साइकिल वाले बच्चे ने कहा: “साहब, आपकी कार में पेट्रोल नहीं, पानी है”… फिर मैकेनिक ने क्या किया…!

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साइकिल वाले बच्चे ने कहा: “साहब, आपकी कार में पेट्रोल नहीं, पानी है”… फिर मैकेनिक ने क्या किया…!

भूमिका

कहते हैं कि अकल बादाम खाने से नहीं बल्कि ठोकर खाने से आती है। लेकिन हमारे समाज की विडंबना यह है कि हम सामने वाले की औकात देखकर ही उसकी अक्ल का अंदाजा लगाते हैं। अगर कोई सूट-बूट में हो तो उसकी झूठ भी सच लगती है और अगर कोई फटे-पुराने कपड़ों में हो तो उसका सच भी हमें बकवास लगता है। यह कहानी इसी भ्रम के टूटने की है।

एक गर्म दोपहर

दोपहर के 2:00 बज रहे थे और सूरज आग बरसा रहा था। शहर के बाहरी इलाके में बने हाईवे पर सन्नाटा पसरा हुआ था। इसी सन्नाटे को चीरती हुई एक चमचमाती हुई काली एसयूवी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी। कार के अंदर ऐसी ठंडक थी और स्टीरियो पर धीमा संगीत बज रहा था। ड्राइविंग सीट पर बैठे थे विशाल खन्ना, शहर के नामी गिरामी बिल्डर, जिनके लिए वक्त पैसे से भी ज्यादा कीमती था।

विशाल आज बहुत जल्दी में थे। उन्हें एक बहुत बड़ी जमीन की डील फाइनल करने के लिए दूसरे शहर पहुंचना था। अभी उन्होंने शहर का टोल नाका पार ही किया था कि अचानक उनकी लग्जरी गाड़ी ने एक झटका खाया। विशाल ने एक्सलरेटर दबाया लेकिन गाड़ी की रफ्तार बढ़ाने के बजाय कम होने लगी। इंजन से अजीब सी गड़गड़ाहट की आवाज आई और देखते ही देखते लाखों की वह मशीन सड़क के किनारे एक बेजान लोहे के ढेर की तरह रुक गई।

विशाल ने झुंझलाते हुए स्टीयरिंग व्हील पर हाथ मारा। “लानत है, अभी ही खराब होना था इसे।” उन्होंने बद्ध बद्धाते हुए कार को दोबारा स्टार्ट करने की कोशिश की। लेकिन इंजन ने कोई जवाब नहीं दिया। बाहर भीषण गर्मी थी। ना चाहते हुए भी विशाल को एसी की ठंडक छोड़कर बाहर निकलना पड़ा। बोनट खोलकर उन्होंने देखा पर उन्हें इंजन के बारे में रत्ती भर भी जानकारी नहीं थी। धुएं का गुब्बार उनके चेहरे पर लगा जिससे उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया।

साइकिल वाले बच्चे का आगमन

तभी पास की एक कच्ची पगडंडी से साइकिल की घंटी की आवाज आई। विशाल ने मुड़कर देखा। एक 10-12 साल का लड़का, जिसके कपड़े पसीने और ग्रीस से सने हुए थे, अपनी टूटी-फूटी साइकिल पर पैडल मारता हुआ आ रहा था। उसकी साइकिल के कैरियर पर लोहे के कुछ पुराने औजार और एक प्लास्टिक का डिब्बा बंधा हुआ था।

लड़का विशाल की गाड़ी के पास आकर रुका और बड़े गौर से देखने लगा। विशाल ने उसे नजरअंदाज कर दिया और अपने फोन में नेटवर्क तलाशने लगे। मैकेनिक को फोन लगाना जरूरी था।

“साहब,” लड्डके ने अपनी साइकिल खड़ी करते हुए कहा। उसकी आवाज में एक अजीब सा आत्मविश्वास था। “बोनट खुला छोड़ने से कुछ नहीं होगा। बीमारी पेट में है, दिमाग में नहीं।”

