पति रोज़ सुबह घर से निकलता था, पत्नी ने एक दिन पीछा किया, जो देखा, पैरों तले ज़मीन खिसक गई.

दोस्तों, कभी-कभी सबसे बड़े राज हमारे अपने ही घर में छुपे होते हैं और हमें पता भी नहीं चलता। जयपुर के एक आम से मोहल्ले में रहने वाला राजेश हर सुबह चुपके से उठकर रात के खाने में बच्ची ठंडी रोटियां खाता था और फिर दफ्तर जाने के बहाने घर से जल्दी निकल जाता था। किसी को नहीं पता था कि वह ऐसा क्यों करता है और कहां जाता है। हर दिन ऐसा करते देखकर उसकी पत्नी दिव्या को उस पर शक हो गया। पति को पकड़ने के लिए एक दिन उसने राजेश का पीछा किया और जो उसने देखा उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। सच जानने के लिए कहानी को आखिर तक जरूर देखें।

राजेश का जीवन

जयपुर के एक सामान्य मोहल्ले की तंग और अंधेरी गलियों में जहां सूरज की गर्मी भी दीवारों से शर्मा कर निकलती थी, राजेश का जीवन घड़ी के कांटे की तरह बंधा हुआ था। उसका दिन किसी भी आम इंसान से बहुत पहले शुरू हो जाता था। ठीक उस समय जब दुनिया सपनों की चादर ओढ़े सोई रहती थी। यह वो क्षण होते थे जब उसकी पत्नी दिव्या और 8 साल का बेटा आर्यन जो अभी मासूमियत की वादी में बेखबर सोया हुआ था, गहरी नींद की गोद में होते।

राजेश एक फर्नीचर बनाने वाली फैक्ट्री में क्लर्क था और अपनी दुनिया एक खास तरह की खामोशी और सावधानी में जीता था। सुबह जल्दी राजेश बिस्तर से उठता तो किसी को हल्की सी आहट भी महसूस ना होती। वह हाथ मुंह धोकर एक भी शब्द कहे बिना चुपके से रसोई की ओर बढ़ जाता। वहां का दृश्य उसके लिए रूटीन था। रात के बचे हुए बर्तन एक तरफ होते और उनके पास एक टोकरी में कपड़े से ढकी हुई रात की बनी हुई ठंडी रोटियां उसकी प्रतीक्षा कर रही होती थीं।

ठंडी रोटियों का राज

राजेश का यह कार्य एक नियम बन चुका था। वह उन ठंडी रोटियों को अचार के एक छोटे से टुकड़े या कभी-कभी नमक के साथ खा लेता। उसकी आंखों में ना कोई शिकायत होती और ना ही कोई दुख। एक अजीब तरह का संतोष उसके चेहरे पर झलकता था, मानो वह दुनिया का सबसे स्वादिष्ट नाश्ता कर रहा हो। दिव्या एक संवेदनशील और प्रेम करने वाली पत्नी थी, जो अक्सर बिस्तर पर लेटी लेकिन जाग रही होती। वह सोने का बहाना करती ताकि राजेश को अपनी शांत दुनिया में दखलंदाजी महसूस ना हो।

अपनी अध खुली आंखों से वह सब कुछ देखती। उसे समझ नहीं आता था कि क्यों राजेश, जो एक समय गरमागरम पराठों का शौकीन था, इस सूखे बेसवाद खाने को बिना किसी शिकायत के स्वीकार कर लेता है। यह विरोध दिव्या के दिल में हजारों सवालों का एक तूफान खड़ा कर देता था। शुरू में दिव्या को लगा कि शायद यह एक-दिन की बात है। हो सकता है राजेश को सुबह-सुबह भूख लगती हो।

पराठों की कोशिश

इसलिए एक दिन दिव्या सुबह जल्दी उठी और राजेश के लिए आलू के पराठे बनाए। पराठों की खुशबू सारे घर में फैल गई। दिव्या को यकीन था कि आज राजेश खुश हो जाएगा। लेकिन जब उसने पराठों की थाली राजेश के आगे रखी तो राजेश ने बस एक हल्की और साधारण सी मुस्कान के साथ उसे एक तरफ कर दिया। “दिव्या, तुम खुद खाओ। मुझे वास्तव में देर हो रही है। मैं बस यह एक ठंडी रोटी खाऊंगा। तुम आर्यन के साथ खा लेना।”

