10 साल का अनाथ बच्चा एक करोड़पति की कार साफ करता था || उसे नहीं पता था कि आगे क्या होगा
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लखनऊ की एक पॉश कॉलोनी में एक काली चमचमाती कार रोज सुबह ठीक सात बजे साफ-सुथरी दिखती थी। कोई आवाज़ नहीं, कोई नौकर नहीं, कोई दरवाजा नहीं खुलता – बस गाड़ी हर सुबह चमकती मिलती। गाड़ी के मालिक संजीव राठौर, एक करोड़पति बिजनेसमैन, पहले तो सोचे बिना आगे बढ़ जाते। लेकिन दो हफ्तों तक यह रोज़ होता रहा। एक दिन, दवाइयों के लिए निकलते वक्त उन्होंने पहली बार उस नज़ारे को देखा जिसने उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल दी।
एक छोटा बच्चा, उम्र लगभग 10 साल, मैले कपड़े, घिसी हुई चप्पलें, और हाथ में एक पुराना गीला कपड़ा लिए कार को बेहद प्यार से साफ कर रहा था। संजीव कुछ पल खामोशी से खड़े रहे, फिर पास जाकर पूछा, “बेटा, तुम मेरी गाड़ी रोज़ साफ करते हो?” बच्चा थोड़ा घबराया, फिर बोला, “जी साहब।”
“क्यों करते हो? किसी ने कहा है?” संजीव ने हैरानी से पूछा।
बच्चा सिर झुकाकर बोला, “नहीं साहब। मन करता है… यह गाड़ी मेरे पापा की गाड़ी जैसी है।”
संजय के दिल में कुछ चुभ गया। “तुम्हारे पापा कहां हैं?” उन्होंने पूछा।
“अब नहीं हैं… बीमारी में चल बसे। मां भी कुछ महीनों बाद…” बच्चा धीरे-धीरे बोलता चला गया।
उस मासूम की आंखों में बसी दर्द की नमी, संजीव को अपने अतीत की ओर खींच ले गई। एक साल पहले एक एक्सीडेंट में उन्होंने अपने पूरे परिवार को खो दिया था — पत्नी, बेटा, मां-बाप… सब कुछ। अब सिर्फ एक बड़ा सा बंगला बचा था और एक टूटा हुआ दिल।
उस दिन के बाद से संजीव हर सुबह बच्चे का इंतज़ार करने लगे। जब वह आता, संजीव उससे बातें करते — उसका नाम सागर था, वह अनाथ था, और कहीं भी सो जाता था — मंदिर, बस स्टैंड, दुकानों की सीढ़ियों पर। वह स्कूल नहीं जाता था। पढ़ाई की बात पर उसकी आंखें झुक जाती थीं। “अब पढ़ाई से क्या होगा साहब, पेट भर जाए वही बहुत है।”
एक दिन संजीव ने उसे कहा, “अगर मैं कहूं कि तुम यहीं मेरे साथ रहो? स्कूल भी जाओ, पढ़ाई करो, और गाड़ी तो साफ करनी ही है।”
सागर की आंखें हैरानी से फैल गईं। “सच में?” उसने कांपती आवाज़ में पूछा।
“हां बेटा, आज से यह घर तुम्हारा है।” संजीव ने उसे गले लगा लिया।
सागर को एक छोटा कमरा मिला — वही कमरा जिसमें कभी संजीव के बेटे के खिलौने और तस्वीरें थीं। नया बिस्तर, साफ कपड़े, और पहली बार उसका नाम दर्ज हुआ — स्कूल में, जीवन में और किसी की याद में।
संजय ने वकील से बात कर के गोद लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी। कुछ हफ्तों में कागज तैयार हुए, कोर्ट में हलफनामा जमा हुआ और अब वह सिर्फ सागर नहीं, सागर राठौर था — संजीव राठौर का बेटा।
समय बीता, सागर बड़ा हुआ, जिम्मेदार बना। वह पढ़ाई में अव्वल आया, सबकी मदद करता, नौकरों से आदर से बात करता। वो बंगला, जो कभी सन्नाटों से भरा रहता था, अब हंसी और ज़िंदादिली से गूंजने लगा।
एक शाम जब संजीव थोड़ा बीमार हुए, डॉक्टर ने सलाह दी — “अब आपको आराम की ज़रूरत है।” उसी शाम, सागर उनके पास चाय लेकर आया और बोला, “पापा, अब आपकी सेवा मेरी ज़िम्मेदारी है। आपने मुझे सब कुछ दिया। अब मैं संभालूंगा।”
संजय की आंखें भर आईं। उन्होंने सागर का हाथ पकड़ा और कहा, “तू मेरी सबसे बड़ी दौलत है बेटा।”
कुछ ही महीनों में सागर ने संजीव का बिजनेस संभालना शुरू कर दिया। वह अब हर फैसले में हिस्सा लेने लगा। संजीव को अब सुकून की नींद आने लगी। जिस बेटे को उन्होंने खोया था, उसकी जगह अब तकदीर ने एक और बेटा दे दिया था — बिना खून के रिश्ता, लेकिन दिल से जुड़ा।
एक दिन संजीव ने उसे अपने पुराने घर ले जाकर सबके सामने कहा, “आज से ये घर सागर का है। ये मेरा बेटा ही नहीं, इस विरासत का वारिस है।”
सागर ने झुककर सबका आशीर्वाद लिया। वह जानता था कि यह सिर्फ घर नहीं था — यह भरोसे, प्यार और उन रिश्तों की पहचान थी जो वक्त की परीक्षा में खरे उतरे।
अब जब लोग पूछते हैं, “जो बच्चा कभी टूटी चप्पल में गाड़ी साफ करता था, वो करोड़पति कैसे बना?” तो सागर सिर्फ मुस्कुरा कर कहता है,
“कभी-कभी खून के रिश्ते नहीं, तक़दीर के रिश्ते ज़िंदगी बदल देते हैं।”
अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो याद रखिए – कभी किसी अनजान के साथ एक छोटा सा प्यार भरा व्यवहार भी उसकी ज़िंदगी बदल सकता है। ❤️
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