बेटे ने विदेश जाने का बहाना देकर माँ को वृद्धाश्रम भेजा एक दिन वृद्धाश्रम का मालिक घर आया तब जो हुआ!

रात के सन्नाटे में एक मां ने कांपते हाथों से अपनी आखिरी चिट्ठी लिखी थी। लेकिन चेहरे पर सुकून था। उसने हर शब्द में वो दर्द उतारा था जो उसने सालों से किसी से नहीं कहा था। अगली सुबह वृद्धाश्रम के गेट पर एक आदमी खड़ा था, अपने गुनाहों का बोझ लेकर, अपनी मां को वापस घर लाने की उम्मीद लेकर। लेकिन जो उसे मिला, वो सिर्फ एक चिट्ठी थी, जो उसकी जिंदगी बदलने वाली थी।

राजेश और सावित्री का घर

बरसों पुराने उस छोटे से शहर के बीचों-बीच एक दो मंजिला मकान था। जिसकी दीवारों पर वक्त की धूल जमी थी और आंगन में तुलसी का पौधा अब भी हर सुबह धूप में चमकता था। यही वो घर था जहां राजेश अपनी मां सावित्री और पत्नी कविता के साथ रहता था। राजेश को अपने परिवार से बहुत लगाव था। मां सावित्री गांव से आई थीं, संस्कारों से भरी, भगवान की पूजा में विश्वास रखने वाली, सादगी में जीवन जीने वाली महिला जिन्होंने अपने बेटे को अपनी आखिरी सांस तक अपने प्यार और त्याग से पाला था। दूसरी ओर, कविता शहर की लड़की थी, आधुनिक, स्टाइलिश और सोच में थोड़ी अलग। उसका मानना था कि जीवन में आराम और अपनी आजादी सबसे जरूरी है।

परिवार में खटास

शादी के शुरुआती महीनों में सब कुछ ठीक चला, लेकिन धीरे-धीरे उसके और सावित्री के बीच खटास आने लगी। सुबह की रसोई में बातों का टकराव शुरू होता और रात तक वो चुप्पियों में बदल जाता। सावित्री को लगता कि कविता अपने घर की तरह यहां अपनापन नहीं बना पा रही और कविता को लगता कि सास का हर सुझाव उसके लाइफ स्टाइल में दखल है। राजेश बीच में फंसा रहता। एक ओर मां का प्यार और आदर, दूसरी ओर पत्नी का साथ और उम्मीदें।

वृद्धाश्रम की बात

एक शाम जब बारिश खिड़की पर टकरा रही थी, कविता ने अचानक कहा, “राजेश, अब यह सब नहीं हो सकता। मैं इस माहौल में नहीं रह सकती। तुम्हारी मां हर बात में टोकती है। मुझे सांस लेने तक की आजादी नहीं।” राजेश ने धीरे से कहा, “कविता, वो बूढ़ी है। आदतें पुरानी हैं, पर मन साफ है।”

कविता बोली, “मन साफ हो या गंदा, मुझे फर्क नहीं पड़ता। या तो वो इस घर में रहेंगी या मैं।” यह सुनकर राजेश चुप हो गया। उसके चेहरे पर दर्द था।

सावित्री का त्याग

उस रात मां अपने कमरे में अकेली थी। भगवान की मूर्ति के आगे दिया बुझने वाला था और कविता अपने कमरे में मोबाइल पर सोशल मीडिया स्क्रॉल कर रही थी। अगले दिन कविता ने फिर वही बात दोहराई। इस बार और ठंडे स्वर में, “क्यों ना तुम मां को किसी अच्छे वृद्धाश्रम में छोड़ दो। वहां उनकी देखभाल भी होगी और हमें भी चैन।”

राजेश ने गुस्से में कहा, “तुम चाहती क्या हो कविता? मेरी मां बोझ है तुम्हारे लिए।” वो बोली, “नहीं, लेकिन मैं चाहती हूं कि हमारा घर भी घर जैसा लगे, ना कि कोई संस्कारों का म्यूजियम।” राजेश कुछ बोल नहीं पाया।

मां का निर्णय

कई दिन बीते, झगड़े बढ़ते गए। सावित्री हर दिन महसूस करने लगी कि वह इस घर में अब बस एक पुरानी याद भर रह गई हैं। वो बेटे की नजरों में पढ़ लेती कि वह उलझ गया है। “तुम मां को समझाओ ना कि वह वृद्धाश्रम चली जाए कुछ समय के लिए। तुम बस बहाना बना दो कि तुम विदेश जा रहे हो। वहां से लौटते ही ले आना।”