विशाल ने फोन से नजर हटाई और उस लड़के को घूर कर देखा। “ए लड़के, अपना काम कर। यहां ज्ञान मत बांट। मुझे पता है मेरी गाड़ी में क्या हुआ है।”

लड़का मुस्कुराया जैसे उसे विशाल की नादानी पर हंसी आ रही हो। उसने अपनी जेब से एक मैला सा कागज निकाला और माथे का पसीना पोंछते हुए बोला, “साहब, गुस्सा मत करो। मैं तो बस इतना कह रहा हूं कि आपकी कार में पेट्रोल नहीं, पानी है।”

विशाल का पारा चरम पर पहुंच गया। “तुम्हारा दिमाग खराब है। अभी 10 कि.मी. पीछे Reliance वाले पेट्रोल पंप से टंकी फुल करवाई है मैंने। यह कोई खटारा गाड़ी नहीं है। यह विदेशी मशीन है।”

विशाल का अहंकार

लड़का अब भी मुस्कुरा रहा था। “साहब, अगर आपको यकीन नहीं आता तो सूंघकर देख लो। धुएं में पेट्रोल की नहीं, भाप की बू आ रही है।”

विशाल को लगा कि यह लड़का पैसे मांगने के लिए कहानी बना रहा है। लेकिन तभी उनका फोन लग गया। उन्होंने अपने भरोसेमंद मैकेनिक अनवर को फोन लगाया जो इत्तेफाक से उसी हाईवे पर कुछ किलोमीटर पीछे किसी दूसरी गाड़ी को ठीक कर रहा था।

अनवर ने कहा कि वह 10 मिनट में पहुंच जाएगा। विशाल ने लड़के की तरफ एक हिकारत भरी नजर डाली और कहा, “रुक तू यहीं। अभी मेरा मैकेनिक आ रहा है। अगर तेरी बात झूठी निकली तो पुलिस को बुलाकर तुझे अंदर करवाऊंगा।”

लड़का डरा नहीं। वह वहीं सड़क किनारे अपनी साइकिल के पास बैठ गया और बोला, “ठीक है, ठीक है साहब। बुला लो अपने मैकेनिक को। सच तो सच ही रहेगा। चाहे उसे कोई अनपढ़ बोले या कोई इंजीनियर।”

अनवर का आगमन

लगभग 15 मिनट बीत चुके थे। गर्मी और उमस ने विशाल खन्ना का बुरा हाल कर दिया था। उनका महंगा सूट अब पसीने से चिपकने लगा था। वह बार-बार अपनी कलाई घड़ी ही देख रहे थे। दूसरी तरफ वह लड़का सड़क के किनारे लगे मील के पत्थर पर बेआराम से बैठा था। उसके चेहरे पर ना तो गर्मी की शिकन थी और ना ही विशाल के रुतबे का कोई खौफ। वह अपनी साइकिल के पहिए को घुमाकर चेन चढ़ा रहा था। जैसे दुनिया की सारी भागदौड़ से उसे कोई मतलब ही ना हो।

विशाल को उस लड़के की यह बेफिक्री चुभ रही थी। अपनी झुंझुलाहट निकालने के लिए उन्होंने लड़के को फिर टोका। “ए छोटू, स्कूल नहीं जाता क्या? या बस दिन भर सड़क पर आवारागर्दी करता है और गाड़ियों वालों को बेवकूफ बनाने की कोशिश करता है?”

लड़के ने काम करते-करते ही जवाब दिया, “साहब, स्कूल तो जाता हूं पर आज इतवार है। और रही बात आवारागर्दी की तो पेट भरने के लिए हाथ काले करने पर डाले जाते हैं। सबके पास आपकी तरह ऐसी वाली गाड़ियां नहीं होती।”

विशाल ने लौटा वापस लड़के को पकड़ डाला और राघव की ओर देखा। तो फिर यह यहां ग्रीस और कालिख में अपना बचपन क्यों खराब कर रहा है?

