पिता के जाने के बाद मजबूर लड़की ने ठेला लगाया… फिर एक अजनबी मिला और फिर जो हुआ

मेहनत अगर सच्ची हो तो ठेला भी तरक्की का पहिया बन जाता है। लखनऊ की गलियों में एक ठेले पर जहां सिर्फ पानी पूरी नहीं, उम्मीद भी परोसी जाती है। कभी लोग हंसे, कभी ताने दिए, पर उस लड़की ने ठान लिया। मेहनत को मशीन से जोड़कर चमत्कार करना है। कहते हैं अगर इरादे सच्चे हों, तो ठेला भी तरक्की का पहिया बन जाता है।

अनन्या का संघर्ष

लखनऊ की गलियों में उस दिन अजीब सी खामोशी थी। अलीगंज के पुराने मोहल्ले में वर्मा परिवार के घर से धुएं की पतली लकीर उठ रही थी। लोग धीरे-धीरे जा चुके थे। चौखट पर बस मां सरिता बैठी थी और सामने फर्श पर घुटनों में सिर दिए अनन्या। लकड़ियों की राख ठंडी हो चुकी थी। पिता अब नहीं थे। घर में उनके बूट और पुराना बैग अब भी वैसे ही रखा था जैसे वह कल ही दफ्तर गए हों। सरिता की सूखी आंखें छत की ओर टिकी थीं। शायद भगवान से नहीं, हालात से सवाल कर रही थीं।

अनन्या ने पहली बार महसूस किया कि कभी-कभी जिम्मेदारी उम्र देखकर नहीं आती, हालात देखकर आती है। रात का सन्नाटा जैसे उसके कानों में गूंज रहा था। सरिता धीरे से बोली, “बेटा, अब घर तू संभाल ले। बापू की पेंशन में गुजारा नहीं होगा।” अनन्या ने उनकी हथेली थामी। आंखों में आंसू थे। “मां, मैं कोशिश करूंगी। अब डर नहीं लगता। बस थोड़ा वक्त दे देना।”

अगले ही दिन से अनन्या शहर में नौकरी ढूंढने निकल पड़ी। कभी अलकनंदा अपार्टमेंट में इंटरव्यू, कभी हजरतगंज के किसी ऑफिस में फॉर्म भरना। लेकिन हर जगह वही जवाब। “अनुभव चाहिए। पोस्ट भर चुकी है। थोड़ा इंतजार कीजिए।” हर बार लौटते वक्त उसे लगता जैसे कोई दरवाजा नहीं, दीवारें हैं चारों तरफ। शाम को घर लौटकर जब मां पूछती कुछ बात बनी तो अनन्या बस हल्का सा मुस्कुरा देती। “अभी नहीं मां, कल जरूर।” वो झूठ बोलती थी ताकि मां की आंखों में उम्मीद जिंदा रहे।

एक नया रास्ता

दिन गुजरते गए। बची खुची जमा पूंजी दवाओं में खत्म होने लगी। घर का राशन खत्म हो चुका था। एक रात सरिता ने धीरे से कहा, “बेटा, अब तू किसी दुकान में भी काम कर ले। ठेला भी लगाना पड़े तो शर्म मत करना।” अनन्या चौकी फिर चुप हो गई। रात भर करवटें बदलती रही। कॉलेज में टॉपर रही थी वो और आज ठेले की बात पर भीतर से एक आवाज आई, “इस मेहनत से मिलती है नौकरी से नहीं।”

अगली सुबह सूरज थोड़ा फीका था लेकिन अनन्या के चेहरे पर रोशनी थी। उसने पुराने ट्रंक से पिता की घड़ी निकाल कर बोली, “अब वक्त मेरा है।” उसने अपने सारे गहने और थोड़े पैसे जोड़कर एक छोटा गोलगप्पा ठेला खरीदा। ठेले के ऊपर उसने खुद पेन से लिखा, “स्वाद अनन्या का” और नीचे छोटे अक्षरों में “प्योर, हेल्दी, होममेड।”

