बेटों ने बुढ़े बाप को बोझ समझा, लेकिन किस्मत ने ऐसा खेल खेला कि सब दंग रह गए

यह कहानी है हरिनारायण की, जो एक बूढ़े पिता हैं। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अपने तीन बेटों के लिए खून-पसीना बहाया, लेकिन जब उनकी जरूरत थी, तो वही बेटे उन्हें बोझ समझकर छोड़ गए। तीन साल तक हरिनारायण अकेले अपने टूटे-फूटे घर में आंसू बहाते रहे, और जब उनके बेटे लौटे, तो सिर्फ उनकी ज़मीन के लिए। लेकिन किस्मत ने ऐसा खेल खेला कि पूरे गांव में हलचल मच गई। आइए जानते हैं इस दिल छू लेने वाली कहानी के बारे में।

हरिनारायण का अकेलापन

बरसात की एक रात थी। गांव की सुनसान गलियों में कुत्ते भौंक रहे थे और बिजली कड़क रही थी। हरिनारायण, जो अब 70 साल के हो चुके थे, अपने छोटे से मकान में अकेले बैठे थे। उनका चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था और आंखों में उदासी थी। वह सोच रहे थे, “क्या बेटे बड़े होकर बाप को भूल जाते हैं?” तीन साल हो गए थे, जब उनके बेटे रवि, मोहित और दीप शहर चले गए थे। शुरू में फोन आते थे, “पापा, कैसे हैं?” लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ खत्म हो गया।

सन्नाटे की रात

हरिनारायण ने खिड़की से बाहर देखा। गांव के चौपाल पर बच्चे दीपावली के पटाखे चला रहे थे। हंसी-खुशी की आवाजें गूंज रही थीं, लेकिन उनके आंगन में सन्नाटा था। उनकी पत्नी सावित्री को गुजरे पांच साल हो चुके थे। उसके जाने के बाद तो बेटों ने जैसे इस घर से नाता ही तोड़ लिया। अचानक उनकी नजर दरवाजे पर पड़ी। वह चौंककर उठे और दरवाजा खोला। बारिश से भीगा एक दुबला-पतला लड़का खड़ा था। उसके कपड़े फटे हुए थे और होठ नीले पड़ गए थे, लेकिन उसकी आंखों में एक अजीब चमक थी।

श्याम का आगमन

लड़का कांपती आवाज में बोला, “बाबा, मैंने आपको ढूंढ लिया।” हरिनारायण ठिठक गए। “तुम कौन हो, बेटा? मेरा तो कोई नहीं है अब यहां।” लड़के ने आंसू पोछे और बोला, “मैं आपका अपना हूं।” हरिनारायण के कान जैसे सुन पड़ गए। लड़के ने कांपते हाथ से एक कागज आगे बढ़ाया, जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा था, “बाबा, मैं आपको लेने आया हूं।” हरिनारायण ने ताज्जुब से पूछा, “बेटा, तू है कौन? और मुझे बाबा क्यों कह रहा है? मैं तो अपने ही बेटों के लिए पराया हो चुका हूं।”

श्याम की कहानी

लड़का हल्की मुस्कान के साथ बोला, “मेरा नाम श्याम है। मैं शहर के अनाथालय में पलकर बड़ा हुआ। किसी ने कहा, जब दुनिया में कोई अपना ना हो, तो किसी बुजुर्ग को ढूंढ लेना। मैं आपको ढूंढने आया हूं।” हरिनारायण के गले में जैसे कुछ अटक गया। “अनाथ तो तेरे मां-बाप,” श्याम की आंखें भर आईं। “पता नहीं कौन थे। बस इतना जानता हूं कि मैंने कभी उन्हें देखा नहीं। पर बाबा, आप में मुझे अपने पिता की छवि दिखती है। आप अकेले हैं और मैं भी। क्यों ना हम दोनों एक दूसरे के अपने बन जाएं?”

एक नई शुरुआत

यह सुनकर हरिनारायण के सूखे होठ कांप उठे। सालों से जो खालीपन उनके भीतर था, वह इस अजनबी के शब्दों से भरने लगा। लेकिन मन के कोने में अब भी बेटों का धोखा चुभ रहा था। उन्होंने लड़के को भीतर बुलाया, चादर दी और चूल्हे पर आग जलाई। श्याम ने गर्म रोटी खाई तो उसकी आंखों में आंसू आ गए। “बाबा, पता है, किसी का हाथ से बनी हुई रोटी मैंने पहली बार खाई है।”

एक रात की बातें

हरिनारायण चुप रहे। अंदर कहीं एक आवाज उठ रही थी। जिन बेटों को अपना खून पिलाकर बड़ा किया, वह तो छोड़ गए और यह पराया आकर अपना बन रहा है। उस रात दोनों देर तक बातें करते रहे। श्याम ने शहर की हालत बताई, कैसे बड़े लोग अपने बड़ों को बोझ समझकर घर से निकाल देते हैं। हरिनारायण सुनते रहे। उनके चेहरे की झुर्रियां जैसे और गहरी हो गईं।

