बनिये ने उधार देकर की गरीब परिवार की मदद, सालों बाद जब वो परिवार लौटा तो उन्होंने वो किया जो हैरान

लाल बही का हिसाब: एक बनिए की इंसानियत और 20 साल बाद लौटा भरोसा

राजस्थान की तपती धरती पर, जयपुर से दूर रतनपुर नाम का एक छोटा सा कस्बा था। कस्बे के बीचोंबीच एक पुराना बरगद और उसके सामने लकड़ी की पुरानी दुकान—अमरनाथ किराना स्टोर। दुकान के मालिक थे लाला अमरनाथ। सिर पर गांधी टोपी, आंखों पर मोटा चश्मा, चेहरे पर सादगी और दिल में नरमी। उनकी दुकान सिर्फ सामान बेचने की जगह नहीं थी, बल्कि पूरे कस्बे की आत्मा थी। लोग दुख-सुख बांटने आते, उधार लेते, भरोसा रखते।

लाला जी की सबसे कीमती चीज थी उनकी लाल बही—वह मोटी सी किताब जिसमें हर घर का उधार लिखा था।
उनकी पत्नी शारदा अक्सर ताने मारती, “सारी दुनिया को उधार बांटते रहोगे, एक दिन दुकान में बोरी भी नहीं बचेगी!”
लाला जी मुस्कुरा देते, “यह सिर्फ उधार का हिसाब नहीं है, भरोसे का हिसाब है। जिस दिन भरोसा उठ गया, दुकान भी बंद हो जाएगी।”

उनकी लाल बही में कुछ खाते ऐसे भी थे, जिनके आगे सालों से कोई रकम नहीं लिखी गई थी। लेकिन लाला जी ने कभी उन नामों को काटा नहीं था।

एक बेबस परिवार की दस्तक

जेठ की तपती दोपहर थी। बाजार में सन्नाटा था। लाला जी ऊंघ रहे थे कि तभी एक आदमी, उसकी पत्नी और दो बच्चे दुकान की सीढ़ियों पर आ खड़े हुए।
आदमी ने कांपती आवाज में कहा, “सेठ जी, मेरा नाम रामकिशन है। पास के गांव से आया हूं। सूखे की वजह से सब बिक गया। शहर जा रहे थे, रास्ते में सामान और पैसे चोरी हो गए। दो दिन से बच्चों ने कुछ नहीं खाया। भीख नहीं मांग रहा, मजदूर हूं। मेहनत करना जानता हूं। बस थोड़ा राशन उधार दे दीजिए। गिरवी रखने को सिर्फ जुबान है।”

शारदा ने विरोध किया, “ना जान, ना पहचान। शक्ल से ही चोर लगता है।”
लेकिन लाला जी ने रामकिशन की आंखों में झांका—वहां झूठ नहीं था, सिर्फ लाचारी थी। उन्होंने लाल बही खोली, नया पन्ना लिखा—रामकिशन
“छोटू, 10 किलो आटा, 5 किलो चावल, 2 किलो दाल, तेल, नमक, मसाले, एक महीने का राशन बांध दे। मंदिर के पीछे धर्मशाला में टिक जाओ, कल काम का इंतजाम करूंगा।”

रामकिशन रो पड़ा, “आप इंसान नहीं, भगवान हैं।”
लाला जी बोले, “इंसान ही इंसान के काम आता है। बस नियत साफ रखना।”

रिश्ते का विस्तार और भरोसा

रामकिशन का परिवार कस्बे में बस गया। लाला जी ने उसे मजदूरी का काम दिलवाया।
रामकिशन मेहनती था, पर कमाई कम थी। हर महीने दुकान पर आता, सिर झुकाता, लाला जी बिना कुछ कहे लाल बही में एक और एंट्री कर देते।
दो साल में उधार ₹5000 हो गया—उस जमाने में बहुत बड़ी रकम। शारदा रोज ताने मारती, “अब काट दो नाम!”
लाला जी कहते, “जब तक नियत में खोट नहीं, नाम रहेगा।”

एक रात, एक गुमशुदगी

फिर एक सुबह कस्बे वालों ने देखा—रामकिशन का परिवार रातों-रात गायब हो गया। किराए की कोठरी खाली।
हर कोई कहने लगा, “देखा, धोखेबाज था। लाला जी को लूटकर भाग गया।”
शारदा ने हंगामा किया, “अब बैठो अपनी लाल बही लेकर!”
लाला जी चुप थे—पैसे के डूबने का नहीं, भरोसे के टूटने का दुख था।
उन्होंने नाम काटने की सोची, पर हाथ रुक गए। “जब तक यकीन नहीं हो जाता, नाम रहेगा।”