पहला दिन

पहला दिन था। ठेले के पास मुश्किल से पांच लोग आए। कुछ ने पानी पूरी खाई, कुछ बस देखकर आगे बढ़ गए। लेकिन शाम को जब उसने डिब्बा खोला और ₹180 गिने तो आंखों में चमक आ गई। वो भागकर मां के पास गई। “मां, आज ठेले से कमाई हुई।” सरिता की आंखों में खुशी के आंसू थे। “बेटा, आज पहली बार लगा जैसे तेरे पिता फिर से मुस्कुरा दिए।”

रात को जब सब सो गए, अनन्या छत पर अकेली बैठी थी। हवा में पुदीने की खुशबू थी जो दिनभर की थकान मिटा रही थी। आंखों से आंसू टपके पर होठों पर मुस्कान थी। “अब चाहे दुनिया हंसे, मैं पीछे नहीं हटूंगी,” उसने मन में ठान लिया। नीचे गली से बच्चों की हंसी सुनाई दी। “दीदी, कल इमली वाला पानी ज्यादा डालना।” अनन्या मुस्कुरा उठी।

तीसरा दिन था ठेले का। सुबह-सुबह अनन्या ने नींबू पानी से ठेला चमकाया। ताजे आलू उबाले और पुदीना पीसते हुए मन ही मन भगवान से कहा, “बस, आज थोड़ा अच्छा चले। मां की दवा ले आऊंगी।” दोपहर ढलते-ढलते भीड़ बढ़ने लगी। कुछ कॉलेज के लड़के आए। एक लड़की ने हंसते हुए कहा, “अरे देखो, यह तो वही है ना जो शर्मा सर की क्लास में टॉपर अब ठेला चला रही है।” उसके दोस्तों की हंसी गली में गूंज गई।

अनन्या ने हल्का सा मुस्कुरा कर कहा, “मैडम, मसाला कम या ज्यादा?” लड़की हंसी रोक ना सकी। “कम ही डालो दीदी। वरना जल जाएगा सपना भी।” लोग हंसते रहे। पर अनन्या की मुस्कान धीरे-धीरे सिकुड़ गई। पानी पूरी बांटते हुए उसकी आंखें भर आईं। लेकिन उसने चेहरा फेर लिया। भीड़ के बीच सम्मान बचाना सबसे बड़ी परीक्षा थी।

आलोचना का सामना

शाम को जब ठेला समेटा तो कमाई अच्छी नहीं हुई। घर पहुंची तो मां सरिता ने देखा बेटी का चेहरा बुझा है। “क्या हुआ बेटा?” कुछ गड़बड़? अनन्या ने धीरे से कहा, “मां, लोग हंसते हैं। कहते हैं पढ़ाई करके ठेला लगाना शर्म की बात है।” सरिता ने उसका चेहरा पकड़ कर कहा, “शर्म चोरी में होती है बेटा, मेहनत में नहीं। याद रख, जो लोग हंसते हैं वही कल ताली बजाएंगे।”

रात को बिजली चली गई थी। मिट्टी के दिए की रोशनी में अनन्या अपने ठेले की डायरी लिख रही थी। उसने लिखा, “आज कमाई कम थी पर मां की बात सुनकर हिम्मत मिली। कल और साफ पानी रखूंगी, स्वाद बदलूंगी।” यह उसकी पहली बिजनेस स्ट्रेटजी थी अनजाने में। अगले दिन उसने ठेले पर छोटी बोतल में गुलाब जल डाला। पुदीना थोड़ा कम और इमली ज्यादा। स्वाद में बदलाव आया।

नई शुरुआत

दोपहर को दो छोटे बच्चे आए। एक ने कहा, “दीदी, मिर्चा वाला दो।” दूसरा बोला, “दीदी, इमली वाला।” अनन्या मुस्कुरा उठी। “दोनों मिलेगा।” पर मुस्कान के साथ उसने कहा। बच्चे खिलखिला कर हंस पड़े। पास की बुजुर्ग अम्मा बोली, “बेटी, तेरी पूरी में स्वाद नहीं, अपनापन है।” यह बात जैसे मरहम बन गई। उसी रात अनन्या ने ठेला सजाने का नया तरीका सोचा। पुराने कपड़े से झंडिया बनाई, ढक्कन पर छोटी सी लाइट लगाई और ऊपर लिखा, “मुस्कान के साथ स्वाद अनन्या का।”

