1बूढ़ी औरत बैंक में बैठ के रो रही थी बैंक मेनेजर ने देखा और फिर जो हुआ 🤔

एक दिन, एक बैंक के मैनेजर विजय शर्मा अपने केबिन से बाहर निकले। उन्हें बैंक के लॉबी में एक बुजुर्ग महिला दिखाई दी, जो बेंच पर बैठकर रो रही थी। उसकी आंखों में आंसू थे, जैसे उसने सारी दुनिया की उदासी को समेट रखा हो। विजय का दिल पिघल गया और वह उसके पास गए।

“मां जी, क्या हुआ? आप क्यों रो रही हैं?” उन्होंने पूछा। पास में खड़ा क्लर्क जल्दी से बोला, “सर, टाइम खत्म हो गया है। सिस्टम बंद हो चुका है, लेकिन यह कह रही है कि आज ही पेंशन चाहिए।”

बुजुर्ग महिला की कहानी

विजय ने ध्यान से उस महिला को देखा। उनका चेहरा थकान से भरा हुआ था, साड़ी का पल्लू सिर पर था, और हाथ में एक पुराना थैला था। वह कापती आवाज में बोली, “बेटा, अगर कल आती तो कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अब दो दिन बैंक बंद रहेगा। मेरे पास घर में खाने को कुछ नहीं है। दवा भी नहीं। दो दिन कैसे काटूंगी?”

उनकी थरथराती आवाज सुनकर विजय कुछ देर के लिए खामोश हो गया। वह आवाज उसे जानी पहचानी लगती थी, जैसे कोई पुरानी याद दिल की गहराई से उभर रही हो। उसने गौर से उनके चेहरे को देखा। उम्र की वजह से चेहरा बदल चुका था, लेकिन आंखों की वह चमक, वह गहराई अब भी वैसी ही थी।

“मां जी, आपका नाम क्या है?” विजय ने धीरे से पूछा।

“मेरा नाम लक्ष्मी देवी है। बेटा, पहले मुंबई में पढ़ाया करती थी। अब बूढ़ी हो गई हूं। बस पेंशन से गुजारा चलता है,” उन्होंने कहा।

पुरानी यादें

यह सुनते ही विजय की आंखें फैल गईं। उसकी सांसे जैसे रुक गईं। वह नाम उसके दिल में गूंज उठता है। लक्ष्मी देवी वही टीचर हैं जिनकी वजह से विजय आज इस बैंक की कुर्सी पर बैठा है। वही जिनके शब्द उसे आज भी याद हैं, “मेहनत कर बेटा। एक दिन तू बड़ा अफसर बनेगा।”

विजय की आंखों में नमी आ गई। उसने हाथ कांपते हुए अपनी जेब से पर्स निकाला और ₹5000 निकालकर उनकी हथेली पर रख दिए। “मां जी, आप यह रख लीजिए। बैंक खुलेगा तो मैं खुद आपकी पेंशन से काट लूंगा।”

लक्ष्मी देवी हैरान होकर पूछती हैं, “बेटा, तुम कौन हो जो मेरी इतनी मदद कर रहे हो?”

विजय के हंठ कांप उठते हैं। वह धीरे से कहता है, “मां जी, मैं वही विजय हूं। आपका वह स्टूडेंट जिसे आपने कभी मुफ्त में पढ़ाया था।”

पुनर्मिलन

लक्ष्मी देवी की आंखें फटी रह जाती हैं। वह जैसे शब्द ढूंढ रही हो। फिर उनके मुंह से निकलता है, “विजय! तू विजय है?” और विजय झुककर उनके पैर छूता है। “मां, आज जो कुछ भी हूं आपकी वजह से हूं। अगर आप ना होती तो मैं आज भी सड़कों पर भटक रहा होता।”

पूरा बैंक जैसे सन रह जाता है। वहां खड़े लोग यह दृश्य देखकर रुक जाते हैं। एक बैंक मैनेजर एक बुजुर्ग महिला के पैरों में सिर झुकाए खड़ा है। विजय कहता है, “मां, अब आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको घर छोड़ देता हूं।”

लेकिन लक्ष्मी देवी कहती हैं, “नहीं बेटा, मैं खुद चली जाऊंगी। तू क्यों परेशान होगा?”

