गंगा में डूब रही थी लड़की… अजनबी लड़के ने बचाया | फिर जो हुआ, इंसानियत रो पड़ी

एक छोटे से कस्बे में हरीश नाम का आदमी रहता था। हरीश की उम्र पचपन साल थी और वह पेशे से मज़दूर था। उसकी पत्नी आशा सब्ज़ियां बेचकर घर चलाने में मदद करती थी। दोनों का परिवार बहुत अमीर तो नहीं था, लेकिन मेहनत और ईमानदारी से गुज़ारा चलता था। बड़ा बेटा लंबी दूरी के ट्रक चलाता था और बेटी ने हाल ही में विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया था। जीवन कठिनाइयों से भरा था, पर घर में सादगी और संतोष था।

हरीश की एक आदत पूरे मोहल्ले में मशहूर थी – वह पिछले बीस सालों से हर हफ़्ते लॉटरी का टिकट खरीदा करता था। गली के नुक्कड़ पर, शराब की दुकान के पास एक छोटा-सा स्टॉल था, वहीं से वह टिकट लिया करता। न बारिश उसे रोक पाती, न धूप, न कोई व्यस्तता। हर हफ़्ते, वही समय, वही स्टॉल, वही उत्सुकता।

पड़ोस वाले अक्सर मज़ाक उड़ाते –
“अरे हरीश भाई, कभी तो किस्मत चमकेगी? ज़रूर करोड़पति बनने वाले हो।”
हरीश बस धीमे से मुस्कुराते और कहते –
“भाई, यूँ ही शौक़ है, कौन जाने किस दिन भगवान दया कर दें।”

पत्नी आशा को यह आदत शुरू में बिलकुल पसंद नहीं थी। वह कई बार कहती –
“इन पैसों से चावल-आटा ले आते तो घर का काम आसान हो जाता। बेकार में खर्च मत किया करो।”
लेकिन हरीश हर बार चुप रहते, टिकट को पुराने चमड़े के बटुए में रख देते और अपने काम में लग जाते। धीरे-धीरे आशा ने हार मान ली और इसे अपने पति की ज़िद्दी आदत मानकर भूलने लगी।

साल दर साल गुज़रते गए। टिकट खरीदने का सिलसिला चलता रहा। घर की हालत ज़्यादा नहीं सुधरी। वही मजदूरी, वही सब्ज़ी का ठेला, वही संघर्ष। आशा को लगता था कि हरीश बस थकान मिटाने के लिए यह सब करते हैं, मानो सपनों में थोड़ी-सी राहत तलाशते हों।

लेकिन एक सर्द सुबह सब कुछ बदल गया। हरीश अचानक गिर पड़े। अस्पताल ले जाया गया, लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। उनकी मौत हो गई। परिवार पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। साधारण-सा अंतिम संस्कार हुआ और सब लोग चले गए। घर में बस आशा की सिसकियाँ गूंज रही थीं।

दिन बीतने लगे। एक दिन आशा ने हरीश का पुराना बटुआ खोला – वही बटुआ जिसे वह हमेशा अपने पास रखते थे। अंदर दर्जनों- सैकड़ों लॉटरी के टिकट थे। हर साल का ढेर, हर महीने का बंडल। आशा पहले तो बस उदासी में उन्हें पलटती रही। फिर अचानक उसकी नज़र एक छोटी-सी नोटबुक पर पड़ी।

उस नोटबुक के हर पन्ने पर तारीख़, टिकट नंबर और विजेता नंबर लिखे थे। हरीश ने बड़े ध्यान और सावधानी से, सालों-साल यह सब दर्ज किया था। आशा हर पन्ना उलटती गई। उसे यह देख हैरानी हुई कि हरीश ने कभी एक भी ड्रॉ मिस नहीं किया था।

फिर आख़िरी पन्ने पर पहुँचते ही उसकी आँखें फटी रह गईं। वहाँ वही नंबर लिखे थे जो सरकार की सबसे बड़ी लॉटरी के नतीजों से पूरी तरह मेल खाते थे – यह सात साल पुरानी बात थी। उस टिकट पर करोड़ों रुपये का इनाम था।

आशा के हाथ कांपने लगे। टिकट अब बेमानी हो चुका था, उसकी वैधता समाप्त हो गई थी। हरीश ने यह राज कभी किसी से साझा नहीं किया। न पत्नी से, न बच्चों से। शायद उन्होंने नोटिस ही नहीं किया, या शायद डर गए कि अचानक आए धन से घर बिगड़ जाएगा।

उस पल आशा समझ गई कि बीस साल की मेहनत, उम्मीद और सपनों का सिलसिला एक अधूरी दास्तान बनकर रह गया। करोड़ों का इनाम उनकी आँखों के सामने था, लेकिन अब वह सिर्फ एक कागज़ की बेकार पर्ची थी।

आशा देर तक वही बैठी रही, टिकटों के ढेर और उस नोटबुक को ताकती रही। उसके आँसू बहते रहे, और दिल में यह सवाल गूंजता रहा – “आख़िर हरीश ने क्यों नहीं बताया? क्यों अपनी खुशियों का राज़ छुपाकर चले गए?”

यह कहानी वहाँ ख़त्म हुई जहाँ से असली शुरुआत हो सकती थी। किस्मत ने जैसे हरीश के साथ बड़ा मज़ाक किया हो। टिकटें अब भी पुराने बटुए में थीं, लेकिन उनमें छिपे सपनों की चमक हमेशा के लिए बुझ चुकी थी।

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