बेटों की वापसी

अचानक दरवाजे पर जोरदार दस्तक हुई। रात के 11:00 बज चुके थे। हरिनारायण और श्याम दोनों चौंक गए। श्याम ने धीरे से फुसफुसाया, “बाबा, कोई बाहर है।” हरिनारायण ने लालटेन उठाई और दरवाजे की ओर बढ़े। बाहर तीन परछाइयां खड़ी थीं। जैसे ही दरवाजा खुला, उन चेहरों को देखकर हरिनारायण का दिल थम गया। वह थे रवि, मोहित और दीप। तीनों बेटे। हरिनारायण की आंखें भर आईं।

 

बेटों की सच्चाई

“तुम लोग इतने साल बाद आज अचानक?” बड़े बेटे रवि ने गर्दन झुका कर कहा, “पापा, हमें आपसे एक जरूरी बात करनी है।” श्याम पीछे खड़ा सब देख रहा था। उसके मन में सवाल गूंज रहा था, “क्या ये बेटे अब अपने बूढ़े पिता को वापस अपनाने आए हैं या कोई और कारण है?” तीन साल बाद पहली बार और वह भी ऐसी बरसाती रात में उन्होंने कांपते हुए स्वर में कहा, “आओ बेटा, भीतर आओ।”

घर की हालत

रवि, मोहित और दीप ने अंदर कदम रखा। कमरे की हालत देखकर उनकी आंखें झुक गईं। दीवारें सीलन से भरी थीं, कोनों में मकड़ी के जाले थे और बीच में टूटी चारपाई पर पुरानी रजाई थी। हरिनारायण की आंखें चमक उठी। मानो बरसों का इंतजार पूरा हो गया हो। “कैसे हो मेरे लाल? तुम्हें पता है, तुम्हारे बिना यह घर कैसा सुनसान लगता था?” लेकिन उनके शब्द जैसे हवा में खो गए।

जमीन का लालच

रवि ने खामोशी तोड़ी। “पापा, हम आपसे मिलने नहीं, एक जरूरी काम से आए हैं।” हरिनारायण सन्न रह गए। “काम?” मोहित ने धीमी आवाज में कहा, “शहर में हमारी कंपनी बड़ी मुसीबत में है। हमें आपके नाम पर गांव की जमीन चाहिए। तभी बैंक से लोन मिलेगा। वरना सब खत्म हो जाएगा।” यह सुनकर हरिनारायण का दिल जैसे किसी ने मुट्ठी में जकड़ लिया हो।

बेटों का धोखा

तीन साल तक जिन बेटों ने मुड़कर नहीं देखा, आज उसी बाप के पास मदद मांगने आए थे, वो भी जमीन के लिए। उनकी आंखें भर आईं। “तो तुम लोग मुझे देखने नहीं आए। बस मेरी जमीन चाहिए।” दीप ने बेरुखी से कहा, “पापा, आप समझ नहीं रहे। यह वक्त भावनाओं का नहीं है। हमें आपकी साइन चाहिए।” बस कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया।

श्याम का साहस

पीछे खड़ा श्याम सब देख रहा था। उसकी मुट्ठियां भी गईं। उसने सोचा, “जिन्होंने बाप को छोड़ दिया, वो अब सिर्फ जमीन के लिए आए हैं। क्या ऐसे बेटे सच में बेटे कहलाने लायक हैं?” हरिनारायण की आंखों से आंसू बन निकले। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “बेटा, यह जमीन तुम्हारी मां की याद है। उस मिट्टी में उसकी हंसी, उसकी आहट बसती है। मैं उसे कैसे दे दूं?”

बेटों का गुस्सा

रवि ने झुझुलाकर कहा, “पापा, आप पुराने ख्यालों वाले हैं। जमीन से क्या मिलेगा? शहर में बिजनेस खड़ा होगा तो नाम रोशन होगा। हमें आपकी जरूरत अभी है।” श्याम अब और नहीं रह सका। वह आगे बढ़ा और बोला, “अगर आपको अपने पापा की जरूरत होती, तो तीन साल तक इन्हें अकेला क्यों छोड़ दिया? और अब सिर्फ जमीन चाहिए? क्या यही औलाद का फर्ज होता है?”