विजय विनम्रता से कहता है, “आपने मुझे इंसान बनाना सिखाया था। अब मेरी बारी है।”

सफर की शुरुआत

बाहर हल्की बारिश शुरू हो चुकी है। विजय गाड़ी बुलवाता है और उन्हें सहारा देकर बैठाता है। रास्ते में वह चुपचाप बैठी रहती हैं, कभी खिड़की से बाहर देखतीं, कभी आसमान की ओर। विजय महसूस करता है कि वक्त ने उन्हें कितना बदल दिया है। वह महिला जो कभी बच्चों को उम्मीद सिखाती थी, आज खुद बेबस की मिसाल बन गई है।

विजय के मन में सैकड़ों सवाल उमड़ते हैं। आखिर क्या हुआ उनके साथ? वह मुंबई छोड़कर दिल्ली कैसे आ गई? लेकिन वह कुछ नहीं पूछता। बस मन में ठान लेता है कि अब वह उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ेगा।

घर की सच्चाई

जैसे ही गाड़ी रुकती है, लक्ष्मी देवी झिझकते हुए कहती हैं, “बेटा, बस यहीं रोक दो। मेरा घर यहीं है।” विजय देखता है सड़क के किनारे टूटी-फूटी झोपड़ियां, कीचड़ भरी गलियां, बच्चों की चीख-पुकार, और उसका दिल जैसे डूब जाता है। क्या वाकई उनकी टीचर अब यहां रहती हैं?

वह कुछ कह नहीं पाता। बस गाड़ी से उतरता है और कहता है, “मां, आप थोड़ी देर रुको। मैं अंदर देखकर आता हूं।”

झोपड़ी के अंदर जाकर उसने देखा कि ना दीवारें सही हैं, ना छत। एक कोने में टूटी चारपाई, एक पतीला और मिट्टी का चूल्हा। यह देखकर विजय की आंखें भर आती हैं। वह बाहर आता है और लक्ष्मी देवी के पास जाकर कहता है, “मां, अब आप यहां नहीं रहेंगी। चलिए मेरे साथ, मेरे घर चलिए।”

नया जीवन

लक्ष्मी देवी कहती हैं, “बेटा, मैं तेरे सिर पर बोझ नहीं बनना चाहती।” लेकिन विजय नम आंखों से कहता है, “आपने मुझे सिर उठाकर चलना सिखाया था। बोझ नहीं, बरकत बनकर चलिए।”

लक्ष्मी देवी कुछ नहीं बोलतीं। उनके होठ कांप रहे हैं। आंखों से आंसू गिर रहे हैं। वह धीरे से कहती हैं, “चल बेटा, अब शायद ऊपर वाले ने हमें दोबारा मिलाने का वक्त भेजा है।”

विजय उनके कांपते हाथ थामता है। “मां, अब आप कभी अकेली नहीं होंगी।” गाड़ी आगे बढ़ती है। बारिश की बूंदें शीशे पर गिरती रहती हैं, और विजय की आंखों से भी वही बूंदें टपकती रहती हैं। फर्क बस इतना कि वह बूंदें आसमान से नहीं, दिल से गिर रही हैं।

घर में स्वागत

गाड़ी शहर के रास्तों से गुजर रही है। बाहर बारिश थम चुकी है, लेकिन अंदर दोनों की आंखों में पुरानी यादों का तूफान उठ रहा है। लक्ष्मी देवी खिड़की से बाहर देख रही हैं, लेकिन उनकी आंखों में बरसों पहले का बीता वक्त घूम रहा है। विजय की नजरें स्टीयरिंग पर कम, उनके चेहरे पर ज्यादा हैं।

विजय अब भी सोच रहा है कि आखिर इस महान महिला की जिंदगी इस हाल तक कैसे पहुंच गई। जैसे ही गाड़ी उनके नए घर के बाहर रुकती है, विजय कहता है, “मां, अब आप यहीं रहेंगी। यह घर अब आपका है।”

लक्ष्मी देवी उसकी तरफ देखती हैं। आंखों में वही ममता है जो बरसों पहले थी। “बेटा, अब तू मुझे मां कहता है तो मुझे लगता है मेरी तपस्या पूरी हो गई।”

नए रिश्ते की शुरुआत

विजय कुछ बोल नहीं पाता। बस उनके पैर छू लेता है। उनके चेहरे पर पहली बार मुस्कान है। वह मुस्कान जो बरसों पहले उसकी कॉपी पर “गुड” लिखते समय होती थी। उस दिन विजय को एहसास होता है कि गुरु और मां में फर्क सिर्फ जन्म का होता है। ममता दोनों में बराबर होती है।

विजय लक्ष्मी देवी को अपने घर में सबसे अच्छे कमरे में ठहराता है। उन्होंने कमरे में जाते ही दीवारों को छुआ जैसे बरसों बाद किसी सुकून भरे ठिकाने को महसूस कर रही हों। उनके चेहरे पर शांति है, लेकिन आंखों में अब भी वह सन्नाटा है जो अकेलेपन के लंबे सफर से आता है।

नई सुबह

विजय नौकरानी को बुलाकर कहता है, “अब से मां के सारे काम तुम देखना। खाना, दवा सब।” लक्ष्मी देवी मुस्कुराती हैं। “बेटा, मुझे मां क्यों कह रहा है?”

