IPS अफसर की कार के सामने भीख माँगने आई महिला, निकली उसकी माँ! | दिल छू लेने वाली सच्ची कहानी”
शहर की भीड़, धूल और ट्रैफिक से भरी दोपहर अचानक एक ऐसी घटना की गवाह बनी, जिसने एक सख़्त पुलिस अफ़सर की ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल दी। यह कहानी है आईपीएस अर्जुन सिंह राठौर की, जो अपने करियर के शिखर पर थे, लेकिन सड़क पर एक बूढ़ी महिला से हुई मुलाक़ात ने उन्हें उनके अतीत और अधूरी भावनाओं से रूबरू करा दिया।
अचानक हुई मुलाक़ात
अर्जुन सिंह अपनी स्कॉर्पियो में शहर की मुख्य सड़क से गुजर रहे थे। पुलिस काफ़िला साथ था। तभी एक बूढ़ी महिला लड़खड़ाती हुई उनकी कार के सामने आ गिरी। फटे कपड़े, झुलसा हुआ चेहरा और हाथ में एक टूटी कटोरी। कांपती आवाज़ में उसने कहा—“बेटा, दो रोटी दे दे, तीन दिन से भूखी हूं।”
ड्राइवर झल्लाया, लेकिन अर्जुन की निगाह जैसे ही उस महिला के चेहरे पर पड़ी, वह ठिठक गए। उन्हें चेहरा जाना-पहचाना लगा। वह महिला कोई और नहीं, उनकी मां सावित्री देवी निकलीं—वही मां, जो पंद्रह साल की उम्र में उन्हें छोड़कर कहीं चली गई थीं।
अतीत की परतें
अर्जुन का बचपन संघर्षों में गुज़रा। पिता का देहांत जल्दी हो गया। मां ने सिलाई-बुनाई और छोटे-मोटे काम करके बेटे को पढ़ाया। लेकिन गरीबी, कर्ज़ और समाज के ताने उनके जीवन को नर्क बना चुके थे। एक रात मां अचानक गायब हो गईं। मोहल्ले वालों ने ताने कसे—“तेरी मां भाग गई।” अर्जुन ने ढूंढा, पुलिस में रिपोर्ट कराई, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला। वह तन्हा बड़ा हुआ, मेहनत की और आईपीएस अफ़सर बन गया।
लेकिन उस दिन सड़क पर भीख मांगती महिला को देखकर उसके भीतर का ज्वालामुखी फट पड़ा। बरसों की तलाश, गुस्सा और अधूरी चाहत सब सामने आ गई।
मां का सच
रेस्ट हाउस पहुंचकर अर्जुन ने मां से सवाल किया। इतने साल कहां थीं? क्यों छोड़ा? सावित्री देवी की आंखों से आंसू बहे। उन्होंने कहा—“बेटा, हालात ने मजबूर किया। सूदखोरों ने धमकाया, कहा या तो घर छोड़ो वरना तुझे भी बेच देंगे। मैंने सोचा, अगर मैं भाग जाऊं तो तू सुरक्षित रहेगा। मैंने मजदूरी की, भीख मांगी, लेकिन वापस लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। डर था कि लोग क्या कहेंगे और तू मुझे स्वीकार करेगा या नहीं।”
अर्जुन के लिए यह सच स्वीकारना आसान नहीं था। उसने कहा—“आपकी वजह से मुझे समाज के ताने झेलने पड़े। मां चरित्रहीन कहलाई। लेकिन अब जब आप मेरे सामने हैं, मैं आपको छोड़ भी नहीं सकता।”
समाज और मीडिया की प्रतिक्रिया
यह घटना मीडिया की हेडलाइन बन गई—“आईपीएस की मां सड़क पर भीख मांगती मिली।” सोशल मीडिया पर दो गुट बन गए। कुछ ने अर्जुन की तारीफ़ की—“असली बेटा है।” तो कुछ ने ताना मारा—“पब्लिसिटी स्टंट है।” राजनीतिक दलों ने भी इसे मुद्दा बना लिया।