धीरे-धीरे मोहल्ले में लोग बोलने लगे, “वो अलीगंज वाली दीदी का ठेला साफ सुथरा है, मसाला हल्का है। बच्चों को भी खिलाया जा सकता है।” लेकिन हर सफलता की तरह आलोचना भी साथ आई। पास के समोसे वाले ने एक दिन ताना मारा, “इतनी पढ़ी लिखी है तो दफ्तर में क्यों नहीं बैठ जाती?” अनन्या ने सिर झुका लिया और जवाब दिया, “कभी-कभी ठेले वाला भी अपनी किस्मत खुद बनाता है।”

मां की बीमारी

उस रात मां सरिता की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई। दवा के पैसे नहीं बचे थे। अनन्या ने ठेले से कमाए ₹75 मां के तकिए के नीचे रखे और बोली, “मां, कल से सब बदल दूंगी। अब सिर्फ बेचना नहीं, कुछ नया करना है।” सरिता ने कमजोर आवाज में कहा, “बेटा, तू ठेला नहीं चला रही। तू उम्मीद चला रही है। याद रख, मेहनत बीज है। वक्त पानी है। फल देर से ही सही मिलेगा जरूर।”

उस रात अनन्या देर तक छत पर बैठी रही। लखनऊ की ठंडी हवा में मां की बात गूंज रही थी। नीचे गली में वही बच्चे फिर चिल्लाए। “दीदी, कल पुदीना वाला ज्यादा बनाना।” अनन्या ने आसमान की ओर देखा और मन में कहा, “कल से मैं सिर्फ पानी पूरी नहीं, उम्मीद भी बेचूंगी। साफ सुथरी, सच्ची और मुस्कान वाली।”

वापसी की तैयारी

अगली सुबह लखनऊ की दोपहर धीरे-धीरे शाम में बदल रही थी। अलीगंज की सड़कें कॉलेज से लौटते छात्रों और दफ्तर से आते कर्मचारियों से भरने लगी थीं। ठेले के पास वही हल्की सी भीड़ लगी थी। बच्चों की हंसी और पुदीने की महक हवा में तैर रही थी। अनन्या ने ठेले पर ताजे पानी की बाल्टी रखी। हाथ पोंछे और हंसते हुए बोली, “दीदी का स्वाद आज फिर तैयार है।”

बगल में उसका छोटा भाई आरव छुट्टी के बाद होमवर्क कर रहा था। वो बोला, “दीदी, आज भीड़ ज्यादा है। क्या हम करोड़पति बनने वाले हैं?” अनन्या हंस पड़ी। “कोड़पति नहीं, खुशदिल इंसान जरूर।” इसी भीड़ में एक नई आवाज उभरी। “एक प्लेट पानी पूरी, मिर्चा ज्यादा डालना।” अनन्या ने सिर उठाया। सामने खड़ा था एक लड़का। करीब 27 साल का, नीली शर्ट, बैग टांगे, चेहरे पर हल्की दाढ़ी और आंखों में जिज्ञासा।

अमन का आगमन

वो था अमन मेहरा। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद दिल्ली में नौकरी की थी। पर स्टार्टअप बंद होने के बाद घर लखनऊ लौट आया था। दिल से तकनीकी लेकिन स्वाद का शौकीन अमन ने पहली पूरी खाई और आंखें फैल गईं। “वाह, यह तो कमाल का स्वाद है। यह आपने बनाया है?” अनन्या मुस्कुरा कर बोली, “हां, घर का मसाला है और मेहनत का स्वाद भी।”