बीस साल बाद…

समय का पहिया घूमता रहा। दिन, हफ्ते, महीने, साल—20 साल गुजर गए।
रतनपुर बदल गया, नई सड़कें, बड़ी दुकानें, लेकिन अमरनाथ किराना स्टोर वैसा ही।
लाला जी बूढ़े हो चले थे, दुकान नहीं चलती थी, खुद कर्ज में डूबे थे।
वह अक्सर लाल बही निकालते, रामकिशन का नाम देखते, सोचते—क्या वह कभी लौटेगा?

किस्मत का हिसाब

एक दिन कस्बे में हलचल मच गई। पांच लग्जरी गाड़ियों का काफिला कस्बे में दाखिल हुआ, सीधा अमरनाथ किराना स्टोर पर रुका।
एक नौजवान महंगे सूट में, आत्मविश्वास से भरा, दुकान की सीढ़ियां चढ़ा।
“लाला जी, नमस्ते! पहचाना?”
लाला जी ने देखा, “नहीं बेटा।”
“मैं मोहन हूं, रामकिशन का बेटा।”
पीछे से रामकिशन और उसकी पत्नी भी आ गए—अब स्वस्थ, सम्मानित।

रामकिशन ने लाला जी के पैर पकड़ लिए, “सेठ जी, मुझे माफ कर दीजिए। मैं धोखेबाज हूं।”
लाला जी ने उठाया, “यह क्या कर रहे हो? अचानक क्यों चले गए थे?”

रामकिशन ने रोते हुए बताया, “उस रात बेटे की तबीयत बिगड़ गई थी, शहर जाना पड़ा। पैसे नहीं थे, और उधार मांगने की हिम्मत नहीं थी। सोचा, कमाकर लौटूंगा, पर किस्मत ने ठोकरें दीं। आपके दिए राशन और हिम्मत ने हमें टूटने नहीं दिया। मजदूरी की, पत्नी ने काम किया, बेटे को पढ़ाया।”

मोहन ने आगे कहा, “मैंने पढ़ाई की, सॉफ्टवेयर कंपनी शुरू की, आज देश की बड़ी कंपनियों में है। 20 साल तक आपका और आपके उधार का ख्याल रहा। आज कर्ज चुकाने आए हैं।”

हिसाब, ब्याज और इंसानियत का महल

मोहन ने चेकबुक निकाली, “₹5000 का कर्ज, 20 साल का ब्याज…”
लाला जी बोले, “नहीं बेटा, ब्याज नहीं चाहिए। तुम लोग लौट आए, यही बहुत है।”

मोहन मुस्कुराया, “वह तो दुकान का कर्ज था, इंसानियत का ब्याज अब शुरू होगा।”
सहायक ने ब्रीफकेस खोला—₹50 लाख।
“यह आपके भरोसे का ब्याज है।”
फिर एक फाइल निकाली, “आपकी दुकान अब सुपर मार्केट बनेगी—अमरनाथ एंड संस, आप मालिक होंगे।”
“कस्बे में अस्पताल—शारदा देवी चैरिटेबल हॉस्पिटल।”
“हर बच्चे की पढ़ाई का खर्च हमारी कंपनी उठाएगी, बड़ा स्कूल भी खुलेगा।”
“आपका बेटा अब कंपनी का मालिक है।”

लाला जी और शारदा रो रहे थे—खुशी के आंसू।
मोहन ने लाल बही निकाली, सोने के पेन से लिखा—हिसाब चुकता, भरोसे और इंसानियत के ब्याज के साथ।
“यह लाल बही सिर्फ किताब नहीं, इंसानियत की पाठशाला है।”

अंतिम सीख

उस दिन उस दुकान पर एक ऐसा हिसाब चुकता हुआ, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
एक बनिए ने भरोसे का छोटा सा बीज बोया, जो 20 साल बाद विशाल पेड़ बनकर लौटा—जिसकी छांव में पूरा कस्बा खुशहाल हो गया।

सीख:
भरोसे और इंसानियत से बड़ा कोई सौदा नहीं। एक छोटी सी निस्वार्थ मदद भी एक दिन लौटकर जीवन को खुशियों से भर देती है।

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