Hospital वालों ने एक बुज़ुर्ग को गरीब समझकर अस्पताल से बाहर निकाल दिया, फिर जो हुआ…
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Hospital वालों ने एक बुज़ुर्ग को गरीब समझकर अस्पताल से बाहर निकाल दिया, फिर जो हुआ…
रात के 11 बजे थे। शहर के सबसे बड़े और महंगे अस्पताल ‘ग्लोबल हेल्थ सिटी’ के गलियारों में सन्नाटा था। बाहर की रौशनी और भीतर की चमक-दमक के बीच एक बूढ़ा आदमी धीरे-धीरे अस्पताल के गेट की ओर बढ़ रहा था। लंबी बिखरी दाढ़ी, मैला सा कंबल, पुराने कपड़े और कांपते हाथ-पैर। गेट पर बैठे सिक्योरिटी गार्ड ने उसे देखते ही झुंझला कर कहा, “ओ चाचा, कहां चले आ रहे हो? यह कोई सरकारी अस्पताल नहीं है, वापस जाओ।” बूढ़े ने कमजोर आवाज़ में कहा, “बेटा, सांस नहीं आ रही, बहुत तकलीफ है।” लेकिन गार्ड ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया और उसे भगा दिया।
बूढ़ा आदमी थका-हारा, लेकिन उम्मीद के सहारे अंदर दाखिल हो गया। किसी ने उसे रोका नहीं, क्योंकि सब उसे नजरअंदाज कर रहे थे। वह एक खाली कुर्सी पर बैठ गया। रिसेप्शन पर बैठी नर्सों, सफाईकर्मियों, किसी ने भी उसकी सुध नहीं ली। वह वहां बैठा-बैठा सबको देख रहा था—हर चेहरे, हर रवैये को। उसकी आंखों में एक अजीब सी होशियारी थी, जैसे वह हर चीज को गौर से देख रहा हो।
कुछ देर बाद अस्पताल में एक वीआईपी एक्सीडेंट केस आया। डॉक्टर, नर्सें, सब दौड़ पड़े। उस अमीर मरीज के लिए तुरंत खास कमरा खोल दिया गया, इलाज शुरू हो गया। बूढ़ा वहीं बैठा सब देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने नर्सिंग काउंटर पर जाकर धीमे से कहा, “बेटी, सांस घुट रही है, कुछ दवा या पानी मिल सकता है?” नर्स ने उसकी हालत देखकर तिरस्कार से कहा, “यहां अपॉइंटमेंट के बिना दाखिला नहीं होता, कल सरकारी अस्पताल चले जाना।” बूढ़े ने विनती की, “थोड़ा पानी ही दे दो,” लेकिन नर्स ने उसे झिड़क दिया, “यह अस्पताल है, धर्मशाला नहीं, चले जाओ यहां से।”
बूढ़ा वापस अपनी कुर्सी पर लौट आया। उसके चेहरे पर अब भी एक सुकून था, जैसे उसे पहले से पता था कि यही होगा। वह अस्पताल की दीवारों पर लगे मालिक की तस्वीरों को देखने लगा। तभी एक युवा डॉक्टर—डॉ. हारिस—अपनी शिफ्ट खत्म करके कैंटीन जा रहा था। उसकी नजर बूढ़े पर पड़ी, तो वह रुक गया। पास आकर बोला, “बाबा, तबीयत ठीक नहीं लग रही, चलिए मैं देखता हूं।” बूढ़े ने सिर हिलाया। डॉ. हारिस ने उसका हाथ पकड़कर कमरा नंबर 9 में ले जाकर बेड पर लिटाया, पानी दिया, ब्लड प्रेशर चेक किया। BP बहुत लो था। “कुछ खाया है?” डॉ. हारिस ने पूछा। बूढ़े ने कहा, “दो दिन से कुछ नहीं खाया बेटा।” डॉक्टर ने तुरंत कैंटीन में फोन किया, दो प्लेट खाना मंगवाया और बूढ़े को खिलाया। फिर उसे दवा और ड्रिप लगाई। “बाबा, आप यहां महफूज हैं, आराम कीजिए,” डॉक्टर ने नरमी से कहा।