विजय झुककर कहता है, “क्योंकि मां वो नहीं होती जिसने जन्म दिया। मां वो होती है जिसने गिरते को थाम लिया।” उनकी आंखें भर आती हैं। वह कहती हैं, “अगर तू मुझे मां मानता है तो अब मैं तेरी मां ही हूं।”

रात को विजय ने उनके लिए गर्म खाना बनवाया। दाल, चावल, रोटी और थोड़ा सा हलवा। उन्होंने पहली बार इतने बरसों बाद तृप्ति से खाना खाया। हर निवाले के साथ उनकी आंखों से आंसू बहते रहे।

खुशियों का आगमन

“बेटा, जब तू स्कूल में मेरे पास खाना मांगने आता था, तो मुझे लगता था काश मैं तुझे कुछ अच्छा खिला पाती। आज तू मुझे खिला रहा है। भगवान ने तेरी मेहनत का फल दे दिया।” विजय बस मुस्कुराया और बोला, “अब सब कुछ आपका है।”

कुछ हफ्तों में लक्ष्मी देवी की तबीयत सुधरने लगी। उनका चेहरा खिल उठा था। वह हर सुबह पूजा करतीं, घर की बालकनी में बैठकर अखबार पढ़तीं और चाय पीते हुए विजय का इंतजार करतीं। जब विजय ऑफिस से लौटता तो वह हमेशा दरवाजे पर खड़ी मिलतीं।

शादी की तैयारी

एक दिन उन्होंने कहा, “बेटा, तू बहुत बड़ा आदमी बन गया, लेकिन अब एक कमी है तेरे घर में हंसी की आवाज नहीं आती।” विजय हंसकर बोला, “वह भी आ जाएगी, मां। बस आप दुआ करो।”

वह बोली, “दुआ नहीं, अब तो मैं तेरी शादी की बात सोच रही हूं। अब तू अकेला नहीं रहेगा।” विजय ने हल्के अंदाज में कहा, “अगर आप ही ढूंढ दो तो मुझे खुशी होगी।”

धीरे-धीरे घर में उनकी मौजूदगी से एक नया जीवन लौट आया। घर में वह पुराना खालीपन अब नहीं था। कभी वह रसोई में जाकर विजय के लिए खीर बनातीं, कभी अलमारी में उसके कपड़े सहेजतीं।

शादी का दिन

एक शाम विजय ऑफिस से लौटते हुए एक गुलदस्ता लेकर आया और बोला, “मां, आज मेरे बैंक में सभी ने आपकी बात की। सबने कहा कि आप कितनी किस्मत वाली हैं कि आपका बेटा इतना नेक दिल है।”

वह हंस पड़ी। “नहीं बेटा, मैं नहीं, तू किस्मत वाला है कि तुझे अपना अतीत पहचानने की समझ थी।” फिर उन्होंने गंभीर आवाज में कहा, “बेटा, जब मैं नौकरी छोड़कर मुंबई से गई थी, तब सोच भी नहीं सकती थी कि एक दिन तेरा नाम अखबार में पढ़ूंगी। तूने मेरी हर मेहनत का फल लौटा दिया।”

विजय ने उनका हाथ थाम लिया और बोला, “मां, मैंने कुछ नहीं लौटाया। आपने जो बीज बोया था, वह अब इंसानियत का पेड़ बन चुका है।”

अंतिम समय

कुछ महीनों बाद विजय की शादी तय हो गई। शादी के दिन लक्ष्मी देवी सबसे ज्यादा खुश थीं। उन्होंने खुद अपने हाथों से बहू के माथे पर तिलक लगाया और बोलीं, “बहू, अब मेरा बेटा तेरा है। तू इसका ध्यान रखना। यही मेरी आखिरी इच्छा है।”

वह दिन पूरे घर के लिए सबसे बड़ा पर्व था। शादी के बाद घर में नए रंग भर गए थे। बहू प्रिया बेहद समझदार और विनम्र थी। उसने सास को मां की तरह अपनाया। हर सुबह वह उनके पैर छूती और दवा देती।

दुखद घटना

लेकिन वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता। एक शाम लक्ष्मी देवी पूजा करते हुए गिर गईं। विजय और प्रिया भागते हुए पहुंचे। डॉक्टर को बुलाया गया। जांच के बाद डॉक्टर ने गंभीर आवाज में कहा, “इनकी उम्र ज्यादा है। दिल बहुत कमजोर है। अब ज्यादा वक्त नहीं है।”