उस दिन दिव्या का दिल बैठ गया। यह सिर्फ एक पराठे की बात नहीं थी। यह उसके प्यार और ध्यान के अस्वीकार होने का एहसास था। समय का पहिया घूमता रहा। दिन, हफ्ते और फिर महीने बीत गए। राजेश की आदत स्थिर रही। उसकी इस पक्की आदत ने दिव्या के मन में चिंता और संदेह के साए गहरे कर दिए। वह रोज ताजा खाना पकाती और हर रोज राजेश उसे अनदेखा करके ठंडी रोटी को चुनता।

संदेह की परछाइयां

दिव्या सोचने लगती, “क्या वह मुझसे नाराज हैं? क्या मेरे हाथ के खाने का स्वाद बदल गया है? या सबसे ज्यादा पीड़ादायक विचार, क्या उनकी जिंदगी में कोई और आ गया है?” मोहल्ले की कुछ औरतों की कही बातें उसके कानों में गूंजने लगतीं। “अरे बहन, मर्दों का क्या है? जब वह बाहर मुंह मारने लगते हैं तो घर का खाना जहर लगता है।”

यह ख्याल एक जहरीले कांटे की तरह उसके दिल में छुपता। कहीं वह पैसा किसी और पर तो नहीं उड़ा रहे? इसीलिए घर में यह कंजूसी है। राजेश की तनख्वाह ठीक-ठाक थी। घर का गुजारा अच्छा खासा चल जाता था। लेकिन पिछले कुछ महीनों से दिव्या ने घर में अजीब सी पैसों की तंगी महसूस की थी। आर्यन ने जब एक नए स्कूल बैग की जिद की तो राजेश ने यह कहकर टाल दिया कि पुराना वाला बिल्कुल ठीक है।

किराए की चिंता

दिव्या ने जब घर के लिए नई चादरें खरीदने की बात की तो राजेश ने कहा कि फिलहाल जरूरत नहीं है, गुजारा हो जाएगा। यह सभी घटनाएं दिव्या के संदेह को और भी पक्का कर रही थीं। एक तरफ पति का ठंडी रोटी पर स्ट्रिक्ट रहना और दूसरी तरफ घर में अचानक हुई बचत। उसे पूरा यकीन होने लगा कि कोई बड़ा राज है जो राजेश छिपा रहा है।

एक दिन मकान मालिक देवेंद्र जी किराया लेने आए। राजेश फैक्ट्री जा चुका था। देवेंद्र जी ने दिव्या के सामने ही परेशानी का इज़हार किया। “मैडम, पिछले महीने भी देर हुई थी। राजेश बाबू से कहिए कि किराया समय पर दिया करें। हमें भी अपना घर चलाना है।” जब शाम को राजेश वापस आया तो दिव्या ने हिम्मत करके पूछ ही लिया, “सुनिए, घर में सब ठीक तो है? आप कुछ परेशान लग रहे हैं।”

राजेश का जवाब

राजेश ने एक गहरी सांस ली और चेहरे पर एक झूठी मुस्कान सजाकर कहा, “अरे नहीं दिव्या, कुछ नहीं। बस काम का बोझ थोड़ा ज्यादा है। तुम चिंता मत करो। सब ठीक है।” उसके इस टालने वाले अंदाज ने दिव्या के दिल में एक और घाव कर दिया। उसे महसूस हुआ कि राजेश उससे कुछ बहुत बड़ा छिपा रहा है।

उस रात दिव्या सो नहीं सकी। उसने ठान लिया कि वह अब और इस अंधेरे में नहीं रहेगी और इस रहस्य का खुलासा करके रहेगी। अगली सुबह हमेशा की तरह राजेश जल्दी उठा। उसने खामोशी से ठंडी रोटी खाई। अपना पुराना टिफिन बॉक्स लिया और फैक्ट्री के लिए निकल पड़ा। लेकिन आज दृश्य बदल चुका था।