अमन हंस पड़ा। “फिर तो यह सिर्फ पानी पूरी नहीं, इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट है।” दोनों हंसे। पहली बार किसी ने अनन्या के ठेले को मजाक नहीं, इनोवेशन कहा था। यह बात उसके दिल में उतर गई। अमन अगले दिन फिर आया। फिर उसके अगले दिन भी। कभी कहता, “आज थोड़ा तीखा,” कभी “आज इमली वाला।” धीरे-धीरे बातें बढ़ने लगीं।

नए विचार

वो पूछता, “दीदी, आपने यह सब कैसे सीखा?” अनन्या कहती, “पढ़ाई तो कॉमर्स की है। लेकिन जिंदगी ने मार्केटिंग सिखा दी।” अमन मुस्कुराता और लगता है, “आपने कस्टमर एक्सपीरियंस भी सीख लिया है।” एक दिन जब बारिश होने लगी, ठेले के पास लोग कम आ रहे थे। अमन पास ही छतरी लेकर खड़ा हो गया। “आज बिजनेस डाउन है?” उसने पूछा।

अनन्या बोली, “हां, मौसम भीगा तो मन भी भीग गया।” अमन ने कहा, “आप चाहे तो मैं आपके ठेले का मॉडल बदल सकता हूं।” “मतलब?” अनन्या ने हैरानी से पूछा। अमन ने अपने बैग से लैपटॉप निकाला। “मैं एआई इंजीनियर हूं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जानती हैं?” “सिर्फ नाम सुना है।” “बस उतना ही काफी है। एआई यानी आवाज इंसान की, काम मशीन का। अगर हम चाहे तो आपके ठेले को स्मार्ट बना सकते हैं।”

नई तकनीक

अनन्या हंस पड़ी। “एआई और ठेला। यह तो जैसे आम में चाय मिलाना हुआ।” अमन बोला, “नहीं सोचिए, अगर एआई बता दे कि किस स्वाद की पानी पूरी सबसे ज्यादा बिकती है, तो आप पहले से तैयारी कर लें। अगर वह ट्रैक करे कि किस टाइम पर ग्राहक ज्यादा आते हैं, तो ठेले का टाइम भी फिक्स हो सकता है।” अनन्या चुप हो गई। उसकी आंखों में पहली बार किसी ने भविष्य का नक्शा दिखाया था।

“पर मुझे यह सब नहीं आता।” उसने धीरे से कहा। “सीखना मेरा काम है। मेहनत करना तुम्हारा।” अमन ने जवाब दिया। “हम दोनों साथ आए तो कुछ भी नामुमकिन नहीं।” वो रात अलग थी। घर लौटते वक्त अनन्या के दिमाग में सिर्फ एक ही वाक्य गूंज रहा था, “मेहनत तुम्हारा काम, समझाना मेरा।”

नए बदलाव

अगली सुबह अनन्या ने अपने ठेले को नए जोश से सजाया। बाल्टी के पानी में गुलाब की पंखुड़िया डाली। नींबू-मिंट का फ्लेवर तैयार किया और एक कोना खाली छोड़ा। जहां आज कुछ अलग लगने वाला था। दोपहर को अमन आया। कंधे पर लैपटॉप बैग और हाथ में एक छोटा डिजिटल स्क्रीन बॉक्स। “आज हम इतिहास बनाने वाले हैं,” उसने मुस्कुराते हुए कहा।

अनन्या ने हंसकर जवाब दिया, “इतिहास नहीं, बस पेट भरने वाली क्रांति कर लो पहले।” दोनों ने मिलकर ठेले के ऊपर स्क्रीन लगाई। अमन ने कैमरा जोड़ा। फिर अपने लैपटॉप पर कुछ बटन दबाए। कुछ ही सेकंड में स्क्रीन पर चलने लगा। “देखिए, आपकी पानी पूरी कैसे बनती है। साफ, शुद्ध और प्यार से।”

