पिता की अंतिम यात्रा में बेटा नहीं आया – एक सच्ची कहानी
जिंदगी की इस तेज रफ्तार दौड़ में इंसान अक्सर भूल जाता है कि उसकी असली पूंजी क्या है। हम सब पैसे, शोहरत और सपनों की ओर इतना भागते हैं कि पीछे छूटे उन हाथों को याद भी नहीं कर पाते, जिन्होंने कभी हमें चलना सिखाया था।
यह कहानी भी कुछ ऐसी ही है। एक छोटे से गाँव से शुरू होने वाली यह दास्तान आपको सोचने पर मजबूर कर देगी कि आखिर जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई क्या है – धन, पद और प्रतिष्ठा या फिर वे रिश्ते जो हमारे जीवन का आधार हैं।
गाँव की मिट्टी में एक अलग ही महक होती है। सुबह की ठंडी हवा, खेतों में लहलाती फसलें और कच्ची गलियों में खेलते बच्चों की आवाजें – यही सब जीवन का असली सुख है। इसी माहौल में रहता था रामदयाल, एक साधारण किसान जिसकी उम्र ढल चुकी थी, लेकिन चेहरा मेहनत और सच्चाई से चमकता था।
रामदयाल की पत्नी, शांति देवी, घर-आँगन की देखभाल करती थी। सुबह से रात तक चूल्हा जलाती और हर निवाले में अपने बच्चों का हिस्सा सोचती। उनका जीवन आसान नहीं था, लेकिन दोनों ने अपने बेटे सुरेश और बेटी रीना के लिए कभी समझौता नहीं किया।
रीना छोटी थी, लेकिन हर वक्त माँ का हाथ बंटाती थी। वह अपने पापा से बहुत जुड़ी थी। हर शाम जब पिता खेत से लौटते, तो वह दौड़कर पानी का गिलास लाती और पूछती, “पापा, आज कितनी देर खेत में काम किया?” रामदयाल मुस्कुरा कर कहते, “बेटा, खेत ही तो हमारी सांस है। इन्हें छोड़ दें तो जीना मुश्किल हो जाएगा।”
बेटी की मासूमियत और पिता का स्नेह घर की रौनक था। लेकिन बेटा सुरेश धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। पढ़ाई में अच्छा था। गाँव के स्कूल से पढ़ाई करके शहर के कॉलेज का रास्ता पकड़ लिया। शुरुआत में सुरेश हर महीने गाँव आता, माँ का हाथ पकड़ता, पिता से बातें करता। लेकिन जैसे-जैसे शहर की चकाचौंध और नौकरी की दौड़ में फंसता गया, उसका लौटना कम होता गया। पहले महीने में एक बार, फिर तीन-चार महीने में, और धीरे-धीरे सालों तक उसका आना टलता चला गया।
शांति देवी अक्सर गाँव की औरतों से कहती, “बेटा बाहर गया है, अब वही हमारी उम्मीद है।” लेकिन भीतर-भीतर उनका मन हर बार टूट जाता था, जब त्योहारों और परिवार की खुशियों में भी बेटा सिर्फ फोन पर आवाज भेजता और कह देता, “माँ, इस बार नहीं आ पाऊँगा। काम बहुत है।”
रीना शादी के बाद भी अपने मायके आ जाती, माँ-बाप को संभालती, माँ के आँसू पोंछती और पिता से खेत-खलिहान की बातें करती। लेकिन माँ की नजरें हमेशा गली के उस मोड़ पर टिकी रहतीं, जहाँ से बेटा आता था। हर आहट पर लगता, शायद सुरेश आ रहा है। लेकिन निराशा बार-बार उन्हें घेर लेती।
फिर भी रामदयाल कभी शिकायत नहीं करते। वे अपने बेटे को लेकर गर्व से कहते, “हमारा बेटा बड़ा आदमी बनेगा। शहर में नाम कमाएगा।” वे जानते थे कि मेहनत का फल एक दिन लौटकर जरूर मिलता है। लेकिन किस्मत का खेल भी अजीब होता है। साल दर साल मेहनत करते-करते अब उनका शरीर जवाब देने लगा। कमर झुक चुकी थी, आँखों में धुंधलापन आ गया था, और कभी-कभी खेत पर जाते-जाते अचानक रुक जाते और थककर मेड पर बैठ जाते।
