पुलिस ने लड़की की बाइक पर काटा जुर्माना, देखिए आगे क्या हुआ

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नादिया की साइकिल

शहर की गलियों में शाम ढल रही थी। लालिमा से रंगा आकाश धीरे–धीरे काला होने लगा था। उस समय पंद्रह साल की नादिया अपनी प्यारी हरी साइकिल पर स्कूल से घर लौट रही थी। उसकी चोटी हवा में लहराती और आँखों में मासूम चमक थी। वह न किसी अपराधी की तरह दिखती थी और न ही किसी बाग़ी की तरह—बस एक सामान्य स्कूल की लड़की, जिसके सपने किताबों और खेलों में बसते थे।

जैसे ही वह नगर चौक से गुज़री, एक पुलिस वैन अचानक उसके सामने रुक गई। तीन सिपाही और एक हवलदार उतर आए। हवलदार की तेज़ नज़रें नादिया की साइकिल पर टिकी थीं।

“लाइसेंस दिखाओ!” उसने कड़क आवाज़ में कहा।

नादिया घबरा गई। “सर, मैं तो नाबालिग हूँ। मेरे पास ड्राइविंग लाइसेंस कैसे होगा? ये तो बस साइकिल है।”

भीड़ इकट्ठा होने लगी। कुछ लोग हँस रहे थे, कुछ हैरान थे। हवलदार ने बिना एक शब्द सुने उसकी साइकिल छीन ली और बोला, “ग़ैरक़ानूनी सवारी! जब तक जुर्माना नहीं भरोगी, साइकिल थाने में रहेगी।”

नादिया की आँखों से आँसू छलक पड़े। उसने कई बार समझाने की कोशिश की, लेकिन पुलिस वाले हँसते रहे। कोई मदद के लिए आगे नहीं आया।

उस रात नादिया घर लौटी तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। उसका पिता, ब्रिगेडियर अर्जुन सिंह, सेना का एक सख़्त मगर न्यायप्रिय अफ़सर, तुरंत समझ गया कि कुछ हुआ है।

“क्या बात है, बेटी?” उन्होंने नरमी से पूछा।

नादिया फूट–फूट कर रो पड़ी। उसने पूरी घटना बताई—कैसे पुलिसवालों ने उसकी साइकिल ज़ब्त कर ली और भीड़ में उसे अपमानित किया।

अर्जुन सिंह की आँखों में गुस्सा चमक उठा। यह सिर्फ़ एक साइकिल का मामला नहीं था, यह उनकी बेटी की गरिमा का सवाल था।

अगली सुबह, वे नादिया को साथ लेकर थाने पहुँचे। उनके कदमों में सैनिक अनुशासन था और चेहरे पर अदम्य आत्मविश्वास। थानेदार और सिपाही चौंक गए—वे सब जानते थे कि अर्जुन सिंह किस स्तर के अफ़सर हैं।

“मेरी बेटी की साइकिल कहाँ है?” अर्जुन सिंह की आवाज़ गूँज उठी।

थाने में सन्नाटा छा गया। एक सिपाही डरते–डरते बोला, “सर… नियम तो नियम हैं। लड़की नाबालिग है, लाइसेंस नहीं था…”

“लाइसेंस? क्या साइकिल चलाने के लिए भी लाइसेंस चाहिए?” अर्जुन सिंह ने ग़ुस्से से पूछा। “तुम लोगों ने एक मासूम बच्ची को भीड़ के सामने अपमानित किया, उसे रुलाया, उसकी साइकिल छीन ली। यही है तुम्हारा कानून?”

सिपाही सिर झुका कर खड़े रहे। अर्जुन सिंह ने आगे बढ़कर नादिया की साइकिल खुद उठाई और कहा, “नियम जनता की सेवा के लिए बनाए जाते हैं, जनता को डराने के लिए नहीं। याद रखो, अगर तुम वर्दी का दुरुपयोग करोगे तो यह वर्दी ही तुम्हें गिरा देगी।”

भीड़ थाने के बाहर जमा हो चुकी थी। सबने देखा—एक पिता ने न केवल अपनी बेटी का सम्मान वापस लिया, बल्कि उस व्यवस्था के अहंकार को भी चुनौती दी।

नादिया ने पहली बार समझा कि सच्चा साहस क्या होता है। उसकी आँखों में चमक लौट आई। जब वह फिर से अपनी साइकिल पर बैठी, तो उसे लगा जैसे पंख मिल गए हों।


सबक़

यह घटना केवल नादिया की नहीं थी। यह हर उस आम नागरिक की कहानी थी जिसे कभी न कभी व्यवस्था की कठोरता और सत्ता के दंभ ने रुलाया है। लेकिन यह भी दिखाती है कि न्याय के लिए आवाज़ उठाने वाला एक इंसान पूरे तंत्र को आईना दिखा सकता है।

ब्रिगेडियर अर्जुन सिंह ने सिर्फ़ अपनी बेटी का आत्मसम्मान बचाया नहीं, बल्कि पूरे शहर को यह सिखाया कि कानून का असली अर्थ डर नहीं, भरोसा है।


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