ग्राहकों की बढ़ती संख्या

वीडियो में दिख रहा था अनन्या का हाथ ताजे आलू में मसाला मिलाते हुए, फिर इमली का घोल छलकता हुआ और पुदीने का झागदार पानी बाल्टी में गिरता हुआ। पास खड़े बच्चे हैरान रह गए। “दीदी, टीवी पर आप दिख रहे हो!” “दीदी, यह आप ही हो ना?” अनन्या झेम कर मुस्कुरा दी। “हां बेटा, यहीं हूं।” और यह रहा तुम्हारा स्टार ठेला।

भीड़ में एक बुजुर्ग सज्जन बोले, “बेटी, अब तो ठेला भी मोबाइल से आगे निकल गया।” लोग रुकने लगे। फोटो लेने लगे। किसी ने कहा, “वाह, पारदर्शिता भी है और स्वाद भी।” किसी ने अपने बच्चे से कहा, “देखो, यह ठेले वाली दीदी कैसे साफ सुथरा काम करती है।” उसी दिन ठेले पर ग्राहकों की संख्या तीन गुना बढ़ गई।

सपनों की ओर बढ़ते कदम

शाम तक अनन्या के हाथ थक चुके थे। लेकिन चेहरा चमक रहा था। अमन ने नोट्स गिने और बोला, “आज की सेल रिकॉर्ड तोड़ है। देखो, सिर्फ साफ-सफाई नहीं, अब ट्रस्ट भी जुड़ गया है।” अनन्या मुस्कुरा कर बोली, “तो अब मैं ठेले वाली नहीं, एआई वाली दीदी बन गई।” अमन ने हंसते हुए कहा, “और लखनऊ अब तुम्हारा ब्रांड जानने वाला है।”

उस रात घर लौटते वक्त मां सरिता बरामदे में बैठी थी। “बेटा, आज बहुत देर हो गई।” अनन्या ने हाथ में पैसों की गड्डी रखी। “मां, आज ठेले पर भीड़ लग गई थी।” सरिता ने माथे पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। “भगवान करे, यह ठेला नहीं, तेरी तकदीर बन जाए।”

फाउंडेशन की शुरुआत

अगले कुछ हफ्तों में ठेले का नाम बदल गया। “एआई दीदी स्मार्ट पानीपुरी ठेला।” अब बच्चे कहते, “मम्मी, आज हमें टीवी वाली दीदी के ठेले पर जाना है।” कॉलेज के लड़के-लड़कियां कहते, “वह डिजिटल पानी पूरी वाला ठेला, यार वही ट्रेंडिंग है।” अमन ने ठेले के लिए डाटा कलेक्शन सिस्टम भी बना दिया।

हर दिन वो नोट करता कि कौन सा स्वाद कितनी बार बिका और किस समय भीड़ ज्यादा रही। “देखो, अनन्या,” अमन ने कहा, “3:00 बजे से 6:00 बजे तक मांग सबसे ज्यादा रहती है और इमली-नींबू स्वाद 40% ज्यादा बिक रहा है।” अनन्या ने मुस्कुरा कर कहा, “मतलब, लोगों को खट्टी जिंदगी पसंद है।”

आलोचना का सामना

लेकिन मेहनत की मिठास ज्यादा। धीरे-धीरे लोगों ने ठेले को एक मॉडल की तरह देखना शुरू कर दिया। पास के दुकानदार जो पहले ताने मारते थे, अब कहते, “दीदी, हमें भी बताओ, यह डिजिटल स्क्रीन कैसे लगाई जाती है।” अनन्या बिना किसी गर्व के मुस्कुरा कर सिखा देती, “यह ठेला मेरा अकेले का नहीं, हम सबका है।”

बुरी नजरें

एक दिन अचानक बारिश आई। ठेले पर कम लोग आए। पर जो भी आया, उसने स्क्रीन देखकर कहा, “वाह, यह तो होटल से भी ज्यादा साफ है।” अमन ने कहा, “देखा, पारदर्शिता ही सबसे बड़ा विज्ञापन है।” अब अमन और अनन्या ने ठेले को थोड़ा और आधुनिक बना दिया। क्यूआर कोड से पेमेंट शुरू किया। हर दसवीं प्लेट पर लकी पानी पूरी का ऑफर जिसमें बच्चों को छोटा गिफ्ट या मुफ्त पूरी मिलती। भीड़ और बढ़ी।

