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असलम खान: एक किसान की कहानी

गांव की कच्ची गलियों से चलता हुआ जब बुजुर्ग शख्स असलम खान शहर की पक्की सड़कों तक पहुंचा, तो कई निगाहें उस पर उठी। मगर उन निगाहों में ना तो एहतराम था, ना ही अपनापन। बस अजनबियत, गुरूर और तहकीर। असलम खान एक साधारण किसान था, जो जिंदगी के आखिरी दौर में दाखिल हो चुका था, लेकिन दिल में एक ऐसा ख्वाब जिंदा था जिसके लिए उसने पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी थी: हज की अदायगी।

असलम की मेहनत

असलम ने कभी कोई ओहदा नहीं संभाला, ना कोई सरकारी नौकरी की, ना तिजारत की। वह सिर्फ एक सादा सा किसान था, लेकिन उसकी मेहनत, खुददारी और नियत किसी बादशाह से कम नहीं थी। 30 साल तक उसने एक-एक रुपया बचाया। कभी फसल अच्छी हुई तो कुछ ज्यादा बचत हो गई, और कभी मौसम ने साथ नहीं दिया तो कर्ज में भी डूब गया। लेकिन एक बात तय थी, हज पर जरूर जाना है। अल्लाह के दरबार में सर झुकाना है। यही ख्वाब हर सुबह उसकी आंखें खोलता और हर रात सोने से पहले दिल में उम्मीद का चिराग रोशन कर देता।

हज की तैयारी

एक दिन, फजर की नमाज के बाद, असलम खान ने अपने सफर की शुरुआत की। उसके बेटे ने कहा, “अब्बा, आप चाहे तो मैं हज प्लस पैकेज का बंदोबस्त कर दूं। आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” मगर असलम ने हाथ उठाकर मना कर दिया। “बेटा, तुम्हारी इज्जत अपनी जगह, लेकिन यह हज मैं अपने पैसों, अपनी नियत और अपनी कुर्बानी से करना चाहता हूं।”

असलम ने अपना पुराना सा बस्ता उठाया, जिसमें तीन जोड़ी कपड़े, एक पुराना कुरान शरीफ, चंद जरूरी कागजात और सारी जिंदगी की जमा पूंजी थी। उस बस्ते पर कई जगह पैबंद लगे थे, लेकिन उसके लिए उस बस्ते में सिर्फ सामान नहीं, बल्कि एक ख्वाब की नरम परछाई थी जिसे वह बरसों से सीने से लगाए फिर रहा था।

हज ऑफिस का अनुभव

जिस हज ऑफिस का पता उसे दिया गया था, वह शहर के एक नुमाया और आलीशान इलाके में था। बड़े-बड़े बैनर, शीशे के दरवाजे, सफेद यूनिफार्म में लिपटा अमला—यह सब असलम खान के लिए नया नहीं था, लेकिन गैर मानूस जरूर था। उसे पता था कि शहर वाले किसानों को कोई खास तवज्जो नहीं देते। लेकिन उसे यह अंदाजा नहीं था कि हज जैसे मुकद्दस अमल में भी लोग किसी के कपड़े, चाल या बस्ते को देखकर उसकी नियत का तौल शुरू कर देंगे।

जब वह ऑफिस के सामने पहुंचा, तो कुछ पल के लिए वहीं ठहर गया। उसने हाथ उठाए और अल्लाह से दुआ की। फिर उसने दरवाजा धकेला और ठंडी हवा के साथ एक नए इम्तिहान का आगाज हो गया।

रिसेप्शन पर भेदभाव

अंदर कदम रखते ही खुशबू, रोशनी और चमकदार फर्श ने आंखों को चौंधिया दिया। मगर वहां मौजूद चेहरों की मुस्कुराहटें सिर्फ मुनासिब तबके के लिए थीं। रिसेप्शन पर बैठी दो नौजवान लड़कियां एक दूसरे को देखकर हल्के से मुस्कुराई। एक औरत जो महंगा बुर्खा ओढ़े थी, उसने अपने बच्चे को पास खींच लिया और धीमे से कहा, “बेटा, इन बाबा जी से दूर रहना। यह तो कोई फकीर लगते हैं।”

जब असलम ने हज रजिस्ट्रेशन के लिए अपनी शिनाख्ती कार्ड मेज पर रखा, तो लड़की ने कार्ड को हाथ भी ना लगाया। बस तुर्श लहजे में बोली, “बाबा जी, यह खैरात का दफ्तर नहीं है। हज बहुत महंगा होता है। खासतौर पर हमारा प्लस पैकेज लाखों में है। आप अपना वक्त बर्बाद ना करें।”

असलम का धैर्य

असलम खान ने उन सबकी तरफ देखा। वह हैरान नहीं था। उसे मालूम था कि इस शहर में इज्जत मिलती है तो सिर्फ कपड़ों से, बैंक बैलेंस से और मोबाइल के ब्रांड से। मगर यह जगह तो अलग होनी चाहिए थी। यह तो वह दर था जहां से रास्ता खुदा के घर को जाता है। उसे उम्मीद थी कि शायद यहां नियत को देखा जाएगा, इबादत को समझा जाएगा और इंसानियत को सराहा जाएगा।