राघव का दर्द

राघव की आंखों में गहरा दर्द तैर गया। उसने अपने कटे हुए पैर की तरफ देखा और एक फीकी मुस्कान के साथ कहा, “साहब, मजबूरी इंसान से वह सब करवाती है जो वह कभी सपने में भी नहीं सोचता। 2 साल पहले एक सड़क हादसे में मेरा पैर चला गया। घर की जमा पूंजी इलाज में लग गई। गैरेज बंद होने की नौबत आ गई थी। तब इस नन्हे से कंधे ने घर का बोझ उठा लिया। स्कूल से भागकर आता है और यहां मेरे हाथ-पैर बनता है ताकि घर का चूल्हा जल सके। इसका सपना है इंजीनियर बनने का ताकि ऐसी गाड़ियां बनाए जो कभी खराब ना हो।”

विशाल ने सन्न रह गया। वह जिस लड़के को आवारा और ठग समझ रहा था, वह असल में एक जिम्मेदार बेटा और एक होनहार छात्र था। विशाल को अपने कहे हुए कड़ी शब्द अब चुभने लगे थे। तभी अचानक मोटर की आवाज बदल गई।

काम का परिणाम

लड़के ने फुर्ती से स्विच बंद किया और चिल्लाया, “बापू, टंकी खाली हो गई। पूरा पानी निकल गया।” उसने जल्दी से अनवर की मदद ली। अनवर ने अपनी गाड़ी से लाया हुआ स्पेयर पेट्रोल का केन टंकी में डाला।

मानव ने फ्यूल लाइन को वापस जोड़ा, इंजेक्टर साफ किया और बोनट बंद करते हुए पसीना पोंछा। उसने विशाल की तरफ देखा और बोला, “साहब, चाबी घुमाओ। अब यह मक्खन की तरह चलेगी।”

विशाल का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने घड़ी देखी। 35 मिनट हो चुके थे। अगर गाड़ी अब स्टार्ट हो गई तो वह अभी भी अपनी मीटिंग के लिए समय पर पहुंच सकता था। कांपते हाथों से उसने चाबी इग्निशन में लगाई और घुमा दी। इंजन ने एक हल्की सी कराह ली और फिर एक जोरदार दहाड़ के साथ स्टार्ट हो गया।

विशाल की जीत

एसयूवी की वह दमदार आवाज किसी संगीत से कम नहीं लग रही थी। अनवर खुशी से उछल पड़ा। “मान गए उस्ताद राघव भाई, तुम्हारा लौंडा तो कमाल का है।”

विशाल ने राहत की गहरी सांस ली। ऐसी की ठंडी हवा फिर से उसके चेहरे को छूने लगी। लेकिन इस बार उसे ठंडक ऐसी से नहीं बल्कि उस सुकून से मिल रही थी जो मुसीबत टलने पर मिलता है। वह गाड़ी लेकर वहां से निकल तो गया। लेकिन रियर व्यू मिरर पीछे देखने वाला शीशा में वह तब तक उस गैरेज को देखता रहा जब तक वह धूल के गुब्बार में ओझल नहीं हो गया।

सच्चाई का सामना

रास्ते भर विशाल का ध्यान मीटिंग से ज्यादा उस लड़के की बातों पर था। “ध्यान से सुनो, बीमारी पेट में है, दिमाग में नहीं।”

विशाल ने अपनी डील फाइनल की। मुनाफा भी कमाया। लेकिन आज उसे उस मुनाफे में वह खुशी नहीं मिल रही थी जो हमेशा मिलती थी। उसे बार-बार लग रहा था कि उसका कुछ उद्धार रह गया है उस गैरेज में।

वापसी का निर्णय

शाम को घर लौटते वक्त विशाल ने अपनी गाड़ी का रुख वापस उसी बस्ती की तरफ मोड़ दिया। लेकिन इस बार वह अपनी गाड़ी ठीक करवाने नहीं बल्कि अपनी अंतरात्मा को ठीक करने जा रहा था। सूरज ढल चुका था और बस्ती में अंधेरा अपने पैर पसार रहा था। कहीं-कहीं जलते हुए पीले बल्ब और मिट्टी के तेल के दियों की रोशनी उस अंधेरे से लड़ने की नाकाम कोशिश कर रही थी।

