SP मैडम का पति पंचरवाला, SP मैडम की आँखें फटी रह गई, जब पंचरवाला निकला उनका पति आखिर क्या थी सच्चाई
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किस्मत का मोड़
गर्मियों की उस दोपहर की तपिश में पूरा शहर पिघल रहा था। सड़कें अंगारों-सी झुलसा रही थीं, हवा में तपन ऐसी कि जैसे हर साँस सीने को चीर रही हो। मोहल्लों के घरों में लोग पंखों के नीचे पसीना पोंछते बैठे थे। लेकिन उस दोपहरी से कहीं अधिक तीखा दर्द अचानक मोहनलाल जी के दिल में उठा।
“हाय राम!” कहकर वे छाती पकड़कर कराह उठे। उनकी आवाज सुनते ही उनका इकलौता बेटा अजय दौड़ा चला आया।
“पिताजी! हिम्मत रखिए… मैं अभी आपको अस्पताल ले चलता हूँ।”
अजय के स्वर में डर की कंपन थी। उसने तुरंत सड़क पर दौड़कर एक रिक्शा रोका और किसी तरह पिता को बैठाया। चेहरे पर घबराहट, आँखों में आँसू और सांसों में दुआएँ लिए अजय बार-बार बुदबुदाता रहा—
“हे भगवान! मेरे पिता को कुछ मत होने देना… मैं उनके बिना जी भी नहीं पाऊँगा।”
अस्पताल पहुँचकर उसने तेजी से पंजीकरण करवाया, कागज पूरे किए और सीधे आपातकालीन वार्ड की ओर भागा। उसके कानों में बस पिता की कराहें गूंज रही थीं और दिल में हाहाकार मचा था।
दरवाज़ा खुला और अजय पिता को भीतर ले गया। लेकिन अंदर कदम रखते ही जो दृश्य उसने देखा, उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। सामने खड़ी डॉक्टर की आँखें… वही पहचान, वही दर्द… वही अधूरा रिश्ता। वह कोई और नहीं, उसकी तलाकशुदा पत्नी स्नेहा थी।
एक पल को समय ठहर गया। अजय का दिल जैसे भारी पत्थर के नीचे दब गया। गला सूखकर काँपने लगा।
यह वही स्त्री थी जिसके साथ कभी उसने जीवनभर का वादा किया था। लेकिन छोटी-छोटी गलतफहमियों और अहंकार ने उन वादों को तोड़कर रिश्ते को जड़ से उखाड़ दिया।
आँखें मिलीं। उन आँखों में अधूरा प्रेम भी था, बिछड़ने का पछतावा भी और उन शब्दों का बोझ भी जिन्हें कभी कह न सके।
लेकिन इस समय परिस्थिति और थी। स्नेहा ने अपने भावनाओं को दबाते हुए पेशेवर स्वर में कहा—
“मरीज को तुरंत भर्ती करना होगा। हालत बेहद नाजुक है।”
उसकी आवाज़ काँप रही थी, मगर कर्तव्य का सख्त लहजा उसमें हावी था।
मोहनलाल जी को वार्ड में ले जाया गया। अजय बाहर खड़ा रहा, भीतर से टूटता हुआ, और मन ही मन पिता की जिंदगी के लिए प्रार्थना करता रहा।
यादों की परछाइयाँ
वार्ड की सफेद दीवारों के बीच खड़ा अजय अतीत में लौट गया। उसे याद आने लगा वह दिन जब उसने पहली बार स्नेहा को कॉलेज की लाइब्रेरी में देखा था। किताबों के ढेर के बीच उसका मासूम चेहरा जैसे रोशनी बिखेर रहा था।
दोस्ती हुई। धीरे-धीरे वह दोस्ती प्रेम में बदल गई। दोनों ने सपनों का घर बसाने की कसम खाई।
लेकिन हकीकत सपनों से कठिन होती है। अजय का स्वभाव कठोर था। नौकरी का तनाव, परिवार की जिम्मेदारियाँ और पुरुष का अहंकार – इन सबके बीच वह अक्सर स्नेहा की छोटी-छोटी बातें अनसुनी कर देता।
स्नेहा बेबाक थी, अपनी बात कहने से पीछे नहीं हटती थी। इसीलिए रोज किसी न किसी मुद्दे पर टकराव होता। कभी घर के खर्च पर बहस, कभी समय की कमी पर नाराज़गी, और कभी बस भावनाओं की अनसुनी होने पर चोट।
छोटी-छोटी तकरारें धीरे-धीरे रिश्ते का ज़हर बन गईं। और एक दिन बात इतनी बढ़ी कि दोनों ने ऐसे शब्द कहे जो तीर से भी गहरे थे। वही लड़ाई तलाक की ओर पहला कदम साबित हुई।
तलाक के बाद स्नेहा ने अकेलापन चुना और अजय पिता के साथ रह गया। पर भीतर से दोनों खाली थे। दोनों जानते थे कि प्यार था… लेकिन अहंकार ने उस प्यार को दफ़्न कर दिया।
किस्मत का इम्तिहान
अब वही अहंकार अस्पताल की सफेद दीवारों में गूंज रहा था।
अजय बेचैन होकर कॉरिडोर में टहल रहा था। हर बार जब कोई नर्स बाहर आती, उसका दिल जोर से धड़कने लगता। उसे उम्मीद रहती कि कोई अच्छी खबर मिलेगी।
अंदर स्नेहा सफेद कोट में पूरी गंभीरता से पिता का इलाज कर रही थी। उसकी आँखों में चिंता थी, मगर हाथ स्थिर थे। वह सिर्फ डॉक्टर नहीं थी – आज वह जीवन की रक्षक थी।