लेकिन यहां भी तराजू वही था—कपड़े, जूते और शक्ल-सूरत। रिसेप्शन के पीछे दीवार पर एक आयत लिखी थी: “अल्लाह नियतों को जानता है।” असलम ने उस आयत को देखा और हल्के से मुस्कुरा दिया। जैसे खुदा उसके दिल को तसल्ली दे रहा हो।

असलम का संकल्प

फिर उसने धीरे से अपना वह पुराना बस्ता खोला। जैसे ही उसने झिप खोली, कुछ लोग हंसने लगे। एक आवाज उभरी, “बच के रहना। कहीं बाबा जी के बैग में मरा हुआ चूहा ना निकल आए।” फिर ठहाकों की एक तेज लहर पूरे कमरे में फैल गई। असलम खान ने एक लम्हे के लिए अपनी नजरें झुका लीं, लेकिन दिल में बस एक जुमला कहा, “या अल्लाह, अब सब्र तेरा इम्तिहान है।”

रिसेप्शन पर गूंजती हंसी, तंजिया जुमले और बेहिस निगाहों के बीच असलम खान ना तो जवाब दे रहा था, ना ही शिकवा। उसने बस अपने दोनों हाथों से वह कपड़े का बस्ता थाम रखा था जैसे कोई मासूम बच्चा जुल्म देख रहा हो।

असलम का जादुई पल

तभी एक नौजवान अफसर जो चमकते बालों में जेल लगाए, हाथ में कॉफी का कप लिए धीरे-धीरे बढ़ा। उसने बड़ी ही नर्म मगर बनावटी आवाज में कहा, “बाबा जी, हज की नियत तो नेक है, लेकिन ख्वाबों को हकीकत में बदलने के लिए पैसा भी चाहिए होता है।”

उसकी बात सुनकर कमरे में फिर एक हंसी का बवंडर उठा। असलम खान ने बस्ता खोला और धीरे-धीरे निकलने लगा। अचानक, उसने प्लास्टिक में लिपटे साफ सुथरे नोटों के बंडल निकाले। पूरी गड्डियां, हर गड्डी ₹2000 के ताजा नोटों से भरी हुई। कमरे में जैसे खामोशी का धमाका हुआ।

असलम खान ने गड्डियां काउंटर पर रखते हुए कहा, “30 साल की मेहनत है। एक-एक दाना बेचकर जमा किया है। किसान हूं, फकीर नहीं। बेटा मेरा अफसर है। मगर हज मैं अपनी कमाई से करने आया हूं।”

बदलाव का एहसास

कमरे में हर सांस रुक सी गई। जिसे कुछ पल पहले तमाशा, भिखारी और फकीर कहा जा रहा था, अब वह सबका आईना बन गया था। असलम ने कहा, “यह सब मैंने अल्लाह के घर के लिए जमा किया है। अपने खून पसीने से।”

उसकी बातों ने वहां मौजूद हर शख्स को झकझोर दिया। अब सबकी निगाहें झुकी हुई थीं। असलम ने फिर कहा, “मैं अपने बेटे का नाम या ओहदा नहीं बताना चाहता। मैं अपनी मेहनत से हज करने आया हूं। खुददार हूं। खैरात नहीं लेता।”

अंत में

असलम खान ने अपना बस्ता कंधे पर लटकाया और धीमे कदमों से पीछे हटने लगा। उसका चेहरा कह रहा था कि अब यहां रुकने का कोई फायदा नहीं। दरवाजे की जानिब बढ़ते हुए एक नौजवान रिसेप्शनिस्ट ने कांपती आवाज में बोला, “बाबा जी, प्लीज माफ कर दीजिए।”

असलम ने नरमी से हाथ उठाकर कहा, “बेटी, गलती यह नहीं थी कि तुम मेरे बेटे का ओहदा नहीं जानती थी। असल गलती यह थी कि तुम्हें मेरा इंसान होना नजर नहीं आया।”

यह कहकर वह बाहर निकल गया। अब हज की तैयारी शुरू थी। असलम अपने गांव लौटा। उसने किसी से तजलील का जिक्र नहीं किया। बस इतना कहा, “अल्लाह ने मेरा हज कबूल कर लिया है।”

गांव के लोग अब उसे सिर्फ किसान या बुजुर्ग नहीं बल्कि एक बावखार शख्सियत मानने लगे थे। असलम खान अब रूहानी बुलंदी की तरफ बढ़ रहा था। हज की रवानगी के दिन मस्जिद में खास दुआ होगी।

असलम खान की कहानी ने सबको यह सिखाया कि असली इज्जत ना यूनिफार्म में है, ना टेबल के पीछे की आवाज में, बल्कि उन सादा लहजों, खरी निगाहों और सच्चे दिलों में है जो कपड़ों से नहीं, किरदार से पहचानते हैं।

इस तरह, असलम खान ने न केवल अपने हज के सफर को पूरा किया, बल्कि इंसानियत का एक नया सबक भी सिखाया।

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