हरिश का एक अजीब-सा शौक़ था, जिसे पूरे मोहल्ले में सब जानते थे। बीस सालों तक, हफ़्ते की कोई भी शाम हो, बारिश हो या तेज़ धूप, वह हमेशा गली के आख़िरी छोर पर बने छोटे-से खोखे तक जाते और कुछ लॉटरी टिकट ख़रीदते। नशे की दुकान के बगल में खड़े उस बूढ़े-से ठेले वाले को जैसे उनकी आदत रट चुकी थी।

लोग अक्सर हँसते, मज़ाक उड़ाते —

— “अरे, हरिश भाई, अबकी बार तो आप करोड़पति बनोगे न?”

हरिश बस हल्की मुस्कान देते, और धीमे स्वर में कहते —

— “बस यूँ ही ले लेता हूँ… कौन जाने, कभी ऊपरवाला मेहरबान हो जाए।”

पत्नी आशा ने शुरुआती दिनों में बहुत समझाया। “सुनो, यह पैसे लॉटरी में उड़ाने से अच्छा है कि घर के लिए चावल या तेल ले आओ। हमें ही काम आएगा।” लेकिन हरिश हमेशा चुप रहते। उनका जवाब बस उनकी खामोशी और वह पुराना चमड़े का बटुआ होता, जिसमें वह टिकटों को सहेजकर रखते थे। धीरे-धीरे, आशा ने भी यह मान लिया कि यह उनके पति की ज़िंदगी का हिस्सा है, जैसे रोज़ का काम, जैसे थकान के बाद की गहरी नींद।

बीस साल बीत गए। न लॉटरी का कोई बड़ा इनाम आया, न ही उनके घर की हालत सुधरी। हरिश मज़दूरी करते, ईंट-गारे का काम उठाते। आशा सब्ज़ी बेचकर घर चलाती। बड़ा बेटा लंबी दूरी का ट्रक चलाता था, और छोटी बेटी अभी-अभी विश्वविद्यालय में दाख़िल हुई थी। घर ग़रीब था, मगर संतोष से भरा। कभी-कभी आशा सोचती — शायद यह लॉटरी टिकटें हरिश को मेहनत भरी ज़िंदगी में थोड़ा सुकून देती होंगी।

मगर एक सर्द सुबह, सब कुछ बदल गया। हरिश अचानक घर के आँगन में गिर पड़े। उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। वह नहीं बचे।

अंतिम संस्कार सादगी से हुआ। पड़ोसियों ने शोक जताया और फिर अपने-अपने घर लौट गए। घर में बस आशा की आहें गूंजती रहीं। जब वह पति का सामान समेट रही थी, तो उसके हाथ उस पुराने बटुए तक पहुँचे। वही बटुआ जो हरिश हमेशा अपने पास रखते थे।

आशा ने सोचा, “देखूँ, इन टिकटों को आख़िरी बार।” उसने बटुआ खोला। सैकड़ों टिकट थे, सालों से इकट्ठा किए हुए। उसे लगा कि इन्हें फेंक देना ही ठीक होगा। लेकिन तभी बीच में एक छोटी-सी नोटबुक मिली। हर पन्ने पर तारीख़ें, टिकट नंबर, और विजेता नंबर बारीकी से लिखे थे। इतने व्यवस्थित ढंग से, जैसे कोई अकाउंटेंट हिसाब रख रहा हो।

आशा ने पन्ने पलटने शुरू किए। हर पन्ना बीते सालों का गवाह था। और फिर… आख़िरी हिस्से पर पहुँचकर उसकी साँसें थम गईं।

वहाँ वही नंबर दर्ज थे जो सात साल पहले सरकार की बड़ी लॉटरी में निकले थे। करोड़ों रुपये का इनाम था वह!

आशा के हाथ काँपने लगे। आँखों के सामने सब कुछ धुंधला होने लगा। उसके पति ने सात साल तक यह राज़ किसी को नहीं बताया। न जीत की ख़ुशी साझा की, न करोड़ों रुपये की ख़बर। क्यों? यह सवाल उसके मन को झकझोर रहा था।

क्या वह पैसों से दूर रहकर, परिवार को अपनी मेहनत पर टिकाए रखना चाहते थे? या शायद उन्हें लगा कि अचानक आया इतना धन परिवार को तोड़ देगा? या फिर, यह सब उनकी आदत का हिस्सा भर था — टिकट लेना, नंबर लिखना, और सपनों को काग़ज़ पर दर्ज कर देना।

उस दिन आशा देर तक बटुए को पकड़े बैठी रही। आँसू बहते रहे। उसे महसूस हुआ कि हरिश भले ही लॉटरी से करोड़पति बने हों या नहीं, मगर असली ख़ज़ाना उनका सादगी भरा दिल और वह ज़िम्मेदारी थी, जो उन्होंने कभी भी दिखावे के लिए नहीं बेची।

बीस साल की उन लॉटरी टिकटों के बीच आशा को अपने पति का असली चेहरा दिखा — एक ऐसा आदमी, जो सपनों में जीना जानता था, मगर हक़ीक़त में परिवार की नींव को कभी हिलने नहीं देता था।