पास के दुकानदारों ने कहा, “अब तो यह लड़की हमें पीछे छोड़ देगी।” किसी ने मजाक में कहा, “अगले महीने इसका ऐप भी आ जाएगा।” और अनन्या बोली, “क्यों नहीं? अगर ठेला चल सकता है, तो सपने भी उड़ सकते हैं।”

संघर्ष का नया दौर

रात को घर लौटते वक्त मां ने पूछा, “बेटा, अब तो ठेला चल पड़ा।” अनन्या ने हल्के से कहा, “मां, अब यह ठेला नहीं, एक मिशन है।” “कैसा मिशन?” “लोगों को दिखाना कि मेहनत में तकनीक मिले तो ठेला भी तरक्की बन सकता है।” वह बोली और छत पर चली गई। नीचे सड़क पर ठेले की चमक अब भी दिखाई दे रही थी।

सपनों की उड़ान

अमन ने फोन किया। “बधाई एआई दीदी। अब मीडिया तुम तक पहुंचने वाली है।” अनन्या ने आसमान की ओर देखा। आंखों में नमी और मुस्कान साथ थी। “पापा, मैंने ठेला नहीं चलाया। आपकी सीख को ट्रेंड बना दिया।” लखनऊ की गलियों में अब एक नया नाम गूंजता था। “एआई दीदी का स्मार्ट ठेला।”

हर शाम ठेले के सामने भीड़ लगती। बच्चे चिल्लाते, “दीदी, लकी पूरी!” कॉलेज के छात्र हंसते हुए कहते, “यह है असली स्टार्टअप इंडिया।” लेकिन जैसे ही किसी की मेहनत की खुशबू फैलती है, कुछ लोगों के मन में जलन की बदबू भी उठती है।

प्रतिस्पर्धा का सामना

अलीगंज के कोने पर एक बड़ा चार्ट रेस्टोरेंट था। लखनवी स्वाद वहीं का मालिक राकेश अग्रवाल, जो बरसों से इलाके का नामी कारोबारी था, अब बेचैन रहने लगा। हर दिन उसकी दुकान पर ग्राहक घट रहे थे। और शाम को दूर खड़े बच्चे उसकी जगह एआई दीदी के ठेले की ओर दौड़ पड़ते।

एक दिन उसने अपने वेटर से कहा, “देखो, वो लड़की हमारा धंधा खा जाएगी। इतनी पढ़ी लिखी है, ठेला लगा लिया। अब हीरोइन बन रही है।” उसने अपने दो आदमियों को भेजा। शाम का वक्त था। ठेले पर भीड़ थी। वो दोनों पास आए और हंसते हुए बोले, “दीदी, आपकी पूरी में तो शायद केमिकल डाला है। तभी लोग इतने खिंच रहे हैं।” आसपास के लोग सुनने लगे। कुछ हंसे, कुछ शक में पड़ गए।

अन्याय का सामना

अनन्या ने शांति से कहा, “भैया, आप चाहे तो देख सकते हैं। यह रहा मेरा स्क्रीन। सब पारदर्शी है।” वो बोले, “दिखावा है सब, एक दिन बंद हो जाएगा,” और हंसते हुए चले गए। उस रात ठेले की कमाई आधी रह गई। कई ग्राहक बिना खाए लौट गए। अनन्या चुपचाप घर लौटी, सिर झुकाए।

मां का समर्थन

मां ने देखा, चेहरा बुझा है। “क्या हुआ बेटी?” अनन्या बोली, “लोग अब मुझ पर भरोसा नहीं कर रहे मां। कहते हैं, मैं दिखावा करती हूं।” सरिता ने उसकी आंखों में देखा। “बेटा, सच्चाई पर मिट्टी पड़ सकती है, पर सड़न नहीं लगती। कल सब साफ हो जाएगा।”

