A millionaire was sitting in the garden when a little girl came and said, Father, can I have dinn…

क्या होता है जब एक सुनसान और तनहा जिंदगी के दरवाजे पर किस्मत खुद एक नन्ही सी दस्तक देती है? क्या होता है जब दौलत के पहाड़ पर बैठा एक अकेला इंसान एक मासूम बच्ची की आंखों में उस खुशी को ढूंढ लेता है, जिसे वह दुनिया की किसी बाजार में नहीं खरीद सका? यह कहानी एक ऐसे ही कामयाब करोड़पति राकेश खन्ना की है, जिसकी दुनिया शीशे की ऊंची इमारतों और बैलेंस शीट के आंकड़ों में कैद थी, और एक 10 साल की यतीम बच्ची निशा की, जिसकी दुनिया उसके मां-बाप की धुंधली यादों और एक जिद्दी उम्मीद में सिमटी हुई थी।

राकेश का जीवन

दिल्ली, सफलता की रफ्तार का शहर, जहां एक तरफ लूटियंस की हरियाली है, वहीं दूसरी तरफ अनगिनत बस्तियों के जख्मों को भी समेटे हुए है। इसी शहर में राकेश खन्ना, 35 साल का एक सेल्फ मेड मिलेनियर, अपनी सुनहरी लेकिन तन्हा दुनिया में रहता था। उसने अपनी मेहनत, असाधारण प्रतिभा और बेजोड़ कारोबारी समझ से एक विशाल टेक्नोलॉजी एंपायर खड़ा किया था। उसकी कंपनी, फ्यूचर टेक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और सॉफ्टवेयर सॉल्यूशंस में एक बड़ा नाम थी। उसका ऑफिस गुरुग्राम के सबसे महंगे कॉर्पोरेट टावर की सबसे ऊंची मंजिल पर था, जहां से पूरी दुनिया उसके पैरों के नीचे दिखाई देती थी।

राकेश के पास वो सब कुछ था जो दौलत खरीद सकती थी – आलीशान पेंट हाउस, दुनिया की सबसे महंगी गाड़ियों का काफिला और एक ऐसी जिंदगी जिसकी लोग सिर्फ कल्पना ही कर सकते थे। लेकिन इस चकाचौंध के पीछे एक और राकेश भी था, एक ऐसा राकेश जिसे दुनिया नहीं जानती थी। वह बेहद अकेला, खामोश और अपनी भावनाओं को छिपाने वाला इंसान था। उसने अपनी जिंदगी के सारे साल अपनी कंपनी को बनाने में लगा दिए थे। इस सफर में उसने दोस्त बनाए थे, लेकिन वे सब मतलब के थे। रिश्ते बने थे, लेकिन वे सब सौदे थे।

निशा की कहानी

इसी दिल्ली की भीड़भाड़ वाली गुमनाम सड़कों पर भटक रही थी 10 साल की मासूम निशा। उसकी दुनिया 6 महीने पहले तक बहुत खूबसूरत थी। वह उत्तराखंड के पहाड़ों में बसे एक छोटे से कस्बे में अपने मां-बाप के साथ रहती थी। उसके पिता मनोज एक स्कूल में ड्राइंग के टीचर थे और उसकी मां सुमन एक गणी। वे अमीर नहीं थे, लेकिन उनके छोटे से घर में प्यार और खुशियों का खजाना था। निशा अपने मां-बाप की आंखों का तारा थी।

लेकिन 6 महीने पहले एक भयानक भूस्खलन ने उसकी पूरी दुनिया को उजाड़ दिया। उस हादसे में उसके मां-बाप दोनों की मौत हो गई। निशा, जो उस वक्त अपनी नानी के घर थी, बच गई। लेकिन उसके लिए जिंदा रहना मौत से भी बदतर था। वह इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रही थी कि उसके मां-बाप अब इस दुनिया में नहीं हैं।

उसके एक दूर के गरीब रिश्तेदार चाचा-चाची के पास भेज दिया गया, जो दिल्ली की एक तंग बस्ती में रहते थे। वे खुद अपने बच्चों का पेट मुश्किल से पाल पाते थे। निशा उनके लिए एक बोझ बन गई थी। उन्हें उसे घर का सारा काम करवाने, मारने-पीटने और हर बात पर ताने देने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी। निशा के लिए वह घर एक नर्क बन गया था।

