वरमाला के वक्त दुल्हन हुई बेहोश, सच जान दूल्हे और बाराती, सभी हैरान। फिर जो
वाराणसी शहर की गलियों में बसी है एक पुरानी हवेली। हवेली के आँगन में अक्सर एक वृद्ध महिला बैठी रहती है—सफेद साड़ी में, चेहरे पर झुर्रियाँ लेकिन आँखों में अजीब सी चमक। उसका नाम था सावित्री देवी, उम्र लगभग 82 वर्ष। लोग उन्हें सम्मान से “दादी” कहकर बुलाते।
सावित्री देवी का जीवन साधारण था, लेकिन पिछले कुछ महीनों से उनके बारे में अजीब बातें चर्चा में थीं। पास की सहकारी बैंक की शाखा में कर्मचारी अक्सर कहते—
“ये बुज़ुर्ग अम्मा तो हफ़्ते में कई बार पैसे जमा करवाती हैं। कभी दो हज़ार, कभी पाँच हज़ार, कभी दस हज़ार। इतना पैसा इनके पास आता कहाँ से है?”
शाखा प्रबंधक श्री वर्मा ने भी ध्यान दिया कि सात दिनों में वे 14 बार बैंक आई थीं। उनके दुबले-पतले हाथ कांपते थे, लेकिन हर बार वे वही कहतीं—
“बेटे के लिए भेजना है… तुरंत ज़रूरत है।”
टेलर अनन्या को शक हुआ। उसने सोचा कि शायद किसी ने इस बुज़ुर्ग महिला को धोखे में फंसा लिया है। कहीं ऑनलाइन ठगी या किसी गैंग का दबाव तो नहीं? आखिरकार बैंक प्रबंधन ने पुलिस को सूचना देने का निर्णय लिया।
रहस्य की शुरुआत
पुलिस जब उनके छोटे से घर पहुँची, तो दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। भीतर घुप अंधेरा, पुराने सामान और धूल भरी अलमारियाँ। चारपाई पर दुबका एक अधेड़ उम्र का आदमी पड़ा था—शरीर दुबला, पैर सूखे और चेहरा पीला।
सावित्री देवी ने धीरे से कहा,
“ये… मेरा बेटा है, शेखर।”
सब चौंक गए। शेखर की उम्र लगभग 50 साल थी, लेकिन वह बिस्तर से उठने में असमर्थ था। पुलिस ने पूछा, “ये पैसे किसे भेजे जा रहे थे?”
सावित्री की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने कांपती आवाज़ में बताया—
“मेरा बेटा पहले नौकरी करता था, दिल्ली की एक फैक्ट्री में। लेकिन फैक्ट्री बंद हो गई। नौकरी गई, और उसी सदमे में ये धीरे-धीरे मानसिक रूप से टूट गया। डॉक्टरों ने कहा, ये ‘स्किज़ोफ्रेनिया’ से पीड़ित है। इलाज महंगा है। मैं पेंशन और जमा पूंजी से पैसे जुटाकर दवा दिलाती हूँ। कभी डॉक्टर की फीस, कभी दवाइयाँ, कभी दिल्ली में अस्पताल का खर्च। मैं झूठ बोलकर कहती थी कि पोते के लिए पैसे हैं, ताकि लोग सवाल न करें।”
अनन्या और पुलिस अधिकारी स्तब्ध रह गए। बुज़ुर्ग महिला ने अपने बेटे की बीमारी का बोझ अकेले उठाया हुआ था।
अतीत की परतें
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। पड़ोसियों से पूछताछ हुई तो पता चला कि सावित्री देवी कभी बहुत संपन्न थीं। उनके पति रेलवे विभाग में अधिकारी थे। शेखर उनकी आँखों का तारा था। पढ़ाई में अच्छा, खेलों में भी आगे। लेकिन जब पिता का निधन हुआ, तब घर की जिम्मेदारियाँ अचानक सावित्री पर आ गईं।
शेखर ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी और नौकरी करने दिल्ली चला गया। शुरू के साल अच्छे रहे, लेकिन जैसे ही फैक्ट्री बंद हुई, उसका आत्मविश्वास चूर हो गया। धीरे-धीरे वह अकेलापन महसूस करने लगा, शराब की लत भी लग गई। फिर मानसिक रोग ने उसे जकड़ लिया।
सावित्री देवी कहतीं—
“बेटा पहले बहुत हंसमुख था। मोहल्ले के बच्चे उससे क्रिकेट खेलते। लेकिन अब ये कमरे से बाहर नहीं जाता। बस छत को घूरता रहता है। कई बार रात में चिल्लाने लगता है। मैं घबरा जाती हूँ, पर फिर उसे गले लगाकर शांत करती हूँ।”
माँ का संघर्ष
पुलिस अधिकारी ने सवाल किया, “आपने किसी से मदद क्यों नहीं मांगी?”
