप सब सुनता रहता। शारीरिक चोट से ज्यादा तकलीफ उसे सारिका के बदलते व्यवहार से होती थी।

एक सुबह, विपिन जब सोकर उठा, तो घर में अजीब सी खामोशी थी। सारिका कहीं नजर नहीं आ रही थी। मायरा भी अपने बिस्तर पर नहीं थी। घबरा कर उसने मेज पर एक छोटा सा खत देखा। कांपते हाथों से उसने खत खोला। सारिका ने लिखा था कि वह उसे और उसकी टूटी हुई किस्मत को छोड़कर जा चुकी थी। उसने कहा कि वह ऐसे बोझ के साथ अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं कर सकती।

विपिन के पैरों तले जमीन खिसक गई। वह भागा अलमारी की तरफ गया, लेकिन जो थोड़े बहुत गहने और पैसे थे, सब गायब थे। बैंक पासबुक देखी तो अकाउंट खाली था। सारिका ना सिर्फ उसे छोड़कर गई थी, बल्कि उसे पूरी तरह से कंगाल और बेसहारा कर गई थी। लेकिन उसके लिए सबसे बड़ा सदमा यह था कि वह अपनी बेटी मायरा को भी साथ ले गई थी।

वह चीखना चाहता था, रोना चाहता था, पर आवाज जैसे हलक में ही जम गई थी। उसका घर, उसकी दुनिया, सब कुछ एक ही झटके में खाक हो गया था। वह बेतहाशा घर से बाहर भागा, गलियों में, बाजार में, हर उस जगह जहां सारिका जा सकती थी। वह पागलों की तरह लोगों से पूछता रहा, “क्या आपने एक औरत को एक छोटी बच्ची के साथ देखा है?” पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था।

शाम ढल गई, अंधेरा गहराने लगा। विपिन थक हार कर घर लौटा। खाली घर उसे खाने को दौड़ रहा था। वर्कशॉप के कोने में लकड़ी की एक अधूरी चिड़िया पड़ी थी, जिसे मायरा ने उड़ाने की जिद की थी। उसे देखकर विपिन टूट गया। वह जमीन पर बैठकर किसी बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगा। उसे अपनी चोट का दर्द, अपना अधूरा हुनर सब भूल गया था।

रात के अंधेरे में जब उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी, तभी दरवाजे पर एक हल्की सी दस्तक हुई। विपिन ने सोचा शायद कोई पड़ोसी होगा। उसने हिम्मत जुटाकर दरवाजा खोला। सामने एक पुलिस वाला खड़ा था और उसके पीछे सहमी डरी हुई रोती हुई मायरा खड़ी थी।

विपिन उसे देखते ही दौड़कर उससे लिपट गया। “मेरी बच्ची, तुम कहां थी?” पुलिस वाले ने बताया कि उन्हें मायरा बस स्टॉप पर अकेले रोती हुई मिली थी। सारिका उसे वहीं छोड़कर किसी बस में बैठकर चली गई थी। यह सुनकर विपिन के अंदर का बचा खुचा विश्वास भी टूट गया।

विपिन ने उस रात अपनी बेटी को सीने से लगाए बस यही सोचता रहा। वह टूट चुका था, कंगाल हो चुका था, पर अब उसके पास जीने की एक वजह थी। मायरा, उसकी बेटी जिसे उसकी जरूरत थी। उसने अपनी बेटी के माथे को चूमा और अपने बेजान हाथ की तरफ देखा।

रास्ता अंधेरा और मुश्किलों भरा था। उसे नहीं पता था कि वह कल सुबह मायरा के लिए दूध का इंतजाम भी कैसे करेगा। लेकिन उस रात, जब पूरी दुनिया सो रही थी, विपिन ने एक ऐसा फैसला लिया जो उसकी और मायरा की जिंदगी हमेशा के लिए बदलने वाला था।

सुबह की पहली किरण के साथ उस पर अमल करने का वक्त आ गया था। मायरा उसके सीने पर सिर रखे सुकून से सो रही थी, बेखबर कि उसके पिता ने बीती रात खुद से कितनी बड़ी जंग लड़ी थी। घर में खाने को कुछ नहीं था, सिवाय मुट्ठी भर चावल के।