भागने का फैसला

उसकी एक ही ज़िद थी, एक ही उम्मीद कि उसे अपने मां-बाप को ढूंढना है। एक रात जब उसके चाचा ने उसे बुरी तरह से पीटा, तो उसने फैसला कर लिया कि वह उस घर से भाग जाएगी। पिछले तीन दिनों से वह दिल्ली की इन बेरहम अनजान सड़कों पर भटक रही थी। भूख, प्यास और डर ने उसे तोड़ दिया था। वह हर आते-जाते इंसान के चेहरे में अपने पिता का अक्स ढूंढती और हर औरत की साड़ी के पल्लू में अपनी मां की खुशबू तलाशती।

एक निर्णायक दिन

कहानी में वह निर्णायक दिन आया जब राकेश खन्ना उस दिन बहुत ज्यादा थका हुआ और मानसिक रूप से परेशान था। उसकी एक बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय डील होते-होते रह गई थी। वह अपने ऑफिस के कृत्रिम तनाव भरे माहौल से कुछ देर के लिए दूर भागना चाहता था। उसने अपने ड्राइवर को छुट्टी दी और खुद अपनी गाड़ी लेकर लोधी गार्डन की तरफ चल पड़ा।

वह गार्डन के एक शांत कोने में बैठ गया। उसने अपने साथ लाए हुए एक साधारण सैंडविच का पैकेट खोला। वह अपनी आंखें बंद करके पेड़ों की सरसराहट और पक्षियों की चहचहाहट को सुनने की कोशिश कर रहा था। ठीक उसी वक्त, निशा भी भटकते-भटकते उसी गार्डन में पहुंच गई थी। भूख और कमजोरी से उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था।

पहचान का पल

निशा ने गार्डन में खेलते हुए बच्चों को, अपने मां-बाप के साथ हंसते हुए परिवारों को एक टक देखा। तभी उसकी नजर उस शांत कोने में बेंच पर अकेले बैठे राकेश पर पड़ी। उसने राकेश के चेहरे पर वही थकान और अकेलापन देखा, जो उसे अपने पिता के चेहरे पर दिखता था। अचानक, निशा को उस अनजान शख्स में अपने पिता का अक्स दिखाई दिया।

उसके कमजोर शरीर में अचानक एक नई जान आ गई। वह लड़खड़ाते हुए कदमों से उठी और उस बेंच की तरफ बढ़ने लगी। राकेश अपनी ही सोच में डूबा हुआ था। उसने अपनी आंखें खोलीं और उसके सामने एक छोटी सी धूल-मिट्टी में सनी हुई बेहद कमजोर बच्ची खड़ी थी। उसकी बड़ी-बड़ी गहरी आंखों में आंसू थे, लेकिन एक अजीब सी पहचानी हुई चमक भी थी।

पिताजी का संबोधन

उस बच्ची ने अपनी कांपती हुई आवाज में कहा, “पिताजी, आप यहां अकेले-अकेले क्या खा रहे हैं? मुझे भी बहुत भूख लगी है। क्या मैं आपके साथ खाना खा सकती हूं?” यह शब्द राकेश के कानों में जैसे किसी परमाणु बम की तरह गूंजे। वह अपनी जगह पर पत्थर का हो गया।

उसने अपनी जिंदगी में कभी यह शब्द नहीं सुना था। उसकी अपनी कोई औलाद नहीं थी। निशा की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने कहा, “पापा, आप मुझे भूल गए। मैं आपकी निशा हूं। आप ही ने तो कहा था कि आप ऑफिस से जल्दी आ जाओगे। मैं कब से आपको ढूंढ रही हूं।”

दिल का बदलाव

उसकी आवाज में एक ऐसी सच्चाई, एक ऐसी दृढ़ता थी कि राकेश का सारा शक, सारी कठोरता एक पल में पिघल गई। वह समझ गया कि यह बच्ची सच में उसे अपना पिता समझ रही है। उसके अंदर जो सालों से एक पत्थर की तरह कठोर हो चुका था, आज पहली बार एक अजीब सी अनजानी हलचल हुई।

उसने कुछ नहीं कहा। वह उठा, उस बच्ची का छोटा सा मैला हाथ अपने हाथ में लिया और उसे अपने साथ बेंच पर बिठाया। उसने अपनी पानी की बोतल से उसे पानी पिलाया और अपना बचा हुआ सैंडविच उसके हाथ में रख दिया। निशा किसी भूखे जानवर की तरह उस सैंडविच पर टूट पड़ी। राकेश बस चुपचाप उसे देखता रहा।