राजेश ने उसे घूर कर देखा। लेकिन मन में एक झिचकने घर कर लिया। उस रात उसने मां के कमरे में जाकर कहा, “मां, मुझे कुछ महीनों के लिए कंपनी के काम से विदेश जाना है। आप अकेली रहेंगी तो मुझे चिंता होगी। वहां तक जाने के बाद मैं चैन से काम नहीं कर पाऊंगा। इसलिए मैंने सोचा है कि कुछ दिन आप एक वृद्धाश्रम में रह लीजिए। वहां डॉक्टर हैं, देखभाल है।”

सावित्री का उत्तर

सावित्री ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, तुझे जो ठीक लगे वही कर।” उसकी आंखों में कोई शिकवा नहीं था। बस वही पुरानी ममता। अगले दिन सुबह वो मंदिर गई। भगवान के सामने हाथ जोड़े और मन ही मन बोली, “हे ठाकुर, मेरे बेटे को सद्बुद्धि देना।”

विदाई का समय

दोपहर में जब राजेश ने गाड़ी निकाली तो कविता ने लिपस्टिक लगाते हुए कहा, “जल्दी आना। मुझे मॉल जाना है।” वो मुस्कुराई जैसे कुछ हुआ ही न हो। मां ने अपनी छोटी सी पोटली में दो साड़ियां, एक भगवत गीता और बेटे की बचपन की फोटो रखी। रास्ते भर वो चुप रही। खिड़की से गुजरते पेड़, खेत और आसमान देखती रही। जैसे हर चीज से आखिरी बार मुलाकात कर रही हो।

वृद्धाश्रम का माहौल

वृद्धाश्रम पहुंचे तो वहां का माहौल शांत था। कुछ बुजुर्ग झूले पर बैठे बातें कर रहे थे। कोई रामचरितमानस पढ़ रहा था। वहां के प्रबंधक शर्मा जी ने नमस्ते करते हुए कहा, “आपकी मां हमारे लिए माता समान है। चिंता मत कीजिए।” राजेश ने सिर झुकाया। मां ने बस इतना कहा, “ख्याल रखना अपना बेटा।” वो पीछे नहीं मुड़ी। बस हाथ हिलाया।

राजेश गाड़ी में बैठा। लेकिन दिल जैसे किसी ने निचोड़ लिया हो। घर लौटते वक्त कविता ने पूछा, “सब हो गया?” उसने धीमे से कहा, “हां।”

राजेश की बेचैनी

अगले कुछ दिनों तक राजेश ऑफिस जाता रहा लेकिन मन हर वक्त बेचैन। हर शाम वृद्धाश्रम का नाम कानों में गूंजता। उसने मां को कॉल करने की कोशिश की पर खुद को रोक लिया। एक दिन ऑफिस में बैठे-बैठे उसने वो तस्वीर देखी जिसमें उसकी मां उसे गोद में लिए हंस रही थी। उसकी आंखें भर आईं।

अगले दिन उसने सोचा कि मां से मिलने जाएगा। लेकिन कविता बोली, “फालतू में मत जाओ। वहां की देखभाल के पैसे तो दे ही रहे हो।” राजेश ने चुपचाप सिर झुका लिया।

चिट्ठी का मर्म

दिन बीतते गए और एक दिन अचानक दरवाजे की घंटी बजी। कविता ने दरवाजा खोला। सामने वृद्धाश्रम के वही शर्मा जी खड़े थे। उनके हाथ में एक सीलबंद लिफाफा था। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, “आपकी मां ने यह मुझे कल रात दिया था। कहा था जब मेरा बेटा मुझे लेने आए तो उसे दे देना।”

कविता का चेहरा उतर गया। राजेश दौड़ कर आया। उसने कांपते हाथों से लिफाफा खोला। अंदर मां की लिखी चिट्ठी थी जिसमें लिखा था, “मैं जानती हूं तू मुझे छोड़ रहा है। पर मुझे तुझसे कोई शिकायत नहीं। तू खुश रहना क्योंकि अगर तू मुस्कुराएगा तो शायद मेरी आत्मा को भी सुकून मिलेगा।”

राजेश का संघर्ष

उस चिट्ठी के शब्द तीर बनकर राजेश की आत्मा में उतरते चले गए। उसके हाथ कांप रहे थे। आंखों से आंसू बहने लगे। वो भागता हुआ बाहर निकला। गाड़ी स्टार्ट की और वृद्धाश्रम की ओर दौड़ पड़ा। रास्ते में बारिश शुरू हो गई। पर उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।

वो जब वहां पहुंचा तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दरवाजे पर शर्मा जी खड़े थे। आंखों में नमी थी। उन्होंने कहा, “आपकी मां अब इस दुनिया में नहीं है। उनके कमरे में अगर कुछ है तो सिर्फ यह राख।”

