दोस्तों, दोपहर के 3 बजे थे। जुलाई की तपती गर्मी में लखनऊ की सड़कों पर बसें भाप छोड़ती मशीनों जैसी लग रही थीं। सरोजनी नगर से कश्मीरी गेट जाने वाली एक सरकारी बस पूरी तरह खचाखच भरी हुई थी। लोग पसीने से तर-बतर मोबाइल थामे हुए या तो नींद में झूल रहे थे या खिड़की से बाहर धूल झांक रहे थे।
अचानक, बस के अगले दरवाजे से एक बुजुर्ग व्यक्ति चढ़े — उम्र करीब 65 बरस, चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ, आंखें अंदर धंसी हुई, पहनावे में एक पुरानी सफेद कमीज और मैला सा पायजामा। उनके चप्पल की एक पट्टी भी टूटी हुई थी। जैसे ही वह बस में चढ़े, कुछ लोगों ने नाक सिकोड़ ली, कोई बुदबुदाया, “सारे भिखारी अब बसों में चढ़ते हैं।” बुजुर्ग ने किसी की ओर ध्यान नहीं दिया, चुपचाप एक कोने में जाकर सीट के नीचे बैठ गए।
कुछ मिनट बाद कंडक्टर आया — करीब 30 साल का युवक, थके और चिढ़े हुए स्वर में जोर से बोला, ‘‘ए बाबा, कहां से चढ़े? टिकट निकालो!’’ बुजुर्ग ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘बेटा, पैसे नहीं हैं… मुझे अस्पताल जाना है, दवा लेनी है, बहुत जरूरी है।’’ कंडक्टर तमतमा गया, “बहाना मत बनाओ! सब यही ड्रामा करते हैं, अस्पताल जाना है, मां बीमार है, उतरो!” भीड़ चुप थी, किसी ने कोई विरोध नहीं किया। कंडक्टर ने बुजुर्ग को लगभग घसीटते हुए अगले स्टॉप पर उतार दिया। उनका बैग और दवाइयों का पुराना पर्चा सड़क पर गिर गया। बुजुर्ग वहीं फुटपाथ पर थक हार कर बैठ गए।
बस आगे बढ़ गई। भीड़ अब भी चुप थी। लेकिन बस में खड़ी एक महिला उसी जगह देख रही थी, जहां बुजुर्ग को उतारा गया था। उम्र करीब 33 साल, नीली सूती साड़ी, साधारण पहनावा पर आंखों में चमक। उसने ड्राइवर से कहा, “बस रोको!” ड्राइवर चौंक गया, लेकिन आवाज में कुछ ऐसा आदेश था कि बस रुक गई। सबकी नजर महिला पर थी।
महिला तेजी से नीचे उतरी, सीधे बुजुर्ग के पास गई, “बाबा, आप ठीक हैं?” बुजुर्ग की आंखों में आंसू थे — “बेटी, कुछ नहीं चाहिए…” महिला ने उनके बैग से पर्चियां उठाकर सीधी कीं, पूछा “किस अस्पताल जाना था?” “मिशन अस्पताल,” बुजुर्ग बोले, “ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया है, डॉक्टर ने आज बुलाया था…” महिला ने तुरंत फोन किया, “एक कार भेजिए, जहां कंडक्टर ने मुझे बस से उतारा।” बुजुर्ग हैरान, “बेटी, तुम कौन हो?” महिला मुस्कुरा दी, “एक इंसान, जो चुप रहना नहीं जानती।”
कुछ ही मिनटों में एक चमचमाती गाड़ी आ गई, जिस पर लिखा था ‘जन कल्याण ट्रांसपोर्ट।‘ महिला ने बुजुर्ग को सहारा देकर कार में बैठाया और ड्राइवर से कहा, “सीधे मिशन अस्पताल चलो।” बस के यात्री, खिड़की से ये सब देख रहे थे। कंडक्टर हक्का-बक्का, “ये तो हमारी कंपनी की डायरेक्टर है!”
अस्पताल पहुंचने पर महिला ने रिसेप्शन पर कहा, “इनके इलाज का पूरा खर्च मेरी कंपनी उठाएगी, और हां, आगे से हर बस स्टाफ को सिखाइए कि कैसे जरुरतमंद की पहचान करें।” डॉक्टर ने तुरंत इलाज शुरू किया। महिला एक कोने में बैठ गई। बाकी लोग अब एक-दूसरे का चेहरा देख रहे थे। साधारण साड़ी, ढीले जूड़े में पिन — वही महिला इतनी बड़ी कंपनी की मालकिन!?
डॉक्टर ने बताया — ‘‘अगर आधा घंटा और देर हो जाती तो हार्ट अटैक हो सकता था।’’
महिला चुप रही, आंखों में संतुष्टि थी कि समय पर मदद मिली। डॉक्टर ने पूछा, ‘‘आप रिश्तेदार हैं?’’ महिला हंसते हुए बोली – ‘‘नहीं, बस एक अजनबी, जिसने सही समय पर इंसानियत चुनी।’’
कुछ दिन बाद बुजुर्ग स्वस्थ हो गये। महिला ने मुस्कुराकर पूछा, ‘‘अब कैसा लग रहा है बाबा?’’ बुजुर्ग ने उनका हाथ पकड़कर कहा, ‘‘बेटी, बहुत लोग देखे — कोई पैसा देता, कोई नाम, मगर तुमने मुझे सम्मान दिया, वही सबसे बड़ी दौलत है।’’
महिला की आंखें छलछला गईं, ‘‘आप जैसे लोगों की दुआ से हम बड़े हुए हैं। यह मेरा फर्ज था — और हां, आज से हर बस में एक सीट जरूरतमंदों के लिए आरक्षित होगी, बिना सवाल-शक।’’
तीसरे दिन उसी बस का वही कंडक्टर अस्पताल आया — अब साफ प्रेस की यूनिफार्म पहने, हाथ में गुलदस्ता लिए। उसने दरवाजे पर खड़े होकर माफी मांगी, ‘‘साहब, उस दिन मैंने इंसानियत नहीं देखी, बस पैसे गिनने की जिम्मेदारी समझी।’’
महिला बोली, ‘‘गलती इंसान से होती है, पर जो इंसान अपनी गलती से सीख ले, वही असली इंसान है।’’
कुछ दिन बाद शहर की हर जनकल्याण बस पर लिखा था — “अगर किसी ने मदद मांगी और आपके पास देने को कुछ नहीं था, तो कम से कम इंसानियत भरा जवाब ज़रूर दीजिए।” अब हर बस में एक ‘इमरजेंसी सीट’ थी, उन जरूरतमंदों के लिए — क्योंकि इंसान की पहचान उसकी हालत से नहीं, उसके सम्मान और इंसानियत से होनी चाहिए।
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