विपिन ने मायरा को धीरे से बिस्तर पर लिटाया और अपनी वर्कशॉप का दरवाजा खोला। हवा में वही पुरानी चंदन और सागोन की महक थी। लेकिन आज विपिन ने उसे एक नए नजरिए से महसूस किया। उसने अपने औजारों को देखा जो महीनों से धूल खा रहे थे। फिर उसने अपने दाहिने हाथ को देखा जो अभी भी कमजोर और बेजान था और आखिर में उसने अपने बाएं हाथ को देखा।

उसने लकड़ी का एक छोटा हल्का टुकड़ा उठाया और उसे वाइस में कस दिया। फिर उसने सबसे छोटी और हल्की छेनी अपने बाएं हाथ में पकड़ी। हाथ कांप रहा था। उंगलियों को औजार पकड़ने की आदत नहीं थी। उसने हथौड़ी से एक हल्की चोट की लेकिन छेनी फिसल गई और लकड़ी पर एक बेढंगा निशान छोड़ गई।

उसने फिर कोशिश की। इस बार चोट थोड़ी बेहतर लगी पर नतीजा वही था। घंटों बीत गए। पसीना माथे से बहकर आंखों में जा रहा था। पर विपिन लगा रहा। हर गलत चोट, हर फिसलता औजार, उसके सब्र का इम्तिहान ले रहा था। कई बार गुस्से और बेबसी में उसकी आंखों में आंसू आ गए।

तभी वर्कशॉप के दरवाजे पर मायरा आ खड़ी हुई। उसने अपने छोटे-छोटे हाथों में एक कागज पकड़ रखा था। जिस पर उसने टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों से एक सूरज और एक मुस्कुराता हुआ चेहरा बनाया था। “पापा, देखो आप और मैं।”

विपिन ने उस तस्वीर को देखा और फिर अपनी बेटी के मासूम चेहरे को। उस एक पल में उसकी सारी हताशा, सारा गुस्सा पिघल गया। उसे याद आया कि वह यह सब क्यों कर रहा है। यह सिर्फ लकड़ी का एक टुकड़ा नहीं था। यह उसकी बेटी का भविष्य था।

उसने मायरा को गोद में उठाया, उसे प्यार किया और एक नई हिम्मत के साथ वापस काम पर लग गया। अब उसका लक्ष्य बड़ा नहीं था। वह कोई मूर्ति या कलाकृति नहीं बना रहा था। वह बस अपने हाथ को साधना चाहता था।

दिन गुजर रहे थे। घर में रखा चावल खत्म हो रहा था। विपिन की चिंता बढ़ती जा रही थी। एक दोपहर जब वह पूरी तरह थक कर अपनी वर्कशॉप के बाहर बैठा था, तभी पड़ोस के चाय वाले रहीम चाचा आए।

रहीम चाचा ने विपिन के बाएं हाथ को देखा, जिस पर कई खरोचे और निशान पड़ गए थे। उन्होंने कहा, “विपिन, जब सीधा हाथ थक जाए तो उल्टे हाथ से काम लेना पड़ता है। वक्त भी तो ऐसा ही होता है। कभी सीधा चलता है, कभी उल्टा। पर चलना बंद तो नहीं करता ना? हिम्मत मत हार। हाथ बदला है, हुनर नहीं। वह तो तेरी रूह में है।”

रहीम चाचा उस दिन से रोज सुबह शाम विपिन और मायरा के लिए खाना और चाय लाने लगे। उन्होंने मोहल्ले के परचून वाले से कहकर विपिन के घर महीने भर का राशन भी भिजवा दिया।

इस बिन मांगी मदद ने विपिन को अंदर तक छू लिया। उसे लगा कि दुनिया में अभी भी इंसानियत जिंदा है। रहीम चाचा की बातों और मोहल्ले वालों के छोटे-छोटे सहयोग ने विपिन में एक नई ऊर्जा भर दी।

अब वह दोगुनी मेहनत से काम करता। रात में जब मायरा सो जाती, तो वह लैंप की रोशनी में लकड़ी के टुकड़ों से जूझता रहता। धीरे-धीरे हफ्तों की मशक्कत के बाद उसके बाएं हाथ की पकड़ मजबूत होने लगी।

उंगलियों को औजारों की आदत पड़ने लगी। अब छेनी फिसलती कम थी और लकड़ी पर निशान भी ज्यादा सधे हुए लगते थे। एक दिन मायरा ने एक खिलौने की दुकान की तरफ इशारा करके कहा, “पापा, मुझे वह लकड़ी की चिड़िया चाहिए।”