सावित्री ने सिर झुका लिया,
“बेटा… समाज दया करता है, लेकिन सम्मान छीन लेता है। लोग कहते, ‘पागल का घर है।’ मैं नहीं चाहती थी कि कोई मेरे बेटे को पागल कहे। इसीलिए मैंने सब छुपाया। अकेली हूँ, पर बेटे के लिए सब करूँगी। चाहे हफ़्ते में कितनी ही बार बैंक जाकर पैसे जमा करने पड़ें।”
उनकी आँखों में अद्भुत दृढ़ता थी।
सच का खुलासा
यह सुनकर बैंक कर्मचारी और पुलिस वाले दंग रह गए। वे सोचते थे कि शायद कोई अपराध या ठगी हो रही है, लेकिन यहाँ तो माँ के त्याग और बेटे के प्रति अथाह प्रेम की गाथा थी।
अनन्या की आँखें भर आईं। उसने कहा,
“दादी, आप अकेली नहीं हैं। हम सब आपके साथ हैं।”
बैंक प्रबंधक ने तुरंत शाखा की ओर से मदद का वादा किया। पुलिस अधिकारियों ने सामाजिक कल्याण विभाग से संपर्क किया ताकि शेखर का सरकारी अस्पताल में इलाज हो सके।
बदलाव की शुरुआत
धीरे-धीरे इलाज शुरू हुआ। दवाइयाँ मिलने लगीं। डॉक्टरों ने कहा कि बीमारी गंभीर है, लेकिन सही देखभाल से शेखर सामान्य जीवन जी सकता है। मोहल्ले के लोग भी आगे आए। पड़ोसी जो पहले दूरी बनाते थे, अब भोजन और दवाइयों में मदद करने लगे।
सावित्री देवी की जिंदगी बदलने लगी। अब उन्हें पैसे जमा करने के लिए बार-बार बैंक नहीं दौड़ना पड़ता। बैंक ने उनके नाम से एक विशेष सहायता खाता खोला, जिसमें लोग दान जमा करने लगे।
भावनात्मक मोड़
एक शाम शेखर ने धीरे-धीरे अपनी मां का हाथ पकड़कर कहा,
“माँ… मैं बोझ हूँ न?”
सावित्री देवी की आँखों से आँसू झर-झर बह निकले। उन्होंने बेटे को सीने से लगाकर कहा—
“नहीं बेटा! तू मेरी दुनिया है। तू ही वजह है कि मैं ज़िंदा हूँ। भगवान ने मुझे तेरी सेवा का सौभाग्य दिया है। तू बोझ नहीं, मेरा गर्व है।”
उस क्षण कमरे में उपस्थित सभी लोग सिसक पड़े।
कहानी का संदेश
कुछ महीने बीते। शेखर की हालत में सुधार होने लगा। वह धीरे-धीरे आँगन में टहलने लगा। उसकी आँखों में जीवन की चमक लौट आई।
सावित्री देवी अब भी रोज़ मंदिर जातीं, लेकिन अब उनका चेहरा शांत था। मोहल्ले में लोग कहते,
“ये औरत सचमुच माँ कहलाने लायक है। जिसने समाज की परवाह नहीं की, बस अपने बेटे के लिए जीती रही।”
यह कहानी हमें सिखाती है कि माँ का प्रेम किसी भी धर्म, समाज या परिस्थिति से बड़ा होता है। पैसा, इज्जत, दुनिया की बातें—सब पीछे छूट जाती हैं, लेकिन माँ का त्याग अमर रहता है।
समापन
वाराणसी की उस हवेली में आज भी सावित्री देवी और शेखर रहते हैं। लेकिन अब वे अकेले नहीं हैं। पूरा समाज उनका परिवार बन चुका है।
कहानी के अंत में बस यही कहा जा सकता है—
“एक माँ अपने बच्चे के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। और यही त्याग, यही प्रेम, सच्ची मानवता की पहचान है।”
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