विशाल की गाड़ी जब दोबारा उस कच्चे रास्ते पर हिचकोले खाती हुई राघव ऑटोवक्स के सामने रुकी तो वहां सन्नाटा था। गैरेज का शटर आधा गिरा हुआ था। विशाल ने गाड़ी से उतरकर देखा कि गैरेज के बाहर लगे बिजली के खंभे की पीली रोशनी में मच्छरों और कीड़ों के भिनभिनाने के बावजूद मानव एक फटी हुई चटाई पर बैठकर पूरी तल्लीनता से गणित के सवाल हल कर रहा था।

नया सिरे से शुरुआत

उसके पास वही पुराना रजिस्टर था। जिस पर ग्रीस के कुछ निशान लगे थे। गाड़ी की हेडलाइट पड़े ढहाते ही मानव ने आंखों पर हाथ रखा और चौंक कर देखा। “साहब, आप फिर से क्या हदबदाकर कदर हो गए?” अंदर से राघव की आवाज आई। “कौन है मानव? क्या गाड़ी फिर खराब हो गई?”

राघव ने अपनी बैसाखियों के सहारे बाहर निकला। विशाल को वहां खड़ा देखकर उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। “क्या हुआ साहब? क्या हमारे काम में कोई कमी रह गई थी?”

विशाल ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया। “नहीं, राघव भाई। तुम्हारे काम में कोई कमी नहीं थी। कमी मेरी सोच में थी जिसे ठीक करवाने मैं वापस आया हूं।”

आत्मा की शांति

राघव और मानव एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। विशाल आगे बढ़ा और उसी प्लास्टिक की टूटी कुर्सी पर बैठ गया जिस पर वह दोपहर में बैठा था। लेकिन इस बार उसके बैठने के अंदाज में अकड़ नहीं, अपनापन था।

“राघव भाई,” विशाल ने संजीदगी से कहा, “दोपहर में तुमने कहा था कि मेहनत से ज्यादा मिला पैसा हराम है और कम मिले तो उधारी। मैं उस उधारी को चुकाने आया हूं।”

राघव ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “साहब, आपने तो पूरे पैसे दिए थे। कोई उधार नहीं बाकी।”

विशाल ने अपनी जेब से एक लिफाफा निकाला और मानव की किताबों के ऊपर रख दिया। “यह पैसे नहीं हैं। यह एक जिम्मेदारी है। मैंने आज इस लड़के की आंखों में वह चमक देखी है जो मैंने बरसों पहले खुद में देखी थी। यह दया नहीं, मेरा इन्वेस्टमेंट है। इट्स ए इन्वेस्टमेंट।”

विशाल ने मानव की ओर देखा और बोला, “बेटा, यह कोई खैरात नहीं है। यह एक कर्ज है। जिस दिन तुम बड़े इंजीनियर बन जाओगे, उस दिन मेरा यह पैसा मुझे सूद समेत वापस लौटा देना। तब तक के लिए क्या तुम मुझे अपने सपने में साझीदार नहीं बनाओगे?”

उम्मीद की किरण

राघव की आंखों से आंसू छलक पड़े। जिस स्वाभिमान ने उसे कभी झुकने नहीं दिया था, आज एक अनजान आदमी के प्यार के आगे वह पिघल रहा था। उसने अपने बेटे की तरफ देखा। मानव की आंखों में उम्मीद के दीप जल रहे थे। वह सपना जो उसे हर रात सोने नहीं देता था, आज हकीकत बनकर उसके सामने खड़ा था।

राघव ने धीरे से सिर हिलाया। “ठीक है। सही है, साहब। अगर यह कर्ज है तो मेरा बेटा इसे जरूर चुकाएगा। मैं इसे ऐसा इंजीनियर बनाऊंगा कि यह आपकी हर उम्मीद पर खरा उतरेगा।”