बेटों का प्रतिरोध

तीनों बेटे श्याम की ओर घूरने लगे। दीप ने तिरस्कार से कहा, “तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?” श्याम ने सीना ठोककर जवाब दिया, “मैं बेटा नहीं हूं, लेकिन मैं इन्हें अपना बाबा मानता हूं। और शायद बेटा वही होता है जो बाप का सहारा बने, न कि उसकी जमीन हड़पे।” हरिनारायण की आंखें श्याम पर टिक गईं। दिल के भीतर एक सच्चाई गूंज उठी।

रिश्तों की सच्चाई

बड़े बेटे रवि ने गुस्से में कागज मेज पर पटकते हुए कहा, “पापा, या तो आप साइन कर दो, वरना हम रिश्ता तोड़ देंगे।” हरिनारायण ने कांपती आवाज में कहा, “रिश्ता तो तुम लोग पहले ही तोड़ चुके हो, बेटा। बस, मुझे देर से समझ आया।” कमरे में सन्नाटा छा गया।

बेटों का जाना

बाहर बिजली कड़की और बारिश और तेज हो गई। कमरे में गहरी चुप्पी थी। मेज पर रखे कागज पर पानी की बूंद टपकी। शायद हरिनारायण की आंखों से गिरी थी। बड़े बेटे रवि ने रूखी आवाज में कहा, “पापा, साफ-साफ कह दीजिए, आप साइन करेंगे या नहीं?” हरिनारायण ने कांपते स्वर में जवाब दिया, “नहीं बेटा, यह जमीन मेरी नहीं, तुम्हारी मां की आखिरी निशानी है। मैं इसे बेचकर तुम्हें लालच का औजार नहीं दूंगा।”

बेटों का विदाई

दीप गुस्से में खड़ा हो गया। “तो ठीक है। अब हम भी आपके बेटे नहीं रहे।” उसने दरवाजा खोला और तूफानी बारिश में निकल गया। मोहित और रवि ने एक दूसरे की ओर देखा और फिर ठंडी आवाज में बोले, “आपको पछताना पड़ेगा, पापा,” और दोनों भीगते हुए बाहर चले गए।

श्याम का वादा

दरवाजे पर खड़े श्याम ने यह सब सुना। उसका दिल भर आया। उसने बाबा का हाथ थाम कर कहा, “बाबा, जिन बेटों ने आपको छोड़ा, वो अब लौटकर भी आपके नहीं हो सकते। लेकिन मैं हूं ना, मैं आपके साथ रहूंगा।” हरिनारायण का गला भर गया। उन्होंने श्याम को सीने से लगा लिया। सालों बाद किसी ने उन्हें उस नाम से पुकारा था। “बाबा।”

गांव की हलचल

अगली सुबह गांव में अजीब हलचल थी। खबर आई कि शहर में रवि और मोहित का बिजनेस डूब गया। कंपनी पर कर्ज चढ़ गया और दोनों फरार हो गए। लोग बातें कर रहे थे, “देखा, जिसने अपने बाप को छोड़ा, उसका कुछ भला नहीं हुआ।” हरिनारायण चुपचाप चौपाल से लौटे। श्याम उनके साथ था।

गांव वालों का समर्थन

गांव के बुजुर्गों ने श्याम से पूछा, “बेटा, तू कौन है? कहां से आया है?” श्याम मुस्कुरा कर बोला, “मैं इनका बेटा नहीं, लेकिन इनका सहारा हूं। शायद भगवान ने मुझे इनके पास भेजा है।” गांव वाले गदगद हो उठे। उन्होंने कहा, “खून से नहीं, दिल से रिश्ता बनता है और आज तुमने साबित कर दिया।”

नई जिंदगी

दिन बीतते गए। श्याम ने बाबा के साथ खेत संभालना शुरू कर दिया। टूटी चारपाई की जगह नई बिस्तर लाई। हरिनारायण की आंखों में फिर से चमक लौट आई। अब उनके पास औलाद से बढ़कर अपनापन था। एक दिन बाबा ने श्याम का माथा चूमते हुए कहा, “बेटा, तूने मुझे वह सहारा दिया है जो मेरे खून के बेटे भी ना दे सके। आज से तू ही मेरा असली वारिस है।”

श्याम का आशीर्वाद

श्याम की आंखों से आंसू बह निकले। उसने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मुझे कोई कागज नहीं चाहिए। मुझे बस आपका आशीर्वाद चाहिए।” गांव के मंदिर में भजन चल रहा था। बाबा और श्याम साथ बैठे थे। बाबा की आंखें बंद थीं। होठों पर संतोष की मुस्कान थी, मानो कह रहे हों, “जिन्होंने खून का रिश्ता तोड़ा, उनकी जगह भगवान ने दिल का रिश्ता दे दिया।”

समापन विचार

बाबा ने आसमान की ओर देख कहा, “सावित्री, देखो, हमारा घर फिर से बस गया। औलाद खून से नहीं, कर्म और सादगी से बनती है। और जो अपने बड़ों का सहारा बनता है, वही असली बेटा कहलाता है।”

आपका विचार

दोस्तों, आपके लिए एक सवाल है: क्या असली बेटा वही है जो खून का रिश्ता निभाए? या वो जो आखिर तक बुजुर्ग बाप का सहारा बने? आप इस कहानी के बारे में क्या सोचते हैं? अपने विचार हमें जरूर बताएं। और आप कहां से देख रहे हैं? अपने शहर का नाम जरूर लिखें। अगर यह कहानी आपको पसंद आई, तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें और हमें सपोर्ट करें ताकि हम ऐसी प्रेरणादायक कहानियां आपके लिए लाते रहें। जय हिंद!

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