अगले दिन और बड़ा झटका लगा। किसी ने ठेले पर गंदा पानी फेंक दिया और चला गया। स्क्रीन पर कीचड़ छिटक गई। बाल्टी गिरी। ग्राहक भाग गए। अमन भागता हुआ आया। लेकिन तब तक अनन्या के हाथ कांप रहे थे। वह बस एक ही बात दोहरा रही थी, “किसी ने जानबूझकर किया है। मेरा ठेला खत्म हो गया।”

संघर्ष और समर्थन

अमन ने उसका कंधा थामा। “नहीं अनन्या, यह तुम्हारा अंत नहीं। यह तुम्हारी परीक्षा है।” लेकिन उसके आंसू नहीं रुके। वो बोली, “इतनी मेहनत से बनाया था। सब मिट्टी में मिल गया। शायद लोग सही थे। पढ़ी लिखी लड़की को ठेला नहीं लगाना चाहिए।”

अमन ने कुछ नहीं कहा। वह झुककर गंदे पानी को बाल्टी में भरने लगा। “ठीक करेंगे इसे, जैसे तुमने अपनी जिंदगी ठीक की थी।” अनन्या फूट-फूट कर रो पड़ी। मां की बात याद आई, “फलदार पेड़ पर ही पत्थर पड़ते हैं।”

नई शुरुआत

रात को सन्नाटा था। मां ने धीरे से बोली, “बेटा, याद है, तूने कहा था ठेला एक मिशन है। मिशन में ठहराव नहीं होता। सिर्फ मंजिल होती है।” अनन्या बोली, “लेकिन मां, लोग अब भरोसा नहीं करेंगे।” “भरोसा तेरा काम नहीं, तेरी नियत का है। कल फिर लगाना ठेला। देखना वही लोग माफी मांगेंगे।”

अगली सुबह अमन ने ठेले की मरम्मत करवाई। स्क्रीन पहुंची। नया पानी रखा और ठेले के ऊपर एक छोटा बोर्ड लगाया। “हम वही हैं जो गिरे नहीं, उठे हैं।” अनन्या ने आंखों में हिम्मत भरकर कहा, “चलो फिर से शुरू करते हैं।”

सफलता की ओर

अमन ने मुस्कुराते हुए कहा, “याद है, एआई सिर्फ मशीन नहीं, एक सोच है और सोच कभी हारती नहीं।” शाम को वही बच्चे आए। “दीदी, आज तो टीवी साफ दिख रहा है।” किसी ने कहा, “दीदी, कल जो हुआ वो गलत था। हम सब आपके साथ हैं।”

और तभी पहली ग्राहक वो बुजुर्ग अम्मा आई और बोली, “बेटी, लोग चाहे कुछ भी कहें, तेरी पूरी में दुआ है।” अनन्या ने मुस्कुराकर पानी पूरी परोसी। भीड़ फिर बढ़ने लगी। अमन ने धीमे से कहा, “देखा, यह ठेला नहीं, विश्वास है।”

नए सपनों की ओर

अनन्या ने गहरी सांस ली। “अब मैं किसी के शब्दों से नहीं, अपने कर्मों से जवाब दूंगी।” रात को घर लौटते वक्त उसने आसमान की ओर देखा। हल्की हवा चली और उसे लगा जैसे पिता कह रहे हों, “शाबाश बेटी। अब तू रुकना मत।”

वो समझ चुकी थी। हर बड़ी उड़ान से पहले हवा हमेशा उल्टी चलती है। अगले कुछ दिनों में लखनऊ की हवा जैसे अनन्या के नाम से महकने लगी। अमन के सहयोग से ठेले का सिस्टम पहले से और बेहतर हो गया था। अब ठेले पर लिखा था, “एआई दीदी जहां स्वाद और सच्चाई दोनों मिलते हैं।”