दिव्या का पीछा

दिव्या भी तैयार हो चुकी थी और उसने सावधानी से अपने सर पर दुपट्टा ओढ़ लिया था। जैसे ही राजेश गली के मोड़ पर गायब हुआ, दिव्या ने थोड़ा फासला रखकर उसका पीछा शुरू कर दिया। उसका दिल तेज धड़क रहा था। डर और सच जानने की बेचैनी एक साथ थी। वह उम्मीद कर रही थी कि राजेश फैक्ट्री जाने वाली बस लेगा, जो शहर के उद्योग क्षेत्र की तरफ जाती थी।

लेकिन राजेश ने वह बस नहीं पकड़ी। इसके बजाय वह एक दूसरी बस में सवार हुआ जो शहर के पुराने हिस्से की तरफ जा रही थी। जहां का प्रसिद्ध महाकाल मंदिर स्थित था। फैक्ट्री की बजाय पुराना शहर देखकर दिव्या का दिल डूबने लगा। उसके मन में सबसे बुरे ख्याल आने लगे। क्या वह किसी से छिपकर मिलने जा रहा है या कोई और राज है?

मंदिर के पास

दिव्या ने तुरंत एक ऑटो रोका और ड्राइवर को उस बस का पीछा करने को कहा। उसका पूरा शरीर डर और शक से कांप रहा था। बस मंदिर के पास आकर रुकी। राजेश उतरा और भीड़ में खो गया। दिव्या ने किराया दिया और जल्दी से उसके पीछे भागी। उसने देखा कि राजेश मंदिर की मुख्य सीढ़ियों की ओर नहीं जा रहा था। इसके बजाय वह बाएं तरफ मुड़ गया।

उस हिस्से की तरफ जहां आमतौर पर कम भीड़ होती थी और जरूरतमंद और बेसहारा लोग आसरे की तलाश में बैठे होते थे। दिव्या एक बड़े स्तंभ के पीछे छिप गई। अपनी सांसों को काबू में करने की कोशिश करती हुई वह टकटकी बांधकर देख रही थी कि उसका पति क्या करता है। क्या उसका संदेह आज सच साबित होगा या यहां कोई ऐसा राज उसका इंतजार कर रहा है जो उसकी पूरी दुनिया को हिला कर रख देगा।

राजेश की सेवा

राजेश मंदिर में प्रवेश नहीं किया। वह एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे रुक गया, जहां पहले से एक लकड़ी का छोटा सा तख्ता रखा हुआ था। उसे देखकर लग रहा था कि यह जगह उसके लिए निश्चित है। दिव्या की हैरानी की कोई सीमा ना रही। जब राजेश ने तख्ते के नीचे बनी एक छोटी अलमारी का ताला खोला और उसमें से पहले एक छोटा सा गैस सिलेंडर और चूल्हा निकाला।

फिर एक बड़ा बर्तन जिसमें शायद सब्जी थी, आटे की एक छोटी बोरी, पानी की बोतल और एक तवा। यह सब क्या था? क्या वह यहां खाना बनाने आया था? और अगर हां, तो किसके लिए? दिव्या इन सवालों में उलझी हुई थी कि राजेश ने अपना काम शुरू कर दिया। वह तेजी और सफाई से काम कर रहा था। जैसे उसे इस काम का वर्षों का अनुभव हो।

भूखों की सेवा

दिव्या ने कभी राजेश को घर में एक गिलास पानी भी खुद लेकर पीते नहीं देखा था और आज वह सड़क किनारे रोटियां पका रहा था। जैसे ही तवा गर्म हुआ और पहली गर्म रोटी की खुशबू हवा में फैली, मंदिर के बाहर बैठे बेसहारा लोगों की नजरें उस ओर उठी। उनके चेहरों पर एक जानी पहचानी चमक थी। एक इंतजार जो अब खत्म होने वाला था।