कमिश्नर ने अर्जुन को बुलाया और कहा—“यह निजी मामला अब सार्वजनिक हो चुका है। संभाल सकते हो?” अर्जुन ने दृढ़ता से कहा—“सर, अगर करियर इंसानियत की कीमत पर बचाना पड़े, तो ऐसा करियर बेकार है।”
नए सफ़र की शुरुआत
अर्जुन ने मां को अपने घर ले आया। पड़ोसियों ने ताने कसे—“इतने बड़े अफ़सर की मां तो भिखारिन है।” अर्जुन ने सबके सामने कहा—“अगर मेरी मां भीख मांग रही थी, तो यह मेरी नहीं समाज की नाकामी है।” धीरे-धीरे मां-बेटे के रिश्ते फिर जुड़ने लगे। मां ने घर के काम संभालने शुरू किए। एक दिन रसोई से दाल की खुशबू आई। अर्जुन मुस्कुराया—“यह तो बचपन की खुशबू है।” मां ने आंखों में आंसू भरकर कहा—“बेटा, देर से सही, पर अब मैं फिर से तेरी मां बनना चाहती हूं।”
आंदोलन की चिंगारी
अर्जुन ने ठान लिया कि उनकी मां की कहानी अकेली नहीं रहेगी। उन्होंने शहर में “मां का मान” अभियान शुरू किया। लक्ष्य था उन महिलाओं को सहारा देना जिन्हें हालात ने सड़क पर ला दिया। कार्यक्रम में मां को मंच पर बुलाया गया। कांपते हाथों से मां ने कहा—“मैंने बेटे को छोड़ा, गलती की। लेकिन समाज ने भी हमें कभी सहारा नहीं दिया। मेरी दुआ है किसी मां को यह दिन न देखना पड़े।”
यह भाषण लोगों के दिल को छू गया। मीडिया ने लाइव दिखाया। सोशल मीडिया पर हैशटैग चला—#मांका_मान। हजारों लोग जुड़ गए। एनजीओ और आम जनता ने सहयोग दिया।
सियासी षड्यंत्र
लेकिन सच इतना आसान नहीं होता। कुछ हफ़्तों बाद अर्जुन के खिलाफ़ जांच बैठा दी गई। आरोप—सरकारी फंड का दुरुपयोग, पब्लिसिटी स्टंट। मीडिया का रुख भी बदल गया। बहस होने लगी—“हीरो या नाटकबाज?”
मां ने कहा—“बेटा, अगर मेरी वजह से सब हो रहा है तो छोड़ दो।” अर्जुन ने हाथ थामकर कहा—“नहीं अम्मा, सम्मान आधा छोड़ने से नहीं, पूरी लड़ाई जीतने से मिलता है।”
आख़िरी दांव
अर्जुन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। कैमरों के सामने सबूत रखे—एनजीओ के कागजात, फंडिंग के रसीदें, प्रगति रिपोर्ट। और कहा—“हां, मैंने सरकारी संसाधन इस्तेमाल किए। लेकिन किसके लिए? भूखे पेटों के लिए। अगर इसे पब्लिसिटी कहते हैं तो मैं गर्व से कहता हूं कि मैंने एक मां की सच्चाई को प्रचारित किया।”
यह बयान गूंज गया। भीड़ तालियां बजाने लगी। जनता ने उसे “असली बेटा” और “सच्चा अफ़सर” कहकर सम्मान दिया।
निष्कर्ष
अर्जुन सिंह और उनकी मां की यह कहानी केवल मां-बेटे का मिलन नहीं, बल्कि समाज के उस चेहरे का आईना है जो विधवा और बेसहारा औरतों को अकेला छोड़ देता है। यह हमें सोचने पर मजबूर करती है—रिश्ते खून से नहीं, निभाने से बनते हैं।
अर्जुन ने न सिर्फ़ अपनी मां को स्वीकार किया, बल्कि उन्हें समाज में सम्मान दिलाया। और यही वह पल था, जिसने यह साबित कर दिया कि वर्दी का असली अर्थ अपराधियों को पकड़ना ही नहीं, बल्कि इंसानियत को बचाना भी है।
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