शांति देवी दौड़कर पानी देती और कहती, “अब छोड़ भी दो यह सब, थोड़ा आराम करो।” लेकिन रामदयाल हमेशा हँसकर कहते, “अरे जब तक सांस है, काम करते रहना चाहिए। यही तो हमारी पहचान है।”
गाँव के लोग उनका सम्मान करते थे, क्योंकि वे मेहनती और सच्चे इंसान थे। लेकिन भीतर-भीतर वे भी समझ रहे थे कि उम्र का बोझ अब उन्हें थका रहा है। उनकी उम्मीद बस बेटे से थी कि एक दिन वह लौटेगा और उनका सहारा बनेगा। मगर सुरेश अपनी नौकरी, दोस्तों और शहर की रंगीनियों में ऐसा डूबा कि उसे यह सब बस फोन पर सुनाई देता। कभी-कभी वह पैसे भेज देता और सोचता यही काफी है। लेकिन शायद वह भूल गया कि माँ-बाप को पैसों से ज्यादा जरूरत होती है, अपने बच्चों की मौजूदगी की।
शांति देवी कभी-कभी फोन पर गुस्से में कह देती, “बेटा, पैसा तो हर कोई कमा लेता है। हमें तेरी जरूरत है।” लेकिन सुरेश हँसकर टाल देता, “माँ, आप समझती क्यों नहीं? अभी मेहनत करनी है। अभी लौट नहीं सकता।” और यही दूरी, यही बेरुखी धीरे-धीरे रिश्तों को खोखला करने लगी।
रीना बार-बार माँ को समझाती, “माँ, भैया व्यस्त है। एक दिन जरूर आएगा।” लेकिन शांति देवी के आँसुओं में हर दिन सवाल उभरता, “जब सबसे जरूरी पल आएगा, तब क्या बेटा सच में लौट पाएगा?”
समय बीतता गया। रामदयाल का शरीर कमजोर होता गया। खेत की मेड पर बैठकर वे अक्सर अपनी सांसों की थकान महसूस करने लगे। आँखों में अब वही चमक नहीं रही थी और हाथों में पहले जैसी ताकत नहीं थी। शांति देवी उन्हें देखती तो दिल से काँप जाती। लेकिन वे हर बार यही कहते, “चिंता मत कर, अभी मैं बिल्कुल ठीक हूँ।” जबकि भीतर-भीतर वे जानते थे कि अब जीवन का सफर लंबा नहीं बचा।
एक शाम जब वे खेत से लौटे तो अचानक खांसी का दौरा पड़ा और साँसें अटकने लगीं। रीना जो मायके आई हुई थी, दौड़कर पानी लाई और घबराकर बोली, “पापा, आप ठीक हैं ना?” माँ ने गाँव के वैद्य को बुलाया, पर उसने भी धीरे से कहा, “अब इनकी हालत बिगड़ रही है। शहर ले जाइए तो शायद कुछ राहत मिले, लेकिन यह उम्र अब इलाज नहीं मांगती, दुआ मांगती है।”
यह सुनकर शांति देवी की आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने तुरंत सुरेश को फोन मिलाया। आवाज काँप रही थी, “बेटा जल्दी आजा। तेरे पिताजी की हालत खराब है। शायद अब ज्यादा समय नहीं बचा।” फोन के उस पार से सुरेश की आवाज आई, “माँ आप घबराओ मत। मैं पैसे भेज रहा हूँ। अच्छे डॉक्टर को दिखा लो। अभी ऑफिस से छुट्टी मिलना मुश्किल है।”
यह सुनकर माँ का दिल बैठ गया। उन्होंने रोते-रोते कहा, “बेटा हमें पैसों की नहीं, तेरी जरूरत है।” लेकिन सुरेश ने जल्दबाजी में फोन काट दिया। रीना माँ को संभालती रही और कहती, “माँ, भैया को समय नहीं मिल रहा होगा। आप चिंता मत करो।” मगर भीतर से वह भी टूट रही थी।
दिन बीते, रामदयाल की हालत और बिगड़ने लगी। कभी-कभी रात को वे नींद में उठ बैठते और खांसते हुए कहते, “शांति, क्या हमारा बेटा आएगा? मैं उसे आखिरी बार देखना चाहता हूँ।” शांति देवी दिल पर पत्थर रखकर बस यही कह पाती, “हाँ, जरूर आएगा।” लेकिन उनके मन को भी पता था कि बेटा अब नहीं आएगा।