सपनों की उड़ान

हर दिन ग्राहक बढ़ते जा रहे थे। बच्चों की हंसी, बुजुर्गों की दुआएं और कॉलेज के युवाओं की तारीफें, सब एक साथ मिलकर उस ठेले को शहर की पहचान बना चुके थे। अमन रोज लैपटॉप लेकर आता, डाटा एनालिसिस करता और बताता, “दीदी, आज 320 प्लेट बिकी। सबसे ज्यादा इमली-पुदीना कॉम्बो।” अनन्या मुस्कुराती। “मतलब अब लखनऊ के लोगों को खटास पसंद है। पर मेहनत की मिठास ज्यादा।”

धीरे-धीरे लोगों ने ठेले को एक मॉडल की तरह देखना शुरू कर दिया। पास के दुकानदार जो पहले ताने मारते थे, अब कहते, “दीदी, हमें भी बताओ, यह डिजिटल स्क्रीन कैसे लगाई जाती है।” अनन्या बिना किसी गर्व के मुस्कुरा कर सिखा देती, “यह ठेला मेरा अकेले का नहीं, हम सबका है।”

सपनों की नई ऊंचाई

फिर एक दिन, अचानक बारिश आई। ठेले पर कम लोग आए। लेकिन जो भी आया, उसने स्क्रीन देखकर कहा, “वाह, यह तो होटल से भी ज्यादा साफ है।” अमन ने कहा, “देखा, पारदर्शिता ही सबसे बड़ा विज्ञापन है।” अब अमन और अनन्या ने ठेले को थोड़ा और आधुनिक बना दिया। क्यूआर कोड से पेमेंट शुरू किया। हर दसवीं प्लेट पर लकी पानी पूरी का ऑफर जिसमें बच्चों को छोटा गिफ्ट या मुफ्त पूरी मिलती। भीड़ और बढ़ी।

पास के दुकानदारों ने कहा, “अब तो यह लड़की हमें पीछे छोड़ देगी।” किसी ने मजाक में कहा, “अगले महीने इसका ऐप भी आ जाएगा।” और अनन्या बोली, “क्यों नहीं? अगर ठेला चल सकता है, तो सपने भी उड़ सकते हैं।”

निष्कर्ष

रात को घर लौटते वक्त मां ने पूछा, “बेटा, अब तो ठेला चल पड़ा।” अनन्या ने हल्के से कहा, “मां, अब यह ठेला नहीं, एक मिशन है।” “कैसा मिशन?” “लोगों को दिखाना कि मेहनत में तकनीक मिले तो ठेला भी तरक्की बन सकता है।” वह बोली और छत पर चली गई। नीचे सड़क पर ठेले की चमक अब भी दिखाई दे रही थी।

अमन ने फोन किया। “बधाई एआई दीदी। अब मीडिया तुम तक पहुंचने वाली है।” अनन्या ने आसमान की ओर देखा। आंखों में नमी और मुस्कान साथ थी। “पापा, मैंने ठेला नहीं चलाया। आपकी सीख को ट्रेंड बना दिया।”

लखनऊ की गलियों में अब एक नया नाम गूंजता था। “एआई दीदी का स्मार्ट ठेला।” हर शाम ठेले के सामने भीड़ लगती। बच्चे चिल्लाते, “दीदी, लकी पूरी!” कॉलेज के छात्र हंसते हुए कहते, “यह है असली स्टार्टअप इंडिया।”

अंतिम संदेश

लेकिन जैसे ही किसी की मेहनत की खुशबू फैलती है, कुछ लोगों के मन में जलन की बदबू भी उठती है। अलीगंज के कोने पर एक बड़ा चार्ट रेस्टोरेंट था। लखनवी स्वाद वहीं का मालिक राकेश अग्रवाल, जो बरसों से इलाके का नामी कारोबारी था, अब बेचैन रहने लगा। हर दिन उसकी दुकान पर ग्राहक घट रहे थे। और शाम को दूर खड़े बच्चे उसकी जगह एआई दीदी के ठेले की ओर दौड़ पड़ते।

इस कहानी ने हमें यह सिखाया कि मेहनत और ईमानदारी से किया गया काम कभी व्यर्थ नहीं जाता। अगर इरादे सच्चे हों, तो ठेला भी तरक्की का पहिया बन जाता है।

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