निशा का भविष्य

उस शाम राकेश ने निशा को लेकर अपने घर नहीं गया। वह जानता था कि वह इस उलझन को अकेले नहीं सुलझा सकता। वह उसे लेकर अपने एक पुराने दोस्त डॉक्टर समीर के क्लीनिक में गया, जो एक जाने-माने मनोचिकित्सक थे। डॉक्टर समीर ने निशा से बहुत प्यार और धैर्य से बात की।

कुछ ही देर में उन्होंने राकेश को बताया कि यह बच्ची पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर और एक गहरे डिनायल सिंड्रोम से गुजर रही है। अपने मां-बाप को खोने का सदमा इसके लिए इतना बड़ा था कि इसके दिमाग ने उस सच्चाई को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। डॉक्टर ने कहा, “राकेश, इस बच्ची को दवाइयों से ज्यादा प्यार, धैर्य और एक सुरक्षित माहौल की जरूरत है।”

राकेश का निर्णय

उस रात राकेश के सामने उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा सवाल खड़ा था। उसका तार्किक बिजनेस वाला दिमाग कह रहा था कि सबसे आसान और सही रास्ता है इस लड़की को किसी अच्छे अनाथालय में छोड़ देना। लेकिन उसका दिल कुछ और ही कह रहा था। उसने अपने दिल की सुनी और एक बीच का रास्ता निकाला।

अगले दिन वह निशा को लेकर शहर के सबसे अच्छे, सबसे महंगे और प्रतिष्ठित अनाथालय प्रकाश पूजा धाम आवास में गया। उसने अनाथालय की संचालिका से बात की और निशा की पूरी कहानी बताई। राकेश ने अनाथालय को एक बहुत बड़ी रकम लगभग ₹50 लाख का दान दिया, इस शर्त पर कि निशा का खास ख्याल रखा जाएगा।

निशा की निराशा

जब वह निशा को वहां छोड़कर जाने लगा, तो निशा रोने लगी। वह उसके पांव पकड़ कर कहने लगी, “पापा, मुझे यहां छोड़कर मत जाओ। मैं आपके बिना नहीं रह सकती हूं।” राकेश ने पत्थर का दिल रखकर उसे वहां छोड़ा और वापस अपनी गाड़ी में आकर बैठ गया।

लेकिन वह नहीं जानता था कि असली निश तो अब शुरू हुई थी। प्रकाश पूजा धाम आवास बाहर से जितना अच्छा दिखता था, अंदर से उतना ही खोखला था। वहां की संचालिका और स्टाफ पैसे के लालची थे। उन्होंने राकेश का दिया हुआ ज्यादातर पैसा अपनी जेब में डाल लिया। निशा को कोई खास कमरा नहीं बल्कि बाकी बच्चों के साथ एक भीड़ भरे गंदे डोरमीटरी में डाल दिया गया।

निशा का संघर्ष

वहां निशा का सदमा और भी गहरा हो गया। दूसरे बच्चे, जो खुद अपनी जिंदगी की त्रासदियों से गुजरे थे, वे निशा के इस “पापा-पापा” कहने का मजाक उड़ाते थे। बड़े बच्चे उसे मारते-पीटते थे और उसका खाना छीन लेते थे। निशा ने खाना-पीना लगभग छोड़ दिया। वह किसी से बात नहीं करती। बस हर वक्त चुपचाप गेट की तरफ देखती रहती, इस उम्मीद में कि उसके पापा उसे लेने आएंगे।

राकेश की चिंता

राकेश अपनी जिंदगी में वापस व्यस्त हो गया था। लेकिन उसका दिल बेचैन था। वह हर दूसरे-तीसरे दिन अनाथालय फोन करके निशा का हाल-चाल लेता। उसे हर बार यही झूठा जवाब मिलता कि वह बिल्कुल ठीक है और धीरे-धीरे एडजस्ट कर रही है।

एक दुखद पुनर्मिलन

लेकिन एक महीने बाद, जब राकेश बिना बताए अचानक उस अनाथालय पहुंचा, तो उसने जो देखा, उसे देखकर उसके होश उड़ गए। उसने देखा कि निशा एक कोने में जमीन पर अकेली बैठी है। वह एक जीती जागती लाश लग रही थी। उसका शरीर सूख कर कांटा हो गया था। उसके कपड़े मैले थे और उसकी आंखों की रोशनी जैसे कहीं खो गई थी।