एक-एक करके बुजुर्ग, लाचार, बीमार और एक जवान मां अपने छोटे बच्चे के साथ राजेश के पास आने लगे। अब दिव्या की आंखों के सामने वह महान राज खुल रहा था जिसने उसे महीनों से बेचैन कर रखा था। राजेश ने अपना टिफिन बॉक्स खोला, वही टिफिन जो दिव्या यह समझकर पैक करती थी कि यह उसके पति का दोपहर का खाना है।

अनकही सच्चाई

मगर इस टिफिन में मौजूद रोटियां और सब्जी उसने अपने लिए नहीं रखी थी। उसने टिफिन का सारा खाना एक बड़े बर्तन में उन लोगों के लिए निकाल लिया। वो ताजा गरम-गरम रोटियां सेंकता जाता और हर किसी को प्रेम और आदर से दो रोटियां और सब्जी देता जाता। दिव्या जहां खड़ी थी वहीं जम गई। उसके कानों में उसके अपने संदेह के शब्द गूंज रहे थे।

क्या यह पैसे कहीं और उड़ा रहे हैं? आंसुओं की एक गर्म लहर उसकी आंखों से बह निकली। वो किस देव तुल्य इंसान पर शक कर रही थी। वो व्यक्ति जो खुद ठंडी रोटी खा रहा था ताकि हर रोज कुछ भूखे पेट भर सके। वह व्यक्ति जो घर में इसलिए बचत कर रहा था कि वह हर रोज उन बेसहारा लोगों के लिए राशन खरीद सके।

नई शुरुआत

मकान मालिक का किराया इसलिए देर से दिया गया होगा क्योंकि उस महीने किसी बीमार बुजुर्ग की दवा पर खर्चा आया होगा। दिव्या को वह हर क्षण याद आया जब उसने राजेश को शक की निगाह से देखा था, जब उसने मन ही मन उसे कंजूस और धोखेबाज समझा था। आज उसे खुद पर घृणा आ रही थी। उसका पति कोई धोखेबाज नहीं था बल्कि एक फरिश्ता था जो खामोशी से बिना किसी दिखावे के इंसानियत की सबसे बड़ी पूजा कर रहा था।

उसके लिए सच्ची भक्ति मंदिर के अंदर नहीं बल्कि मंदिर के बाहर भूखों को खाना खिलाने में थी। राजेश सिर्फ खाना ही नहीं दे रहा था। वह हर किसी से दो पल की बात भी कर रहा था। एक बुजुर्ग को प्यार से पानी पिला रहा था। एक बच्चे के सर पर हाथ फेर कर उसे एक और रोटी का टुकड़ा दे रहा था। उसके चेहरे पर शांति और संतोष था। जो दिव्या ने महीनों से उसके चेहरे पर नहीं देखा था।

संकट का सामना

दिव्या अपने आंसू पोंछकर अपने पति के पास जाने के लिए कदम बढ़ाने ही वाली थी कि तभी दो बदनाम गुंडे राजेश की तरफ आए। वह क्रोध और अकड़ में सीधे राजेश के पास पहुंचे और उसके तख्ते पर हाथ मारकर खड़े हो गए। “यहां बैठने का हफ्ता कौन देगा? यह इलाका हमारा है। रोज के ₹300 निकाल वरना यह तमाशा यहीं खत्म कर देंगे।”

राजेश ने हाथ जोड़कर बहुत नरमी से समझाने की कोशिश की। “भाई साहब, मेरे पास इतने पैसे नहीं होते। यह सब मैं अपनी तनख्वाह से बचाकर करता हूं। यह तो सेवा है, भलाई का काम है। मैं इन गरीबों से कोई पैसा नहीं लेता।” गुंडों ने उसकी बात एक कान से सुनी और दूसरे से निकाल दी। “हमें भलाई मत सिखा। पैसे देता है या यह आटे का बर्तन उठा दूं।”

दिव्या की हिम्मत

इतना कहकर उनमें से एक ने राजेश के गूंदे हुए आटे में लात मारने के लिए पैर उठाया। खंभे के पीछे छिपी दिव्या का शरीर डर और गुस्से से कांप रहा था। एक तरफ उसका पति था जो निस्वार्थ सेवा कर रहा था और दूसरी तरफ दो गुंडे जो उसकी नेकी को कुचलने पर तुले हुए थे। दिव्या के सामने एक फैसला था। क्या वह डर कर छिपी रहे या बाहर निकलकर इस तूफान का सामना करें?