दूसरी ओर, रिसेप्शन पर नर्स नैना, नर्स संगीता और एडमिन इंचार्ज निसार हैरान थे कि डॉ. हारिस ने इस बूढ़े को कैसे भर्ती कर लिया। “यहां फ्री सर्विस नहीं है, कोई रजिस्ट्रेशन भी नहीं,” निसार ने गुस्से में कहा। “डॉ. हारिस बहुत जज्बाती है, सबको एक जैसा समझता है,” नैना ने तंज कसा। उन्होंने सीसीटीवी फुटेज देखी, जिसमें बूढ़ा आदमी धीरे-धीरे अंदर आता, हर चीज को गौर से देखता दिख रहा था। “कुछ गड़बड़ है,” संगीता बोली, “यह आदमी अजीब है।”
सुबह होते ही डॉ. हारिस फिर कमरा नंबर 9 पहुंचा। बूढ़ा अब ठीक लग रहा था। “अब कैसा लग रहा है, बाबा?” हारिस ने पूछा। बूढ़े ने मुस्कुरा कर कहा, “अब ठीक हूं बेटा, तुमने फरिश्ता बनकर मेरी जान बचाई।” “मैं कोई फरिश्ता नहीं, बस एक आम डॉक्टर हूं,” हारिस ने विनम्रता से कहा। तभी एडमिन इंचार्ज निसार कमरे में घुसा, “डॉक्टर साहब, अस्पताल का कोई रिकॉर्ड नहीं, आप ऐसे किसी को भर्ती नहीं कर सकते।” बूढ़ा चुपचाप सुनता रहा, फिर बोला, “क्या किसी इंसान के जिंदा रहने का हक सिर्फ रजिस्ट्रेशन से तय होता है?” निसार ने झुंझलाकर कहा, “यह अस्पताल है, खैरातखाना नहीं।”
डॉ. हारिस ने अफसोस से सिर झुका लिया, “माफ कीजिए बाबा, मैं और कुछ नहीं कर सकता।” बूढ़े ने मुस्कुरा कर कहा, “तुमने जो किया, वही बहुत है बेटा।”
अगली सुबह अस्पताल में हलचल थी। कमरा नंबर 9 में अचानक दो सिक्योरिटी गार्ड आए। डॉ. हारिस ने चौंककर देखा, “यह क्या हो रहा है?” बूढ़ा आदमी उठकर बोला, “बेटा, मैं कोई फकीर नहीं, मैं इस अस्पताल का मालिक—सेठ रविशंकर हूं।” डॉ. हारिस हैरान रह गया। “आप… आप सेठ रविशंकर?” “हां,” सेठ जी मुस्कुराए, “मुझे शिकायतें मिल रही थीं कि हमारे अस्पताल में गरीबों के साथ भेदभाव हो रहा है। मैं खुद देखने आया—बिना पहचान के, एक आम आदमी की तरह।”
डॉ. हारिस की आंखें नम हो गईं। “सर, आपने मुझे बताया नहीं…” “तुम्हें बताने की जरूरत नहीं थी,” सेठ जी बोले, “तुमने बिना पहचान, बिना स्वार्थ मेरी मदद की, यही असली इंसानियत है।”
सेठ रविशंकर ने जेब से एक लिफाफा निकाला, “आज से अस्पताल में ‘डॉ. हारिस ह्यूमन वेलफेयर यूनिट’ शुरू होगी, जो गरीब, बेसहारा और बिना पहचान के मरीजों का मुफ्त इलाज करेगी, और तुम इसके इंचार्ज होगे।”
डॉ. हारिस की आंखों में आंसू थे। दूसरी तरफ निसार, नैना और संगीता को मीटिंग हॉल में बुलाया गया। वहां सेठ रविशंकर अपने असली रूप में मौजूद थे। “जो लोग दूसरों की हालत, कपड़े या जबान देखकर उनकी इज्जत तय करते हैं, उनका यहां कोई काम नहीं,” सेठ जी ने सख्ती से कहा। “आप तीनों को नौकरी से निकाला जाता है, आपके व्यवहार की जांच होगी।”
एक हफ्ते बाद अस्पताल के बाहर बोर्ड लगा—डॉ. हारिस ह्यूमन वेलफेयर यूनिट: इंसानियत सबसे पहले। अब वहां गरीब लोग कतार में थे, बिना डर के, बिना भेदभाव के। अंदर डॉ. हारिस मुस्कुरा रहा था, उसकी आंखों में वही सुकून था जो उस दिन सेठ रविशंकर की आंखों में था, जब वह एक फकीर बनकर इंसानियत का इम्तिहान लेने आए थे।
यह कहानी हमें सिखाती है कि असली इंसानियत जात-पात, पैसे या हैसियत से नहीं, बल्कि दिल से होती है। अगर हम किसी की मदद बिना स्वार्थ के करें, तो समाज बदल सकता है। अस्पताल, स्कूल, दफ्तर—हर जगह इंसानियत सबसे ऊपर होनी चाहिए।
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