गाँव के लोग भी बातें करने लगे थे, “आजकल के बच्चे बदल गए हैं, बुजुर्गों का साथ देना भूल गए हैं।” यह बातें शांति देवी के कानों तक पहुँचतीं तो उनकी आँखों से झरझर आँसू बहने लगते। रीना हर तरफ से माँ को संभालती। गाँव के बुजुर्ग रामदयाल से मिलने आते, उनके पास बैठकर कहते, “चिंता मत करना, सब ठीक हो जाएगा।” लेकिन उनकी आँखों की नमी यह बयां कर देती कि वे भी जानते हैं, अब विदाई का समय पास है।
एक रात जब हवा ठंडी थी और आसमान में सितारे साफ दिख रहे थे, रामदयाल ने अपनी आखिरी साँसे लीं। उनके चेहरे पर अजीब सी शांति थी, मानो सब कुछ छोड़कर वे किसी सुकून की ओर जा रहे हों। शांति देवी रोती-रोती उनके पास गिरीं। रीना ने चिल्लाकर कहा, “माँ, पापा चले गए।” पूरा गाँव शोक में डूब गया।
अगले दिन सुबह जब उनकी अंतिम यात्रा की तैयारी हुई तो चारों तरफ रोने की आवाजें गूंजने लगीं। औरतें आँगन में बैठकर सिर पीट रही थीं, पुरुष चिता की तैयारी कर रहे थे। लेकिन सबसे बड़ा दर्द यह था कि बेटा कहीं नजर नहीं आ रहा था। माँ की आँखें हर बार दरवाजे की तरफ उठतीं कि शायद अभी सुरेश आएगा। लेकिन खाली रास्ता उन्हें और तोड़ देता।
रीना ने माँ का हाथ पकड़कर कहा, “माँ, अब हमें ही पापा को विदा करना होगा।” शांति देवी की चीख निकल गई, “नहीं, यह कैसे हो सकता है? बाप की चिता बेटा ही तो कंधा देता है। सुरेश कहाँ है?” मगर सुरेश नहीं आया। गाँव वाले भी कहने लगे, “कितनी दुख की बात है, पिता चला गया और बेटा तक नहीं आया। यही तो जमाना बदल गया है।”
डमरू की थाप, मंत्रों की गूंज और सिसकियों के बीच अर्थी उठी, लेकिन उस अर्थी पर बेटे का कंधा खाली था। उस दिन माँ के आँसुओं ने धरती को भिगो दिया और रीना का दिल भी टुकड़े-टुकड़े हो गया। लेकिन मजबूरी यही थी कि अंतिम यात्रा बिना बेटे के ही निकल पड़ी।
गाँव की गलियों में उस दिन एक सन्नाटा था। सिर्फ ढोलक और मंत्रों की आवाजें गूंज रही थीं। हर किसी के चेहरे पर शोक था और शांति देवी का हृदय जैसे टूट कर बिखर चुका था। पति की अर्थी को उठते देख उनकी चीख पूरे गाँव में गूंज गई, “रामदयाल, तू मुझे छोड़कर क्यों चला गया?” रीना ने आँसुओं के बीच माँ को संभाला और मजबूरी में पिता की चिता को कंधा दिया।
गाँव के लोग कह रहे थे, “बेटा होते हुए भी पिता की अंतिम यात्रा में शामिल ना होना सबसे बड़ा पाप है।” यह शब्द शांति देवी के दिल को चीरते चले गए। उनकी आँखें लगातार उस रास्ते को देख रही थीं जहाँ से सुरेश आता। लेकिन वह रास्ता खाली रहा। अंतिम यात्रा बिना बेटे के ही पूरी हुई। चिता जली, राख उड़कर आसमान में गई और उसके साथ ही शांति देवी की उम्मीदें भी राख हो गईं।
महीनों तक घर का आँगन सुनसान रहा। रीना बार-बार मायके आती, माँ को संभालती। लेकिन हर बार माँ का सवाल वही होता, “क्या तुझे भैया का कुछ पता है? क्या वह अब आएगा?” और रीना आँखें झुका कर कह देती, “माँ, शायद अब पछता रहा होगा।”