विपिन ने दुकान में सजी उस मशीन से बनी बेजान चिड़िया को देखा और फिर अपनी बेटी के मायूस चेहरे को। उस रात उसने अपनी वर्कशॉप में बैठकर एक छोटा सा लकड़ी का टुकड़ा उठाया। उसने अपनी पूरी आत्मा, पूरी शिद्दत उस काम में झोंक दी।

रात भर हथौड़ी और छेनी की धीमी-धीमी आवाज आती रही। सुबह जब मायरा सोकर उठी, तो उसके सिरहाने एक छोटी सी खूबसूरत लकड़ी की चिड़िया रखी थी। वह परफेक्ट नहीं थी। उसकी बनावट थोड़ी खुरदुरी थी।

उसके पंख थोड़े टेढ़े-मेढ़े थे। पर उसे हाथ में लेते ही ऐसा लगता था जैसे उसमें जान हो। उस चिड़िया की आंखों में एक चमक थी। एक कहानी थी। एक पिता के संघर्ष और प्यार की कहानी।

मायरा उस चिड़िया को पाकर इतनी खुश हुई जितनी वह आज तक किसी खिलौने से नहीं हुई थी। वह पूरे मोहल्ले में अपनी पापा वाली चिड़िया को दिखाती फिरी।

उस छोटी सी चिड़िया ने जैसे विपिन के लिए बंद दरवाजे खोल दिए। मोहल्ले के दूसरे बच्चों ने जब मायरा के हाथ में वो अनोखा खिलौना देखा, तो वे भी अपने माता-पिता से वैसी ही जिद करने लगे।

जल्द ही विपिन के पास छोटे-छोटे खिलौने जैसे गाड़ियां, जानवर और लट्टू बनाने के आर्डर आने लगे। उसकी पुरानी कला की तरह इसमें बारीकी और नफासत तो नहीं थी, पर एक सादगी और सच्चाई थी जो लोगों के दिलों को छू जाती थी।

विपिन की छोटी सी दुनिया फिर से बसने लगी थी। वर्कशॉप से अब फिर औजारों की आवाज आने लगी थी। घर में मायरा की खिलखिलाहट गूंजने लगी थी। उसने रहीम चाचा और परचून वाले के पैसे चुका दिए थे। अब वह अपनी बेटी के लिए हर रोज दूध ला सकता था।

उसे अब किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं थी। उसके बाएं हाथ ने ना सिर्फ उसे, बल्कि उसकी उम्मीदों को भी थाम लिया था।

एक शाम, जब विपिन अपनी वर्कशॉप बंद कर रहा था, एक कार उसके दरवाजे पर आकर रुकी। उसमें से एक पढ़ी-लिखी, शालीन सी महिला उतरी, जो शहर के सबसे बड़े स्कूल की प्रिंसिपल थी।

उन्होंने विपिन के नए हाथ से बने खिलौनों को देखा और फिर उससे कहा, “विपिन जी, मैंने आपके पुराने काम ही देखे हैं और अब यह भी देख रही हूं। हमारे स्कूल को अपनी नई प्ले स्कूल विंग के लिए हाथ से बने सुरक्षित और सीखने में मदद करने वाले 100 खिलौनों का सेट चाहिए। क्या आप यह ऑर्डर लेंगे?”

विपिन के हाथ में पकड़ा ताला वही छूट गया। 100 खिलौनों का ऑर्डर। यह शब्द विपिन के कानों में किसी सपने की तरह गूंज रहे थे।

एक पल के लिए उसे लगा जैसे उसके कमजोर हो चुके दाहिने हाथ में भी जान आ गई हो। पर अगले ही पल हकीकत ने उसे जमीन पर ला पटका। 100 खिलौने, वह भी सिर्फ एक हाथ के सहारे और समय भी सिर्फ एक महीने का था।

यह एक पहाड़ जैसी चुनौती थी। जिसे देखकर ही किसी की हिम्मत टूट जाए। उस रात विपिन सो नहीं सका। वह अपनी वर्कशॉप में बैठा उस ऑर्डर के कागज को देखता रहा।

एक तरफ खुशी थी कि किस्मत उसे एक मौका दे रही थी। दूसरी तरफ डर था कि कहीं वह इस मौके को गवा ना दे। तभी मायरा नींद में चलती हुई आई और उसकी गोद में बैठ गई। “पापा, क्या आप स्कूल के सब बच्चों के लिए चिड़िया बनाओगे?”