बाहर निकलने का मतलब था कि राजेश का राज हमेशा के लिए खुल जाएगा। लेकिन आज उसे अपने पति पर किए गए अन्याय का प्रायश्चित करना था। गुंडे का उठा हुआ पैर हवा में ही था कि एक तेज और दृढ़ आवाज ने उसे रोक दिया। “रुक जाओ।” सबकी नजरें आवाज की दिशा में घूमी। दिव्या एक सामान्य गृहणी एक शेरनी की तरह खंभे के पीछे से बाहर निकली।

साहस का प्रदर्शन

उसके चेहरे पर डर का नामोनिशान नहीं था। उसकी आंखों में गुंडों को भी झुका देने वाली आग थी। राजेश उसे वहां देखकर हैरान रह गया। “दिव्या, तुम यहां…” वो बस इतना ही कह सका। दिव्या ने राजेश की बात को अनसुना किया और सीधी उन गुंडों के सामने खड़ी हो गई। “यह कोई धंधा नहीं है जो तुम हफ्ता वसूलोगे। यह सेवा है। तुम्हें शर्म आनी चाहिए कि तुम इन भूखे लोगों का निवाला छीनने आए हो।”

उसकी बहादुरी देखकर एक गुंडा हंसा। “कौन है तू? चल हट यहां से। आज हम पैसे लेकर ही जाएंगे।” लेकिन दिव्या अपनी जगह से 1 इंच भी नहीं हिली। उसने वहां जमा भीड़ की ओर देखा और अपनी आवाज और भी ऊंची की। “आप सब क्या देख रहे हैं? आज यह इन गरीबों पर अत्याचार कर रहे हैं। कल यह आप पर भी करेंगे। यह आदमी अपनी जेब से पैसा लगाकर इन गरीबों की सेवा करता है और यह गुंडे इससे हफ्ता मांग रहे हैं।”

समर्थन का जज्बा

दिव्या की इस निडर अपील ने खामोश दर्शकों के अंतर्मन को झझोड़ दिया। जिस बुजुर्ग महिला को राजेश ने खाना खिलाया था, वो लाठी टेकती हुई आगे आई। “यह लड़का हमारा फरिश्ता है। इसको हाथ लगाने का मतलब है बुरा समय लाना।” अब आसपास के दुकानदार भी जमा होकर राजेश का साथ देने लगे। अब माहौल बदल चुका था।

गुंडे लोगों के बढ़ते क्रोध और एकजुटता के सामने खुद को अकेला पा रहे थे। उन्हें एहसास हो गया था कि अब यहां उनकी चाल नहीं चलेगी। उन्होंने एक दूसरे को इशारा किया और बड़बड़ाते हुए धमकियां देते हुए वहां से भाग गए। “देख लेंगे तुझे बाद में।” जैसे ही गुंडे गए, सारी भीड़ ने दिव्या की हिम्मत और बहादुरी की तारीफ की।

एक नई शुरुआत

दिव्या ने सबको हाथ जोड़कर धन्यवाद किया लेकिन उसकी आंखें सिर्फ राजेश को ढूंढ रही थीं। राजेश अभी भी हैरान खड़ा था। उसके एक हाथ में बेलन था और चेहरे पर हजारों सवाल। उसकी आंखों में अपना राज खुल जाने की शर्मिंदगी थी और साथ ही अपनी पत्नी के असीम आदर का एहसास भी। दिव्या धीरे से उसके पास गई। दोनों की नजरें मिलीं। दोनों में से किसी ने एक भी शब्द नहीं कहा। खामोशी ने ही सारे जवाब दे दिए थे।