राजेश के पैर लड़खड़ा गए। वो घुटनों के बल गिर पड़ा। उसके भीतर की सारी दीवारें ढह चुकी थीं। उसने वो राख अपने हाथों में ली जैसे अपनी पूरी जिंदगी को पकड़ने की कोशिश कर रहा हो। हवा में मां की आवाज गूंज रही थी, “तू खुश रहना बेटा।”

अंतिम विदाई

बरसों की ठंडी हवा उस रात राजेश के सीने में जैसे बर्फ बनकर जम गई थी। मां की अस्थियां उसकी गोद में थीं और आंसुओं से भरा चेहरा जैसे किसी गहरी नींद में डूब गया था। बारिश रुक चुकी थी पर उसके भीतर का तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा था।

घर लौटते वक्त गाड़ी के हर झटके के साथ उसे मां की हंसी, उनके हाथों की थाप और बचपन में सुनाई जाने वाली लोरिया याद आ रही थी। घर पहुंचा तो कविता दरवाजे पर खड़ी थी। आंखों में हल्की झिचक और डर। उसने कुछ कहना चाहा पर राजेश बिना बोले अंदर चला गया।

मां की यादें

मंदिर के पास मां की तस्वीर रखी। दिया जलाया और धीरे से कहा, “मां, मैं देर से पहुंचा। माफ कर दो।” हवा में कपूर की खुशबू थी। पर उसके भीतर सुलगती आग सब कुछ जला रही थी। कविता ने पास आकर कहा, “राजेश, मुझे माफ कर दो। मैं नहीं चाहती थी ऐसा हो।”

लेकिन राजेश ने बस इतना कहा, “तुम चाहती थी कविता। तुमने चाहा था कि मां घर से जाएं और अब वो चली गई। हमेशा के लिए।” उसके स्वर में गुस्सा नहीं था। बस गहरी थकान थी।

सन्नाटा और बदलाव

अगले कई दिन घर में सन्नाटा पसरा रहा। ऑफिस जाना उसने बंद कर दिया। फोन बंद, दोस्तों से दूरी। वो बस मां की पुरानी चीजों को देखता रहता। उनकी साड़ी की महक, उनकी चाय की प्याली, वो पुराना रेडियो जिसे वह हर सुबह बजाया करती थी। हर चीज जैसे उसे काटने लगी थी।

एक रात उसने मां की वो चिट्ठी फिर निकाली। आंखों से आंसू बहते हुए वो पंक्तियां पढ़ी, “अगर तू मुस्कुराएगा तो मेरी आत्मा को भी सुकून मिलेगा।” उस एक वाक्य ने उसके भीतर कुछ तोड़ दिया। पर उसी टूटन में कुछ नया भी जन्मा।

नई शुरुआत

अगले दिन सुबह वो मंदिर गया। मां की तस्वीर के आगे सिर झुकाया और बोला, “अब से मैं वही करूंगा जो आपको गर्व महसूस कराए।” उसने ऑफिस जाकर इस्तीफा दे दिया। कविता हैरान रह गई।

वो बोला, “अब मैं किसी कंपनी का गुलाम नहीं बनूंगा। मां ने सिखाया था कि सेवा सबसे बड़ा धर्म है और मैं वही करूंगा।” कविता ने ताना मारा, “तो क्या अब साधु बन जाओगे?” राजेश ने शांत स्वर में कहा, “शायद।”

सेवा का मार्ग

फिर वह वृद्धाश्रम गया जहां मां की यादें अब भी गूंज रही थीं। वहां के बुजुर्ग उसे देखकर मुस्कुरा उठे। किसी ने कहा, “तुम्हारी मां हमसे रोज कहती थी, मेरा बेटा बहुत अच्छा है।” उसकी आंखें फिर भर आईं। उसने शर्मा जी से कहा, “मैं यहां सेवा करना चाहता हूं।”

धीरे-धीरे वह वृद्धाश्रम में दिन बिताने लगा। कभी किसी बुजुर्ग को खाना खिलाना, कभी डॉक्टर को बुलाना, कभी बस बैठकर उनकी बातें सुनना। उन झुर्रियों में उसने मां की झलक देखनी शुरू कर दी थी। हर चेहरा, हर मुस्कान में उसे अपना घर मिल रहा था।

कविता का परिवर्तन

समय बीतता गया और उसका चेहरा अब पहले से शांत लगने लगा। कविता शुरू में विरोध करती रही। “तुम यह सब छोड़ो। यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं।” लेकिन अब उसकी बातों का असर खत्म हो चुका था। वो अब पहले जैसा राजेश नहीं रहा।