राकेश का खून खौल उठा। उसने उस दिन उस अनाथालय में ऐसा हंगामा किया कि उसकी गूंज दिल्ली के समाज सेवा मंत्रालय तक सुनाई दी। उसने तुरंत निशा को वहां से निकाला।

एक नया मौका

अब वह और भी बड़ी दुविधा में था। उसने अपने कुछ अमीर शादीशुदा दोस्तों और दूर के रिश्तेदारों से बात की। उसने कहा कि वह इस बच्ची की सारी जिम्मेदारी उठाने को तैयार है। उसके एक दूर के चचेरे भाई सुमित, जो थोड़े लालची किस्म के थे, तुरंत तैयार हो गए।

राकेश ने निशा को उनके घर छोड़ दिया और उन्हें निशा की देखभाल और पढ़ाई के लिए हर महीने एक मोटी रकम देना शुरू कर दिया। लेकिन वह फिर से गलत था। सुमित और उसकी पत्नी ने निशा को एक नौकरानी बनाकर रख दिया।

निशा का अंतिम प्रयास

एक दिन, जब उसके चाचा-चाची घर पर नहीं थे, उसने हिम्मत करके पड़ोस के एक घर से राकेश के ऑफिस का वह नंबर मिलाया जो राकेश ने इमरजेंसी के लिए अपने चाचा को दिया था। फोन राकेश की सेक्रेटरी ने उठाया। निशा ने रोते हुए कांपती हुई आवाज में बस इतना कहा, “प्लीज मेरे पापा से बात करा दीजिए। उनसे कहिए उनकी निशा उन्हें बुला रही है। वह मुझे बहुत मारते हैं। प्लीज मुझे यहां से ले जाओ पापा।”

पिता की पहचान

राकेश उस वक्त एक बहुत ही महत्वपूर्ण बोर्ड मीटिंग में था। लेकिन जैसे ही उसकी सेक्रेटरी ने उसे यह मैसेज दिया, वह सब कुछ छोड़कर अपनी गाड़ी की तरफ भागा। जब वह सुमित के घर पहुंचा और दरवाजा खटखटाया, तो सुमित की पत्नी ने दरवाजा खोला। राकेश को अचानक अपने सामने देखकर उसके होश उड़ गए।

राकेश को धक्का देकर अंदर घुसा। उसने जो देखा उसे देखकर उसकी रूह कांप गई। निशा, वह नन्ही सी बच्ची, फर्श पर बैठकर गंदे बर्तनों का एक बड़ा सा ढेर मांझ रही थी। उसके गाल पर उंगलियों के ताजा निशान थे और उसकी आंखों में एक ऐसा खौफ था जिसे देखकर किसी भी इंसान का दिल दहल जाए।

पिता का संकल्प

उस एक पल में राकेश खन्ना के अंदर के सारे बांध टूट गए। उसने कोई हंगामा नहीं किया। वह बहुत ही शांति से आगे बढ़ा। वह जमीन पर निशा के पास बैठ गया। उसने उसके छोटे-छोटे साबुन से भरे हाथों को अपने हाथों में लिया। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। उसने कहा, “मुझे माफ कर दे बेटा। मुझे माफ कर दे। तेरे पापा से बहुत बड़ी गलती हो गई। मैं तुझे फिर से अकेला छोड़ गया। लेकिन अब नहीं। अब कभी नहीं। चलो घर चलें।”

राकेश ने निशा को अपनी गोद में उठाकर खड़ा हो गया। उसने सुमित और उसकी पत्नी की तरफ एक ऐसी नजर से देखा जिसे वे अपनी पूरी जिंदगी में कभी नहीं भूल पाएंगे। उसने कहा, “तुम लोगों का हिसाब मेरे वकील करेंगे।”

नई शुरुआत

उस दिन निशा को लेकर सीधा अपने आलीशान पेंट हाउस में आया। उस दिन के बाद सिंघानिया स्टेट की दुनिया हमेशा के लिए बदल गई। वह खाली खामोश पेंट हाउस अब एक 10 साल की बच्ची की खिलखिलाहट और उसकी तोतली बातों से गूंजने लगा था।

राकेश खन्ना अब सिर्फ एक सीईओ नहीं था। वह अब एक पिता था। यह सफर उसके लिए आसान नहीं था। उसने अपनी जिंदगी में कभी किसी बच्चे को नहीं संभाला था। लेकिन वह सीख रहा था। उसने अपनी बेटी के लिए दुनिया के सबसे बड़े शेफ को नौकरी से निकाल दिया क्योंकि उसकी बेटी को सिर्फ अपने पापा के हाथ के जले हुए टोस्ट और मैगी ही पसंद थे।

