लखनऊ की पुरानी तंग गलियों में, चौक इलाके की एक छोटी सी दुकान थी। टीन की छत, धुंधली पीली बत्ती और लकड़ी के पुराने बेंच–यही उसकी पहचान थी। दुकान पर ताज़ा पकते शोरबे और निहारी की खुशबू हर राहगीर को रोक लेती थी। दुकान का मालिक सबके लिए रहमान चाचा था—मध्यम कद, सफेद दाढ़ी, लेकिन दिल से बेहद नरम।
हर रात, आधी रात के करीब, जब गली वीरान हो जाती, एक दुबला-पतला लड़का चुपचाप वहाँ आ खड़ा होता। कपड़े मैले, हाथों में लॉटरी के बचे हुए टिकटों का एक गट्ठर, आँखों में भूख और झिझक का मिला-जुला भाव। वह धीरे से कहता—
“चाचा… क्या मुझे थोड़ा शोरबा मिल सकता है? चावल के साथ…”
रहमान चाचा उसकी आँखों को देखते, और उनका दिल पिघल जाता। वह हमेशा मुस्कुराकर कहते—
“हाँ, हाँ क्यों नहीं। आज तो गलती से ज़्यादा डाल दिया।”
और सचमुच, वह कटोरे में चावल भरते, ऊपर से गरमागरम मटन शोरबा डालते, और कभी-कभी “गलती से” एक–दो बटेर के अंडे और कुछ मांस के टुकड़े भी डाल देते।
लड़का काँपते हाथों से कटोरा पकड़ता, उसकी आँखों में चमक आ जाती और वह धीरे से कहता—
“शुक्रिया, चाचा…”
फिर चुपचाप कोने में बैठकर सब खा जाता, और जाते वक्त सिर झुकाकर प्रणाम करता।
यह सिलसिला सालों तक चलता रहा। ठंडी रातें हों या गर्म हवाओं वाली, लड़का हमेशा आता और रहमान चाचा हमेशा “थोड़ा ज़्यादा” डालना भूलते नहीं थे।
गिरती दुकान, टूटा मन
समय बीतता गया। बाज़ार बदल गया, बड़े रेस्टोरेंट खुल गए। लोगों ने छोटे ठेलों की ओर आना कम कर दिया। रहमान चाचा का धंधा दिन-प्रतिदिन घटने लगा। कर्ज़ बढ़ते गए।
एक रात, जब गली सुनसान थी, चाचा अपनी रसोई में बैठे थे। खाली कुर्सियाँ उन्हें घूर रही थीं। उनके मन में निराशा घर कर चुकी थी। वह बुदबुदाए—
“शायद अब दुकान बंद करनी पड़ेगी… कितना कर्ज़ हो गया है।”
उनकी आँखों में आँसू तैर आए।
उसी वक्त, बाहर एक चमचमाती सेडान आकर रुकी। एक लंबा-चौड़ा नौजवान, महँगा सूट पहने, अंदर आया। उसने सीधे रहमान चाचा को देखा।
“चाचा… पहचानते हैं मुझे?”
चाचा ने गौर से देखा। चेहरा नया था, लेकिन आँखों में कुछ जाना-पहचाना।
युवक मुस्कुराया, आँखें भीग गईं—
“मैं वही लड़का हूँ… लॉटरी टिकट बेचने वाला। जो हर रात आता था और कहता था कि शोरबा चावल के साथ दे दीजिए।”
रहमान चाचा की साँस अटक गई। उनकी आँखों में बरसों पुराना दृश्य उभर आया—दुबला-पतला, भूखा बच्चा, काँपते हाथ, और उनका वही डायलॉग: ‘आज गलती से ज़्यादा डाल दिया।’
आज वही बच्चा एक सफल युवक बनकर खड़ा था।
कर्ज़ का बदला प्यार से
युवक ने गहरी आवाज़ में कहा—
“चाचा… अगर आपके ‘गलती से ज़्यादा’ शोरबे में मांस और अंडे न होते, तो शायद मेरे पास पढ़ाई करने की ताक़त ही न होती। आपके दिए उस एक कटोरे ने मुझे हिम्मत दी, भूख मिटाई और पढ़ाई का रास्ता खोला। आज मैं यहाँ सिर्फ़ खाने नहीं, बल्कि आपके सारे कर्ज़ चुकाने और आपकी दुकान को फिर से खड़ा करने आया हूँ।”
रहमान चाचा का गला रुंध गया। उनके होंठ काँप रहे थे।
“बेटा… तुमने इतना सोचा मेरे लिए?”
युवक ने सिर झुका दिया—
“यह मेरा कर्ज़ नहीं, मेरी जिम्मेदारी है। आपका दिया हर निवाला मेरी ज़िंदगी में रोशनी लाया। अब मैं लौटाना चाहता हूँ।”
रहमान चाचा के आँसू छलक पड़े। उन्होंने काँपते हाथों से युवक को गले लगा लिया।
नई शुरुआत
उसका नाम था अरमान खान। अब वह सफल व्यापारी था। उसने तुरंत चाचा का कर्ज़ चुकाया, दुकान को नया रूप देने का प्रस्ताव रखा।
लेकिन शर्त साफ थी—
“चाचा… आप सिर्फ़ स्वाद और ईमानदारी संभालिए। बाकी सब मैं देख लूँगा। मैं चाहता हूँ कि लोग न केवल निहारी खाएँ, बल्कि आपके प्यार को भी महसूस करें।”
रहमान चाचा ने सिर हिलाया।
“बेटा… मैं तो एक साधारण शोरबे वाला हूँ। बड़े सपने देखने की ताक़त कहाँ?”
अरमान मुस्कुराया—
“वही साधारण कटोरा मेरी ज़िंदगी बदल गया। चाचा, आपका शोरबा ही सबसे बड़ा सपना है।”
“शोरबा थोड़ा ज़्यादा”
कुछ महीनों बाद, चौक की वही छोटी दुकान चमचमाती रेस्टोरेंट में बदल गई। बोर्ड पर बड़े अक्षरों में लिखा था—
“शोरबा थोड़ा ज़्यादा”
नाम अजीब था, लेकिन कहानी जानने के बाद हर कोई भावुक हो जाता। अरमान जब भी मीडिया से मिलता, वह हमेशा कहता—
“ये नाम उस ज़माने की याद है जब चाचा ‘गलती से’ ज़्यादा शोरबा डालते थे। वही ‘थोड़ा ज़्यादा’ मेरी ज़िंदगी की पूँजी बन गया।”
रेस्टोरेंट गोमती नगर, हज़रतगंज और फिर दिल्ली, मुंबई तक फैल गया। लेकिन रहमान चाचा ने एक नियम कभी नहीं बदला।
रेस्टोरेंट के कोने में उनकी पुरानी लकड़ी की मेज़ रखी रहती। कोई भी गरीब या भूखा व्यक्ति अगर वहाँ दो बार मेज़ थपथपाता, तो उसे बिना पैसे दिए वही कटोरा मिलता—चावल, गरम शोरबा, थोड़ा मांस और दो बटेर के अंडे।
बिलकुल वैसे ही जैसे बरसों पहले अरमान को मिला करता था।
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