विजय का दिल जैसे टूट गया। “मां, आप ठीक हो जाएंगी। मैं आपको किसी अच्छे अस्पताल ले जाऊंगा।” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं बेटा, अब जाने का वक्त आ गया है। मैं बहुत खुश हूं कि तूने मुझे मां कहा। वरना मैं तो जिंदगी भर अकेली रह जाती।”

अंतिम विदाई

विजय की आंखों में आंसू थे। उन्होंने कहा, “मां, आप ही मुझे छोड़कर नहीं जा सकती।” उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “मैं तुझे छोड़कर नहीं जा रही। तेरे दिल में रहूंगी बेटा। जैसे तू मेरे दिल में सालों से रहा।”

इतना कहकर उनकी आंखें धीरे-धीरे बंद हो गईं। विजय का सिर उनके सीने पर था और कमरे में बस सन्नाटा रह गया। अगले दिन पूरे बैंक स्टाफ ने जब सुना कि विजय की मां नहीं रहीं, तो सब श्रद्धांजलि देने आए।

किसी ने कहा, “सर, हमें लगा यह आपकी असली मां है।” विजय ने आंखों से आंसू पोंछते हुए कहा, “असल मां वो नहीं होती जिसने जन्म दिया। असल मां वो होती है जिसने इंसानियत सिखाई।”

नई शुरुआत

उनकी अंतिम यात्रा में विजय ने खुद कंधा दिया। उसने वही सफेद शॉल ओढ़ी थी जो कभी मीरा मैडम ने उसे इंटर परीक्षा के वक्त दी थी। जब उन्होंने कहा था, “बेटा, ठंड है, इसे रख ले।”

आज वही शॉल उसकी आंखों से बहते आंसुओं को सोख रही थी। जब चिता जल रही थी, विजय ने आसमान की तरफ देखा और धीरे से कहा, “मां, आपने जो बीज मेरे अंदर बोया था, वह अब इंसानियत का पेड़ बन चुका है। मैं वादा करता हूं, अब कोई लक्ष्मी देवी इस शहर में भूखी नहीं रहेगी।”

लक्ष्मी स्मृति योजना

कुछ महीनों बाद विजय ने बैंक की मंजूरी से एक फंड शुरू किया, “लक्ष्मी स्मृति पेंशन सहायता योजना” जिसके तहत हर महीने बुजुर्ग महिलाओं को आर्थिक मदद दी जाने लगी। वह कहता, “यह मेरी मां का सपना था कि कोई भी बुजुर्ग महिला किसी बैंक की लाइन में बेबस होकर ना रोए।”

लोग कहते थे, “विजय सर का दिल बहुत बड़ा है।” लेकिन जो लोग नहीं जानते थे, वह यह था कि विजय के दिल में एक महिला का साया हमेशा जिंदा था। वह टीचर, वह मां जिसने इंसानियत की असली परिभाषा लिखी थी।

श्रद्धांजलि

हर साल उनकी पुण्यतिथि पर विजय अपने बैंक में छोटा सा दीप जलाता और उनके पसंदीदा शब्द दोहराता, “मेहनत कभी बेकार नहीं जाती बेटा। बस दिल सच्चा रखना।” उस दिन जब वह दीप जलाता तो उसे लगता जैसे हल्की हवा में कहीं लक्ष्मी देवी की आवाज गूंजती है, “बेटा, तूने मेरा फर्ज पूरा किया। अब मैं चैन से हूं।”

विजय की आंखों से फिर वही पुराने दिन बहने लगते। लेकिन इस बार उन आंसुओं में दर्द नहीं, सिर्फ गर्व होता था।

निष्कर्ष

यह कहानी वहीं खत्म होती है जहां इंसानियत की शुरुआत होती है। जब एक बेटा अपनी गुरु में मां को देख लेता है और एक मां अपने शिष्य में अपना पूरा संसार। सबसे बड़ी सीख यही है कि मां, पिता या गुरु कभी पुराने नहीं होते। बस हम ही वक्त के साथ बदल जाते हैं।

अगर आज आप अपने जीवन में सफल हैं, तो जरा पीछे मुड़कर देखिए। शायद किसी लक्ष्मी देवी ने आपको भी कभी गिरने से बचाया हो? क्या आपने उन्हें कभी धन्यवाद कहा है? या क्या आपने कभी किसी ऐसे बुजुर्ग की मदद की है जिसने आपको मां या पिता जैसा प्यार दिया?

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