प्यार का सफर

उसने अपनी करोड़ों की मीटिंग्स को इसलिए कैंसिल कर दिया क्योंकि उसे अपनी बेटी के स्कूल के पेरेंट्स टीचर मीटिंग में जाना था। उसने अपनी जिंदगी में पहली बार एक डॉल हाउस बनाना सीखा और अपनी बेटी के साथ बैठकर घंटों तक गुड्डे गुड़ियों की कहानियां सुनी।

उसने निशा को दुनिया के सबसे अच्छे स्कूलों में भेजा। उसने उसे घुड़सवारी, पियानो और वह सब कुछ सिखाया जो एक शहजादी सीखती है। लेकिन सबसे ज्यादा उसने उसे प्यार दिया, एक पिता का निस्वार्थ, बेपनाह प्यार।

समाज का विरोध

समाज ने, उसके दोस्तों ने, रिश्तेदारों ने बहुत सवाल उठाए। एक अविवाहित पुरुष का एक अनजान लड़की को गोद लेना लोगों को हजम नहीं हो रहा था। लेकिन राकेश को अब किसी की परवाह नहीं थी। डॉक्टर समीर की मदद से निशा का इलाज चलता रहा। धीरे-धीरे प्यार और सुरक्षा के उस माहौल में उसके जख्म भरने लगे।

उसने यह मान लिया कि उसके असली मां-बाप अब भगवान के पास चले गए हैं। लेकिन उसके लिए उसके असली पापा अब राकेश ही थे। राकेश ने भी कभी शादी नहीं की। उसने अपनी पूरी जिंदगी अपनी उस बेटी के नाम कर दी जो उसकी अपनी नहीं थी, लेकिन उसकी जिंदगी से भी बढ़कर थी।

सफलता का क्षण

15 साल और गुजर गए। आज दिल्ली के सबसे बड़े और सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज का कॉन्वोकेशन समारोह था। हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। मंच पर ऐलान हुआ, “इस साल की बेस्ट आउटगोइंग स्टूडेंट और कार्डियोलॉजी में गोल्ड मेडल की विजेता हैं डॉ. निशा खन्ना।”

एक 25 साल की बेहद खूबसूरत आत्मविश्वास से भरी हुई लड़की डॉक्टर के सफेद कोट में मंच पर चढ़ी और नीचे ऑडियंस की पहली कतार में बैठा एक 50 वर्षीय बालों में चांदी की लकीरों वाला शख्स अपनी नम आंखों से गर्व से अपनी बेटी को देख रहा था। यह राकेश खन्ना था।

बेटी का संबोधन

निशा ने अपना गोल्ड मेडल लिया और फिर वह माइक पर आई। उसने कहा, “आज लोग मुझे मेरी कामयाबी के लिए बधाई दे रहे हैं। लेकिन यह कामयाबी मेरी नहीं है। यह कामयाबी उस इंसान की है जिसने 15 साल पहले एक भूखी लाचार यतीम लड़की को, जो अपनी सुधबुध खो चुकी थी, उसे न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे एक पिता का नाम भी दिया। यह मेडल उस इंसान के लिए है जिसने मुझे सिखाया कि परिवार खून से नहीं, दिल से बनता है। पापा, आई लव यू।”

यह कहकर वह मंच से उतरी और दौड़कर अपने पिता के गले लग गई। उस दिन उस हॉल में बैठे हर शख्स की आंखों में आंसू थे।

समापन

राकेश खन्ना, जिसे दुनिया एक कामयाब बिजनेसमैन के तौर पर जानती थी, आज उसकी असली पहचान उसकी सबसे बड़ी दौलत, उसकी बेटी, दुनिया के सामने थी। दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि परिवार का रिश्ता खून के रिश्तों का मोहताज नहीं होता। सच्चा रिश्ता तो दिल से, प्यार से और निस्वार्थ सेवा से बनता है।

कभी-कभी एक अनजान की जिंदगी में की गई एक छोटी सी मदद भी आपकी अपनी सुनसान जिंदगी को खुशियों से भर सकती है। और एक बच्चे को गोद लेना सिर्फ एक बच्चे को घर देना नहीं होता। यह तो खुद भगवान को अपने घर लाने जैसा होता है।

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