समय बीतता गया और आखिर एक दिन सुरेश गाँव आया। हाथ में बैग, आँखों में थकान और चेहरे पर गहरी उदासी। गाँव वाले उसे देखकर बुदबुदाए, “अब आया है, जब सब खत्म हो गया।” सुरेश ने जब घर में कदम रखा तो माँ बरामदे में बैठी थी – सफेद साड़ी, झुर्रियों से भरा चेहरा और आँखों में अजीब सी खालीपन। सुरेश घुटनों के बल गिर पड़ा और रोते हुए बोला, “माँ, मुझे माफ कर दो। मैं आ नहीं पाया, ऑफिस की जिम्मेदारियों में फंस गया।”
शांति देवी ने आँसू पोंछते हुए कहा, “बेटा, पैसा, नौकरी सब जिम्मेदारियाँ अपनी जगह हैं, लेकिन पिता की अंतिम यात्रा से बड़ी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। तेरे पापा आखिरी वक्त तक तेरा इंतजार करते रहे, हर सांस में तेरा नाम लिया और तू, तू नहीं आया।” सुरेश का गला सूख गया, उसने माँ के पैरों को पकड़ लिया, “माँ, मुझे एक और मौका दो, मैं अपनी गलती सुधारना चाहता हूँ।”
शांति देवी ने भारी मन से कहा, “बेटा, जिंदगी हर गलती की माफी देती है, लेकिन माँ-बाप के जाने के बाद पछतावे की कोई दवा नहीं होती।” यह सुनकर सुरेश फूट-फूट कर रो पड़ा। गाँव के लोग भी उसकी तरफ देखकर बोले, “बेटा, जो कर गया है, उसे मिटा नहीं सकता, लेकिन अब भी रिश्तों को संभाल सकता है।”
उस दिन सुरेश ने कसम खाई कि अब कभी माँ को अकेला नहीं छोड़ेगा। अब हर त्योहार, हर खुशी और हर दुख में वह साथ रहेगा। उसने महसूस किया कि असली दौलत वही है, जो आँगन में बैठी बूढ़ी माँ की मुस्कान से मिलती है। वह समझ चुका था कि शोहरत और पैसा तो फिर से कमाया जा सकता है, लेकिन माँ-बाप की छाँव लौट कर कभी नहीं आती।
दोस्तों, यही इस कहानी का संदेश है कि हम चाहे कितने भी व्यस्त हो, हमें अपने माता-पिता के साथ समय जरूर बिताना चाहिए, क्योंकि उनके जाने के बाद सिर्फ पछतावा रह जाता है और आँसुओं से कोई भी खालीपन नहीं भरता।
यह कहानी सिर्फ रामदयाल, शांति देवी और सुरेश की नहीं है, यह हम सबकी हकीकत है। क्योंकि आज हम सब अपनी जिंदगी की दौड़ में इतने व्यस्त हो गए हैं कि पीछे छूटे माँ-बाप को देख ही नहीं पाते। वे जिनकी दुआओं से हम इस मुकाम तक पहुँचे, जिनके बलिदानों से हमारी नींव मजबूत हुई, वही माँ-बाप जब हमें सबसे ज्यादा जरूरत से पुकारते हैं, तो हम अक्सर कह देते हैं, “समय नहीं है।”
लेकिन सच यही है दोस्तों, कि पैसा तो बार-बार कमाया जा सकता है, नौकरी फिर से मिल सकती है, लेकिन माँ-बाप का साथ एक बार चला गया तो कभी लौट कर नहीं आता। सोचिए, अगर कल सुबह उठते ही आपके घर का वह दरवाजा खाली रह गया, जहाँ से हर रोज माँ-बाप की आवाज आती थी, तो कैसा लगेगा? क्या तब पैसा आपके आँसू पोंछ पाएगा? क्या नौकरी आपके लिए कंधा बन पाएगी? नहीं, तब सिर्फ पछतावा बचेगा।
इसलिए आज, इसी वक्त अपने माँ-बाप को गले लगाइए, उनसे कहिए कि आप उनसे कितना प्यार करते हैं। उनके साथ बैठिए, दो पल गुजारिए, क्योंकि यही असली दौलत है, यही असली वरदान है।
अगर आप मानते हैं कि यही जिंदगी की सच्चाई है, तो नीचे कमेंट में अपने दिल की बात जरूर लिखें। अगर इस कहानी ने आपके दिल को छुआ है, तो इस वीडियो को लाइक करें और चैनल को सब्सक्राइब करें ताकि ऐसी और सच्ची कहानियाँ आप तक पहुँचती रहें।
याद रखिए दोस्तों, माँ-बाप भगवान का दूसरा रूप हैं। उनका साथ छूट गया तो सब कुछ खाली हो जाता है।
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