दिव्या ने राजेश के हाथ से बेलन लिया। उसे तख्ते पर रखा और फिर बिना कुछ कहे उसके साथ बैठकर रोटियां सेकने लगी। राजेश ने रोकना चाहा। “दिव्या, तुम्हें यह सब करने की जरूरत नहीं है।” दिव्या ने राजेश की आंखों में देखा। उसकी आवाज में सच्चाई और गहरा स्नेह था। “जरूरत है। आज तक आपने यह पुण्य अकेले कमाया है। अब मुझे भी इसका छोटा सा हिस्सा चाहिए और सबसे बढ़कर आपके साथ रहना है।”

सच्चे साथी

उसकी आवाज में इतनी सच्चाई और लगन थी कि राजेश कुछ बोल ना सका। उस दिन पहली बार उस छोटे से रेड़ी पर दो जोड़ी हाथ एक साथ काम कर रहे थे। बाहर खड़े लोग यह सुंदर दृश्य देखकर मुस्कुरा रहे थे। जब आखिरी भूखे व्यक्ति ने भी खाना खा लिया और आशीर्वाद देकर चला गया, तो राजेश और दिव्या ने अपना सामान समेटना शुरू किया। अब उनके बीच कोई पर्दा या भेद नहीं था।

घर वापसी पर राजेश ने हिम्मत करके पूछा, “तुम्हें पता कैसे चला?” दिव्या ने एक गहरी सांस ली और उसे अपने शक की कहानी से लेकर उसका पीछा करने तक सब कुछ सच्चाई से बता दिया। “मैं रोते हुए राजेश से माफी मांगती रही। मुझे माफ कर दीजिए। मैं कितनी नासमझ थी। मैं आप पर संदेह करती रही। जबकि आप इतना पवित्र कार्य कर रहे थे।”

नया अध्याय

उस रात कई महीनों बाद राजेश शांति की नींद सोया। उसके दिल पर से एक बहुत बड़ा बोझ उतर चुका था। अगली सुबह जब राजेश और दिव्या मंदिर के पास पहुंचे, तो कल के हादसे के बाद मोहल्ले के कई लोग और दुकानदार पहले से ही उनका इंतजार कर रहे थे। देवेंद्र जी, वही मकान मालिक जो कल तक किराए के लिए ताना मारते थे, आज आटे की एक बड़ी बोरी लेकर खड़े थे।

देवेंद्र जी ने शर्मिंदगी से सर झुकाया। “राजेश बाबू, मुझे माफ कर देना। मैं तो आपको कंजूस समझ रहा था। पर आप तो सच्चे देवता निकले। यह मेरी तरफ से एक छोटी सी भेंट है।” सब्जी वाले ने सब्जियों की टोकरी आगे कर दी और दूध वाले ने दूध का एक बड़ा डिब्बा। देखते ही देखते राजेश के छोटे से तख्ते के पास राशन का ढेर लग गया।

सामूहिक प्रयास

जो काम राजेश अकेले कर रहा था, आज वह पूरे समाज का एक सामूहिक यज्ञ बन चुका था। उस दिन पीपल के पेड़ के नीचे सिर्फ रोटियां और सब्जी नहीं बनी बल्कि दिव्या और मोहल्ले की कुछ और औरतों ने मिलकर खीर भी बनाई। 100 से भी ज्यादा भूखे लोगों ने पेट भरकर खाना खाया। उनके चेहरों पर जो संतोष और खुशी थी, वह किसी भी दौलत से बढ़कर थी।

फैक्ट्री के मालिक को जब यह बात पता चली, तो उन्होंने ना सिर्फ राजेश की तनख्वाह बढ़ा दी बल्कि उसे काम पर एक घंटे देरी से आने की अनुमति भी दे दी ताकि उसकी सेवा में कोई बाधा ना आए। राजेश और दिव्या की जिंदगी बदल चुकी थी। उनके रिश्ते में वह खामोशी और बिखराव खत्म हो गया था।

अंत में

उनका प्रेम अब गहरा, अटूट और उद्देश्यपूर्ण हो गया था। उनकी यह कहानी अब सिर्फ उनके मोहल्ले तक सीमित नहीं रही। यह इंसानियत, विश्वास और त्याग की एक ऐसी अमर मिसाल बन गई जो हर सुनने वाले को एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा देती थी।

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