उसकी आवाज में एक मासूम सा गर्व था। विपिन ने अपनी बेटी को देखा, जिसकी आंखों में उसके लिए अटूट विश्वास था। उस विश्वास के आगे विपिन का हर डर बौना पड़ गया।

उसने फैसला कर लिया। चाहे दिन को रात बनाना पड़े, चाहे हाथ छिल जाए, वह यह काम पूरा करेगा। यह सिर्फ एक ऑर्डर नहीं था। यह उसकी और मायरा की नई जिंदगी की बुनियाद थी।

अगली सुबह से विपिन एक मशीन की तरह काम में जुट गया। उसने अपने दिन को हिस्सों में बांट लिया। सुबह लकड़ी काटना और उसे आकार देना। दोपहर में घिसाई और शाम को छोटे-छोटे हिस्सों को जोड़ना।

उसका बाया हाथ अब सद चुका था। पर 100 खिलौनों का काम एक हाथ के लिए बहुत ज्यादा था। रातें जागकर कटने लगीं। लैंप की रोशनी में वह देर रात तक काम करता जब तक कि उसकी आंखें बोझिल ना हो जातीं और हाथ जवाब ना दे देता।

वक्त रेत की तरह उसके हाथों से फिसल रहा था। दो हफ्ते बीत गए थे और अभी तक सिर्फ 30 खिलौने ही बन पाए थे। डेडलाइन पास आ रही थी और विपिन का तनाव बढ़ता जा रहा था।

उसकी आंखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गए थे और हाथ की खरोचे अब गहरे घाव बन चुकी थीं। रहीम चाचा यह सब खामोशी से देख रहे थे। वह जानते थे कि विपिन की जिद और मेहनत जितनी बड़ी है, चुनौती उससे भी कहीं ज्यादा बड़ी है।

एक शाम, जब विपिन हताश सा अपनी वर्कशॉप में बैठा था, रहीम चाचा अंदर आए। उनके पीछे मोहल्ले के कुछ और लोग भी थे। दर्जी का बेटा असलम, जो पेंटिंग अच्छी करता था, रिटायर्ड पोस्ट मास्टर गुप्ता जी, जिन्हें खाली बैठना पसंद नहीं था, और पड़ोस की दो औरतें, जो अपने घर का काम खत्म करके आई थीं।

रहीम चाचा ने विपिन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। विपिन, तू तो हमारा अपना है। हम तुझे अकेले यह जंग नहीं लड़ने देंगे।”

विपिन कुछ कह पाता, उससे पहले ही गुप्ता जी ने घिसाई वाला रेगमाल उठाते हुए कहा, “चलो भाई, हम घिसाई का काम देख लेंगे।” असलम ने रंगों का डिब्बा खोलते हुए कहा, “पेंटिंग मुझ पर छोड़ दो।”

विपिन भाई, उन औरतों ने खिलौनों को साफ करने और पैक करने की जिम्मेदारी ले ली। विपिन की आंखें भर आईं। कल तक जो लोग उसे बेचारा या पागल समझ रहे थे, आज वही लोग उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे।

उसकी छोटी सी वर्कशॉप एक त्यौहार के पंडाल जैसी लग रही थी। जहां हर कोई अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभा रहा था। कोई लकड़ी घिस रहा था, कोई रंग भर रहा था, और बच्चों की खिलखिलाहट के बीच रहीम चाचा सबके लिए चाय बना रहे थे।

उस दिन विपिन को समझ आया कि ऊपर वाले ने उसका हाथ सिर्फ उसकी बेटी और उसके हुनर के जरिए नहीं, बल्कि इस पूरे मोहल्ले के रूप में थाम रखा था। अब काम में रफ्तार आ गई।

दिनरात की सामूहिक मेहनत रंग लाई और डेडलाइन से एक दिन पहले सौ खूबसूरत हाथ से बने प्यार और मेहनत से बने खिलौने तैयार थे। हर खिलौना अपने आप में अनोखा था क्योंकि उसमें सिर्फ विपिन के नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले के हाथ और दिल का अंश जुड़ा था।

अगले दिन जब स्कूल की प्रिंसिपल खिलौने लेने आईं, तो वह उन्हें देखकर दंग रह गईं। खिलौनों की बनावट, उनकी सादगी और उनमें झलकती मेहनत ने उनका दिल जीत लिया। उन्होंने ना सिर्फ विपिन को पूरे पैसे दिए, बल्कि उसे स्कूल के साथ हमेशा के लिए जुड़ने का प्रस्ताव भी दिया ताकि वह बच्चों को लकड़ी की कला सिखा सके।