रात भर स्नेहा बिना थके ड्यूटी करती रही। अजय ने देखा कि थकान के बावजूद उसकी आँखें चौकस थीं। उसने धीरे से कहा—
“स्नेहा, थोड़ी देर आराम कर लो… मैं यहाँ हूँ।”
स्नेहा ठिठकी, उसकी ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोली—
“डॉक्टर का आराम मरीज से बड़ा नहीं होता। अजय, मुझे तुम्हारे पिता को हर हाल में बचाना है।”
यह सुनकर अजय का मन भीग गया। वही औरत जिसे कभी उसने कटु शब्दों से घायल किया था, आज उसके पिता की ढाल बनी हुई थी।
रात के सन्नाटे में अजय ने देखा कि स्नेहा हाथ जोड़कर गहराई से प्रार्थना कर रही थी। उसके मन में आया— “इतनी शिद्दत से तो उसने कभी मेरे लिए भी दुआ की होगी… और मैंने उसे बदले में क्या दिया? बस कटुता और दूरी।”
अजय की आँखें छलक पड़ीं।
मौत से जंग
सुबह होते ही डॉक्टरों ने बताया कि मोहनलाल जी की हालत स्थिर तो हुई है, लेकिन खतरा अब भी टला नहीं है। तभी अचानक हालत बिगड़ गई।
वरिष्ठ डॉक्टर ने कहा—
“इमरजेंसी प्रक्रिया करनी होगी। कुछ मिनटों की भी देरी खतरनाक हो सकती है।”
स्नेहा ने तुरंत कमान संभाली। दस्ताने पहने, दवाइयाँ तैयार करवाई और आत्मविश्वास के साथ ऑपरेशन थिएटर में चली गई।
बाहर खड़ा अजय बेचैनी से दरवाजे को ताकता रहा। अंदर मशीनों की आवाजें, डॉक्टरों की तेज़ पुकार और अफरातफरी…
“डिफिब्रिलेटर तैयार करो… जल्दी!” स्नेहा की आवाज गूँजी।
अजय का दिल बैठ गया। आँसू रुक नहीं रहे थे। होंठ बस बुदबुदा रहे थे—
“हे भगवान! मेरे पिता को बचा लो।”
कुछ देर बाद अचानक खामोशी छा गई। यह खामोशी अजय के लिए मौत से भी डरावनी थी।
तभी दरवाज़ा खुला। बाहर आई स्नेहा— थकी हुई मगर आँखों में चमक थी। उसने कहा—
“अब खतरा टल चुका है। आपके पिता ने जिंदगी की लड़ाई जीत ली है।”
अजय घुटनों के बल बैठ गया। उसकी आँखों से आँसू झरते रहे। उसने भगवान को धन्यवाद कहा और स्नेहा की ओर देखा।
“स्नेहा, अगर आज तुम न होती तो मैं अपने पिता को खो देता… और मेरा जीवन हमेशा अधूरा रह जाता।”
स्नेहा की आँखें भीग गईं। उसने संयत होकर कहा—
“अजय, मैंने तो बस अपना कर्तव्य निभाया है। रिश्ते चाहे जैसे हों, मगर किसी जिंदगी को बचाना मेरा धर्म है।”
अजय काँपते स्वर में बोला—
“रिश्ता कभी सिर्फ कागज पर लिखे तलाक से नहीं टूटता, स्नेहा। सच तो यह है कि मैं आज भी तुमसे दूर नहीं हो सका।”
टूटा रिश्ता, नया आरंभ
स्नेहा सन्न रह गई। उसकी आँखों से आँसू ढलक पड़े।
“तो फिर क्यों, अजय? क्यों हमारे बीच अहंकार की दीवार खड़ी कर दी? अगर तुम एक कदम बढ़ाते, तो मैं आज भी तुम्हारे साथ होती।”
अजय ने सिर झुका लिया।
“हाँ, गलती मेरी थी। मेरा अहंकार, मेरी कठोरता, मेरी चुप्पी—सब मेरी हार थी। अगर आज ईश्वर मुझे एक और मौका दे तो… क्या तुम हमारे रिश्ते को फिर से जीने दोगी?”
स्नेहा ने गहरी साँस ली। उसकी आँखों में झलकता पछतावा, सच्चाई और अनकहा प्यार… उसने हल्की मुस्कान दी।
तभी धीरे-धीरे आँखें खोलते हुए मोहनलाल जी ने दोनों को साथ देखा। उनके होंठों पर थकी हुई मुस्कान आई—
“मेरा परिवार अब फिर से पूरा हो गया क्या?”
दोनों की आँखें भीग गईं। उन्होंने चुपचाप सिर हिला दिया।
समापन
कुछ दिनों बाद मोहनलाल जी घर लौट आए। मोहल्ले में उत्सव जैसा माहौल था। सबसे बड़ी खुशी यह थी कि अजय और स्नेहा फिर से एक हो गए थे।
जहाँ कभी झगड़े और चुप्पियाँ छाई रहती थीं, वहाँ अब हँसी, अपनापन और समझदारी का रंग था। स्नेहा ने घर की देहरी पर कदम रखा, इस बार बोझ नहीं, बल्कि उम्मीद की चमक के साथ।
अजय ने भी सीख लिया कि रिश्ते निभाने का सबसे बड़ा हथियार प्यार और धैर्य है, अहंकार नहीं।
धीरे-धीरे उनका घर फिर से बच्चों की किलकारियों और खुशियों से भर गया।
यह कहानी सिर्फ अजय और स्नेहा की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है जिसने कभी रिश्तों को अहंकार और गलतफहमियों की भेंट चढ़ा दिया।
सच्चाई यही है—
कोई रिश्ता कभी टूटता नहीं। अगर दिल से कोशिश की जाए, तो किस्मत भी उसे जोड़ने का रास्ता बना देती है।
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