एक दिन वृद्धाश्रम में एक बूढ़ी औरत ने उसका हाथ पकड़ कर कहा, “बेटा, तू आएगा तो मुझे अपनी मां की याद आती है।” राजेश बस मुस्कुराया। उस दिन पहली बार उसके चेहरे पर सच में एक मुस्कान थी। वही मुस्कान जो उसकी मां चाहती थी।

कविता की यात्रा

उसी शाम कविता अकेले कमरे में बैठी थी। उसने मां की पुरानी अलमारी खोली। उसमें से सावित्री की साड़ी निकाली और अपने चेहरे से लगाई। अचानक उसे लगा जैसे वह अब तक कितनी गलत रही। अगले दिन वह खुद वृद्धाश्रम पहुंची। राजेश को वहां झाड़ू लगाते हुए देखा। उसके हाथों में छाले थे। माथे पर पसीना, पर आंखों में शांति।

कविता चुपचाप उसके पास आई। बोली, “राजेश, घर चलो।” उसने सिर हिलाया। “मेरा घर अब यही है।” वो बोली, “मुझे भी रहने दो यहां कुछ दिन।” राजेश ने उसकी ओर देखा। कुछ नहीं कहा। बस एक खाली कुर्सी की ओर इशारा किया।

नई शुरुआत की ओर

कविता ने पहली बार किसी बुजुर्ग के पैर छुए। उस दिन शायद उसकी आत्मा भी हल्की हो गई थी। अगले कुछ महीनों में दोनों मिलकर वृद्धाश्रम को नया रूप देने लगे। टूटी दीवारों की जगह रंग चढ़ा। उदास चेहरों की जगह मुस्कानें आईं। राजेश ने अपने सारे पैसे उसी सेवा में लगा दिए।

सच्ची सेवा

टीवी चैनलों ने इस कहानी को दिखाया। वो बेटा जिसने मां को छोड़ा पर फिर हर मां का बेटा बन गया। धीरे-धीरे उसके नाम से एक फाउंडेशन बना, “मां का घर।” शहर के लोग वहां आकर सेवा करने लगे। कविता अब हर सुबह बुजुर्गों के साथ आरती गाती थी। वो जो कभी पूजा को झंझट मानती थी, अब उसी में शांति ढूंढने लगी।

अंतिम संवाद

एक रात राजेश आंगन में बैठा था। आसमान में चांद था। ठंडी हवा चल रही थी। उसने ऊपर देखा और धीरे से कहा, “मां, अब मैं मुस्कुरा रहा हूं।” आंखों से आंसू गिरे पर इस बार वो आंसू दुख के नहीं थे। अगले दिन वृद्धाश्रम में एक नया बोर्ड लगाया गया, “सावित्री निवास, जहां हर मां रहती है।”

जब गांव से कोई बूढ़ी औरत आती, वो खुद जाकर उसका स्वागत करता जैसे अपनी मां लौट आई हो। कविता ने उसके पास आकर कहा, “राजेश, अब तुम्हारी मां सच में खुश होंगी।” वो बोला, “हां कविता, अब वो मुस्कुरा रही होंगी। वहीं ऊपर, जहां सच्चे प्यार की कोई सीमा नहीं।”

समापन

हवा में घंटियों की आवाज गूंज रही थी और आंगन में वही तुलसी का पौधा खड़ा था जो बरसों पहले उस घर में अकेला रह गया था। अब फिर से हरियाला हो उठा था। कभी-कभी हम सोचते हैं कि हमारे पास बहुत वक्त है, पर वक्त कभी रुकता नहीं। जिस मां ने हमें चलना सिखाया, आज वही जब धीरे-धीरे चलती है तो हमें जल्दी होती है।

जिसने हमें खाना खिलाया, वही जब धीरे-धीरे खाती है तो हमें गुस्सा आता है। हम भूल जाते हैं कि वक्त घूमता है। आज हम बेटे हैं। कल वही हाल हमारा होगा। राजेश की कहानी सिर्फ एक कहानी नहीं, वो हर उस इंसान का आईना है जिसने कभी “कल मिल लेंगे” कहा। और वह कल कभी आया ही नहीं।

मां की ममता कभी शब्दों में नहीं, वह तब महसूस होती है जब वह पास नहीं रहती। अगर आपकी मां या पिता आज आपके साथ हैं, तो बस एक बार पीछे मुड़कर उन्हें देखो क्योंकि शायद वह तुम्हें देख रहे हैं पर तुम स्क्रीन में खोए हो। अगर इस कहानी ने तुम्हारे दिल को छुआ, अगर आंखें जरा सी भी नम हुईं, तो यह सिर्फ एक कहानी नहीं, यह तुम्हारा अपना सच है।

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