उस शाम, विपिन पहली बार महीनों बाद अपनी बेटी मायरा को लेकर बाजार घूमने निकला। उसने मायरा के लिए नई फ्रॉक खरीदी, अपने लिए नए कुर्ते और ढेर सारी मिठाइयां। बाप-बेटी हंसते-खिलखिलाते घर लौट रहे थे।

विपिन को लग रहा था जैसे जिंदगी फिर से पटरी पर लौट आई है। तभी रास्ते में उसे एक जानी पहचानी, पर मैली कुचली सी सूरत दिखी। वह सारिका थी। उसके कीमती कपड़े पुराने और गंदे हो चुके थे। आंखों के सपने बुझ चुके थे और चेहरे पर हताशा और शर्मिंदगी की लकीरें थीं।

उसने विपिन को देखा और उसकी तरफ दौड़ी। वह उसके पैरों में गिरकर रोने लगी। “विपिन, मुझे माफ कर दो। मैं गलत थी। जिसके साथ मैं गई थी, उसने मेरे सारे पैसे और गहने छीन लिए और मुझे छोड़कर भाग गया। मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है। मुझे वापस रख लो। मैं मायरा के बिना नहीं जी सकती।”

विपिन एक पल को सन्न रह गया। जिस औरत ने उसे सबसे बुरे वक्त में तोड़कर छोड़ दिया था, आज वह खुद टूटी हुई उसके सामने खड़ी थी। मायरा अपनी मां को देखकर डर गई और कसकर विपिन के पैरों से लिपट गई।

विपिन ने नीचे झुककर मायरा को अपनी गोद में उठा लिया और उसे सीने से लगा लिया। उसने सारिका की तरफ देखा। उसकी आंखों में अब गुस्सा या नफरत नहीं, बल्कि एक अजीब सी शांति और दया थी।

उसने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और सारिका के हाथ में रखते हुए कहा, “सारिका, मैंने तुम्हें उसी दिन माफ कर दिया था। जिस दिन मैंने अपने बाएं हाथ से छेनी पकड़ना सीखा था, क्योंकि नफरत का बोझ लेकर मैं आगे नहीं बढ़ सकता था। तुम यह पैसे रखो और अपनी एक नई जिंदगी शुरू करो। पर अब इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। मेरी और मायरा की दुनिया अब पूरी हो चुकी है।”

सारिका आवा खड़ी उसे देखती रह गई। यह वह विपिन नहीं था जिसे वह छोड़कर गई थी। यह एक नया विपिन था, जो हालातों से लड़कर मजबूत बन चुका था।

विपिन अपनी बेटी को लेकर आगे बढ़ गया, बिना एक बार भी पीछे मुड़कर देखे। कुछ महीने और बीत गए। विपिन की छोटी सी वर्कशॉप अब मायरा के खिलौने के नाम से मशहूर हो चुकी थी। उसने दो नौजवानों को काम पर रख लिया था, जिन्हें वह अपना हुनर सिखा रहा था।

उसका दाहिना हाथ अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था, पर अब उसे उसकी परवाह नहीं थी। उसका बाया हाथ अब उसका गुरूर था। वह अक्सर अपनी वर्कशॉप में बैठे अपने बाएं हाथ से लकड़ी को तराशते हुए सोचता कि जिंदगी जब एक दरवाजा बंद करती है, तो सिर्फ दूसरा दरवाजा खोलते नहीं, बल्कि हमें उस दरवाजे को खुद बनाने की ताकत भी देती है।

उसका हाथ टूटा था पर हौसला नहीं। और जिस इंसान का हौसला जिंदा हो, उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं हरा सकती।

समाप्त

यह थी विपिन की कहानी, टूटने और फिर से जुड़ने की कहानी। अगर इस कहानी ने आपके दिल को छूआ हो, तो इसे लाइक करें। अपने अपनों के साथ शेयर करें और हमारे चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें ताकि हम आप तक ऐसी ही और कहानियां पहुंचाते रहें।

अब हम आपसे एक सवाल पूछना चाहते हैं। विपिन ने सारिका को माफ तो कर दिया, पर अपनी जिंदगी में दोबारा शामिल नहीं किया। आपके हिसाब से क्या उसका यह फैसला सही था? हमें कमेंट्स में बताइए। क्या सच्ची माफी का मतलब हमेशा दूसरा मौका देना होता है, या कभी-कभी माफ करके आगे बढ़ जाना ही सबसे बेहतर होता है?

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