मानव दौड़ कर आया और विशाल के पैर छू लिए। विशाल ने उसे उठाकर गले लगा लिया। उस महंगे सूट पर लगे ग्रीस के दाग आज विशाल को किसी मेडल से कम नहीं लग रहे थे।

समापन

वक्त के पहिए ने अपनी रफ्तार पकड़ ली और देखते ही देखते 12 साल गुजर गए। आज नई दिल्ली के सबसे बड़े विज्ञान भवन में पैर रखने की भी जगह नहीं थी। देश-विदेश की मीडिया और बड़े उद्योगपति वहां मौजूद थे। मौका था देश की सबसे क्रांतिकारी हाइब्रिड इंजन तकनीक के लॉन्च का जिसे एक युवा भारतीय इंजीनियर ने पेटेंट करवाया था।

स्टेज पर रोशनी हुई और एक 24 साल का नौजवान जो गहरे नीले रंग के सूट में बेहद प्रभावशाली लग रहा था, पोडियम पर आया। यह मानव था। उसकी आंखों में आज भी वही गहराई थी। लेकिन अब उसमें गरीबी की लाचारी नहीं बल्कि सफलता का आत्मविश्वास था।

उसने माइक संभाला और हॉल में बैठे हजारों लोगों को संबोधित किया। “दोस्तों, आज आप जिस इंजन की तारीफ कर रहे हैं, उसकी नींव किसी आईआईटी की क्लासरूम में नहीं बल्कि एक टूटे हुए गैरेज में पड़ी थी। और उस नींव को सहारा देने वाले फरिश्ते आज हमारे बीच मौजूद हैं।”

मानव ने सामने की वीआईपी पंक्ति की ओर इशारा किया। “मिस्टर विशाल खन्ना, प्लीज स्टेज पर आएं।”

विशाल जिनके बाल अब पूरी तरह सफेद हो चुके थे और जो अब सहारे के लिए छड़ी का इस्तेमाल करते थे, धीरे-धीरे स्टेज पर चढ़े। उनके चेहरे पर एक गौरवमई मुस्कान थी।

आत्मा की विजय

मानव ने सबके सामने झुककर उनके पैर छुए और अपनी जेब से एक चेक निकालकर उनके हाथों में रख दिया। पूरा हॉल खामोश था। मानव ने रुंधे गले से कहा, “सर, आज से 12 साल पहले आपने मुझ पर जो इन्वेस्टमेंट किया था, यह उसका प्रिंसिपल अमाउंट, मूलधन और 12 सालों का ब्याज है। पाई-पाई का हिसाब है।”

आज विशाल ने चेक वापस मानव की जेब में डाल दिया और उसे गले लगा लिया। हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। स्टेज के एक कोने में व्हीलचेयर पर बैठे बूढ़े राघव की धुंधली आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। उसने आसमान की तरफ देखकर हाथ जोड़ दिए।

उसका जुगाड़ आज दुनिया की सबसे बेहतरीन तकनीक बन गया था। और उसका बेटा एक ऐसा इंसान बन गया था जिसने दौलत के आगे अपने संस्कारों को कभी नहीं बेचा। सच ही कहा गया है, जीवन की गाड़ी पेट्रोल या डीजल से नहीं बल्कि विश्वास और नेकी के ईंधन से चलती है।

जब हम किसी और के बुझते हुए दिए में तेल डालते हैं तो उजाला सिर्फ उसके घर नहीं, हमारे अपने चेहरे पर भी होता है। कर्मों का पहिया घूमकर वापस जरूर आता है। कभी सजा बनकर तो कभी आशीर्वाद बनकर।

अंतिम शब्द

इस कहानी ने हमें यह सिखाया है कि कभी-कभी हमें अपने दिल की सुननी चाहिए और उन लोगों की मदद करनी चाहिए जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। मानव की कहानी हमें प्रेरित करती है कि हम भी समाज के लिए कुछ करें और उन लोगों की मदद करें जो हमारी मदद के बिना नहीं रह सकते।

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