बच्ची रोज़ देर से आती थी स्कूल… एक दिन टीचर ने जो किया, इंसानियत रो पड़ी

झारखंड के धनबाद की गलियों में एक छोटी बच्ची रचना रहती थी। उम्र तो बस दस साल की थी, लेकिन चेहरा उम्र से कहीं ज्यादा बोझिल और थका हुआ। मां का साया बचपन में ही उठ चुका था और पिता मजदूरी करके जैसे-तैसे घर चलाते थे। शराब ने उनके जीवन को और खोखला कर दिया था। ऐसे हालात में रचना का बचपन मानो बोझ तले दब गया था। हर सुबह वह जल्दी उठती, झाड़ू-पोछा करती, बर्तन मांजती और फिर आटा गूंधकर रोटियां बेलती। छोटी हथेलियों से जब बेलन घुमाती तो कई बार रोटियां टेढ़ी-मेढ़ी हो जातीं, लेकिन वह जानती थी कि उसके पिता भूखे न रहें। इतना सब करने के बाद वह किताबों का बैग उठाकर भागते हुए स्कूल निकलती।

लेकिन स्कूल तक पहुंचते-पहुंचते हमेशा घंटी बज चुकी होती। क्लास में मास्टर साहब पढ़ा रहे होते और तभी दरवाजा चरमराकर खुलता। हांफती हुई रचना भीतर आती, कपड़े धूल और पसीने से सने रहते, माथे पर पसीने की बूंदें चमकतीं और चेहरे पर थकान साफ झलकती। बच्चों की नजरें उसकी ओर उठ जातीं और फिर वही हंसी-ठिठोली शुरू हो जाती। मास्टर साहब की भौं सिकुड़ जाती, छड़ी मेज पर पटकी जाती और गुस्से भरी आवाज गूंजती – “रचना! रोज देर से क्यों आती हो? खड़ी रहो सामने।”

फिर शुरू होती सजा। नन्हीं हथेलियों पर छड़ी की चोट पड़ती और रचना सिर झुकाकर सब सह जाती। न कोई सफाई देती, न कुछ कहती। बस आंखों में आंसू भर आते पर वह रोती भी नहीं। बच्चों के लिए वह मजाक बन गई थी – “आलसी है”, “पढ़ाई में मन नहीं है”, “इसलिए रोज देर से आती है” – लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि मासूम रोज देर से क्यों आती है।

दिन पर दिन यही सिलसिला चलता रहा। हर रोज छड़ी की चोट, हर रोज बच्चों की हंसी और हर रोज रचना की चुप्पी। मगर उसकी आंखों में छिपे दर्द को कोई नहीं पढ़ पाया।

एक दिन फिर वही दृश्य दोहराया गया। घंटी बज चुकी थी, क्लास शुरू हो चुकी थी और तभी दरवाजा खुला। रचना फिर हांफती हुई अंदर आई। बाल अस्त-व्यस्त, यूनिफॉर्म धूल से सना, आंखों में थकान। मास्टर साहब गुस्से में आगे बढ़े और छड़ी उठाई, लेकिन अचानक रुक गए। आज उनकी नजर उस बच्ची के

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