अरबपति महिला ने अपने भतीजे को परखने के लिए सफाई कर्मचारी का भेष बदला। आगे कहानी में क्या हुआ?

कहते हैं इंसान की असली पहचान उसके कपड़ों से नहीं, उसके दिल से होती है। लेकिन मुंबई के इस आलीशान सावित्री टॉवर में दिल को कौन देखता था? यहां तो सिर्फ महंगे सूट, विदेशी परफ्यूम, और चमकते जूतों की कीमत थी। इस टॉवर की लॉबी में, 60 साल की सावित्री देवी अपने घुटनों पर झुकी हुई थीं। वह ठंडे संगमरमर के फर्श को रगड़ रही थीं। उनकी सूती साड़ी का रंग उड़ चुका था और किनारे पर एक छोटा सा छेद था, जिसे उन्होंने ध्यान से मोड़कर छिपाने की कोशिश की थी। उनके हाथ खुरदरे थे और माथे पर पसीने की बूंदें थीं, जिन्हें वह अपने पल्लू से पोंछ लेती थीं। जो भी उन्हें देखता, वह एक साधारण गरीब सफाई कर्मचारी ही समझता।

सावित्री देवी का असली रूप:

लेकिन कोई नहीं जानता था कि यह सफाई कर्मचारी असल में सावित्री देवी हैं। सावित्री ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज की अकेली मालकिन। यह साम्राज्य उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर खून-पसीने से खड़ा किया था। पति के देहांत के बाद, वह अपनी अरबों की विरासत अपने इकलौते वारिस, अपने भाई के बेटे नीरज को सौंपने की तैयारी कर रही थीं। नीरज विदेश से पढ़कर लौटा था और कंपनी का नया सीईओ बना दिया गया था। लेकिन सावित्री देवी को पैसे से ज्यादा इंसान की परख थी। वह देखना चाहती थीं कि जिस लड़के के हाथ में वह हजारों कर्मचारियों का भविष्य देने जा रही हैं, उसके दिल में गरीबों के लिए हमदर्दी है भी या नहीं।

भेष बदलना:

इसलिए उन्होंने भेष बदला। एक महीने के लिए वह अपनी ही कंपनी में सबसे निचले दर्जे की कर्मचारी बनकर आईं। आज उनका तीसरा दिन था। वह लॉबी में पोछा लगा रही थीं। तभी कांच के विशाल दरवाजे खुले और नीरज अंदर आया। वह फोन पर किसी पर चिल्ला रहा था, “मुझे नहीं पता, मुझे वह डील चाहिए, चाहे किसी भी कीमत पर।”

नीरज का घमंड:

नीरज की नजर सावित्री पर पड़ी, जो उसके रास्ते के पास ही जमीन साफ कर रही थी। उसका चेहरा घिन से सिकुड़ गया। उसने फोन काटा और पास खड़े सिक्योरिटी गार्ड पर चिल्लाया, “अरे, यह फटेहाल बुढ़िया किसने रखी है? तुम्हें दिखता नहीं, मैं आ रहा हूं? इसकी हिम्मत कैसे हुई मेरे इटालियन जूतों के पास यह गंदा पानी लाने की?”

सावित्री का हाथ एक पल के लिए कांप गया। नीरज ने सावित्री की तरफ उंगली दिखाई। “ए बुढ़िया, अंधी है क्या? चल हट यहां से।” सावित्री ने कुछ नहीं कहा। उन्होंने बस अपनी बाल्टी उठाई और चुपचाप एक कोने में हट गईं। उन्होंने अपना घूंघट थोड़ा और नीचे खींच लिया ताकि उनकी आंखों में आई नमी कोई देख न सके।

अपमान का घूंट:

नीरज को लगा था कि उसने एक फटेहाल नौकरानी को उसकी औकात दिखाई थी। उसे नहीं पता था कि उसने अभी-अभी अपनी तकदीर के ताबूत में पहली कील ठोक दी थी। सावित्री उस अपमान के घूंट को पीकर बेसमेंट में बने छोटे से स्टाफ रूम में आ गईं। वहां बाकी हाउसकीपिंग स्टाफ अपना सामान रखता था। वह एक टूटी हुई कुर्सी पर बैठ गईं और ठंडे पानी की बोतल खोली। उनके हाथ अभी भी कांप रहे थे।

यह पहली बार नहीं था कि उन्होंने गरीबी देखी थी। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर इसी मुंबई की झुग्गी से शुरुआत की थी। उन्होंने वे दिन देखे थे जब एक वक्त की रोटी भी मुश्किल थी। लेकिन आज अपने ही बनाए मंदिर में अपने ही खून से ऐसा अपमान सहना उनके कलेजे को चीर गया था।

नीरज के पिता की याद:

उन्हें अपने मरहूम भाई की याद आ गई। नीरज के पिता विनोद दुनिया के सबसे दयालु इंसानों में से एक थे। अगर आज वह जिंदा होते तो अपने बेटे की इस हरकत पर उनका सिर शर्म से झुक जाता। सावित्री ने सोचा, “क्या विदेश की पढ़ाई इंसान से तमीज और हमदर्दी छीन लेती है? क्या पैसा इतना अंधा कर देता है?”

करण का सहारा:

तभी एक नौजवान लड़का, जिसकी उम्र बमुश्किल 20-21 साल होगी, कमरे में दाखिल हुआ। उसने ऑफिस बॉय की नीली यूनिफार्म पहनी थी। उसने सावित्री को देखा, जो अपनी आंखें पोंछ रही थीं। “मान जी, आप ठीक तो हैं? वो नीरज सर ने सुबह आप पर बहुत ज्यादा चिल्ला दिया। आप दिल पर मत लेना। वो है ही ऐसे। जब से आए हैं हम छोटे लोगों से सीधे मुंह बात नहीं करते।”

सावित्री ने नजर उठाकर उसे देखा। उसकी आंखों में सच्ची हमदर्दी थी। “मेरा नाम करण है मांझी। मैं यहां चाय-पानी का काम करता हूं।” उसने अपना टिफिन बॉक्स खोला, जिसमें सिर्फ दो रोटियां और थोड़ी सब्जी थी। “आपने सुबह से कुछ खाया नहीं लगता? यह लो,” उसने अपनी एक रोटी सावित्री की तरफ बढ़ाई। “आधी-आधी खा लेते हैं। काम करने की ताकत लगेगी।”

सच्ची इंसानियत:

सावित्री की आंखों में आंसू छलक आए। जिस वारिस को वह अरबों की संपत्ति देने जा रही थीं, उसने उन्हें फटेहाल कहा। और यह लड़का, जो शायद महीने के कुछ हजार ही कमाता होगा, वह अपनी आधी रोटी एक अनजान बुढ़िया के साथ बांटने को तैयार था। “जीते रहो बेटा,” सावित्री ने भावुक होकर कहा, लेकिन रोटी लेने से मना कर दिया। “मेरी भूख मर गई।”

करण जबरदस्ती नहीं करना चाहता था, इसलिए वह चुपचाप कोने में बैठकर खाने लगा। सावित्री के लिए यह सिर्फ एक रोटी का टुकड़ा नहीं था। यह इंसानियत का वह सबूत था, जिसे वह नीरज में ढूंढ रही थीं और जो उन्हें और इस गरीब लड़के में मिल गया था। उन्होंने फैसला कर लिया। यह परीक्षा अब सिर्फ नीरज की नहीं थी। यह परीक्षा इस पूरी कंपनी के चरित्र की थी।

कर्मचारी कल्याण कोष:

अगले कुछ दिन सावित्री के लिए आंखें खोल देने वाले थे। वह अब एक सफाई कर्मचारी नहीं बल्कि एक जासूस बन गई थीं जो अपनी ही सल्तनत की परतों के नीचे छिपे जहरीले सच को देख रही थीं। उन्होंने देखा कि कंपनी में दो दुनिया बसती थीं। एक शीशे के कैबिन में रहने वालों की, जहां हवा ठंडी थी और मुस्कुराहटें नकली थीं। दूसरी दुनिया बेसमेंट और गलियारों की थी, जहां पसीना असली था और हमदर्दी भी।

करण रोज उन्हें “मांझी” कहकर बुलाता। कभी वह उनके लिए छुपकर एक कप चाय ले आता, तो कभी उनके हिस्से का भारी कूड़े का बैग खुद उठा लेता। सावित्री ने देखा कि करण सिर्फ उन्हीं के प्रति दयालु नहीं था। वह हर किसी की मदद के लिए दौड़ता था। वह ऑफिस का सबसे अदृश्य लेकिन सबसे जरूरी हिस्सा था। वहीं दूसरी तरफ नीरज था। उसका घमंड हर गुजरते दिन के साथ बढ़ता जा रहा था।

नीरज का अपमान:

एक दिन सावित्री 14वीं मंजिल पर पोछा लगा रही थीं, जो एग्जीक्यूटिव फ्लोर था। नीरज अपने आलीशान कैबिन से बाहर निकला। उसके साथ कंपनी का पुराना और वफादार अकाउंटेंट मिश्रा जी थे। मिश्रा जी की उम्र भी सावित्री के आसपास ही थी और उन्होंने यह कंपनी सावित्री के पति के साथ शुरू की थी।

“मिश्रा जी, आप समझ क्यों नहीं रहे हैं?” नीरज लगभग चिल्लाया। “मुझे अपनी नई स्पोर्ट्स कार की डिलीवरी के लिए इस हफ्ते 2 करोड़ चाहिए।” मिश्रा जी ने घबराते हुए कहा, “नीरज बेटा, लेकिन वो पैसा कर्मचारी कल्याण कोष का है। वो पैसा हम नहीं छू सकते। वो सावित्री जी का सख्त आदेश था। वो गरीबों की पढ़ाई और इलाज के लिए है।”

नीरज जोर से हंसा। “जीजी कहां है आपकी? वह तो अपने फार्म हाउस पर आराम कर रही हैं। यहां कंपनी मैं चलाता हूं। वो बुढ़िया अब पुराने जमाने की हो गई है। मुझे प्रॉफिट चाहिए। अगर आप 2 दिन में वह पैसा मेरे पर्सनल अकाउंट में ट्रांसफर नहीं कर सकते, तो आप अपनी रिटायरमेंट की तैयारी कर लीजिए।”

सावित्री का निर्णय:

सावित्री, जो पास में ही एक गमले को साफ करने का नाटक कर रही थीं, उनका खून घुल गया। यह कल्याण कोश उनके पति की आखिरी निशानी थी। उन्होंने इसे उन गरीब कर्मचारियों के लिए बनवाया था, जिन्होंने कंपनी को अपना खून-पसीना दिया था और नीरज उसी पैसे से अपनी स्पोर्ट्स कार खरीदना चाहता था। मिश्रा जी ने कांपते हाथों से अपना चश्मा सीधा किया। “बेटा, यह पाप है। मैं यह पाप नहीं कर सकता।”

“तो फिर निकल जाइए,” नीरज दहाड़ा। “सिक्योरिटी, मिश्रा जी को अभी इसी वक्त कंपनी से बाहर निकालो। उनके सामान उनके घर पहुंचा देना।” मिश्रा जी, 60 साल के वह बुजुर्ग, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कंपनी को दे दी, उन्हें दो गार्ड्स ने बेइज्जत करके घसीटते हुए लिफ्ट की तरफ ले जाना शुरू कर दिया।

सावित्री का प्रतिशोध:

सावित्री यह सब अपनी आंखों से देख रही थीं। उनकी आंखों में आंसू नहीं, आग थी। उन्होंने तय कर लिया था कि यह खेल अब खत्म करने का वक्त आ गया है। मिश्रा जी को लिफ्ट में धकेल दिया गया। सावित्री कांपते हुए दीवार के सहारे खड़ी हो गईं। उनकी सांसें तेज चल रही थीं। उन्होंने 40 साल से मिश्रा जी को देखा था। वह उनके भाई जैसे थे।

करण की मदद:

जब वह स्टाफ रूम में पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि करण पहले से ही वहां मौजूद था। वह खिड़की से बाहर देख रहा था, जहां सिक्योरिटी गार्ड्स मिश्रा जी को गेट से बाहर धकेल रहे थे। करण की आंखों में आंसू थे और उसके हाथ गुस्से से मुट्ठी में बंधे हुए थे। “देखा आपने, मान जी?” करण की आवाज में दर्द और गुस्सा भरा था। “मिश्रा जी वो कितने भले इंसान थे और उस नीरज सर ने उन्हें कैसे…”

सावित्री उसके पास गईं और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा। “तुम मिश्रा जी को अच्छे से जानते हो बेटा?” करण ने अपनी नम आंखें पोंछी। “जानता हूं मानजी, वह मेरे लिए भगवान जैसे हैं। अगर वह ना होते तो मैं आज यहां चाय नहीं बल्कि किसी सिग्नल पर भीख मांग रहा होता।”

करण का अतीत:

सावित्री चौंक गईं। “क्या मतलब बेटा?” करण ने एक गहरी सांस लेकर बोला, “मांझी, मैं हमेशा से ऑफिस बॉय नहीं था। मैं इंजीनियरिंग के तीसरे साल में था। मेरे पिताजी इसी कंपनी की फैक्ट्री में सुपरवाइजर थे। 3 साल पहले एक मशीन खराब हो गई थी। कंपनी ने पैसे बचाने के लिए पुरानी मशीनें नहीं बदली और एक दिन वह मशीन फट गई। मेरे पिताजी बुरी तरह जख्मी हो गए। उनका एक पैर काटना पड़ा और वह हमेशा के लिए बिस्तर पर आ गए।”

सावित्री का संकल्प:

सावित्री की आंखें खुली रह गईं। उन्हें इस हादसे की धुंधली सी याद थी। लेकिन मैनेजमेंट ने उन्हें बताया था कि सब ठीक हो गया है। करण ने आगे कहा, “हमारा सब कुछ बिक गया। मेरी पढ़ाई छूट गई। मां लोगों के घरों में बर्तन मांझने लगीं। हम सड़क पर आ गए थे। तब किसी ने हमें मिश्रा जी के बारे में बताया। उन्होंने हमारी फाइल देखी और उसे कर्मचारी कल्याण कोष में डाल दिया। उन्होंने कहा था कि इस कंपनी की मालकिन सावित्री देवी ने यह फंड इसी लिए बनवाया था। उस दिन से उस फंड से मेरे पिताजी का इलाज चल रहा है और मेरी पढ़ाई की फीस भी वही भर रहे हैं।”

नीरज का घमंड:

करण का गला रंध गया। “आज नीरज सर उसी फंड से पैसे निकालने के लिए मिश्रा जी पर चिल्ला रहे थे। मिश्रा जी ने मना कर दिया और उन्हें नौकरी से निकाल दिया। अब मेरा क्या होगा मां जी? अगर वह फंड बंद हो गया तो मेरे पिताजी मर जाएंगे। मेरी पढ़ाई सब खत्म हो जाएगी।” करण वहीं जमीन पर बैठकर बच्चों की तरह रोने लगा।

सावित्री का फैसला:

सावित्री पत्थर बन चुकी थीं। यह सिर्फ घमंड नहीं था, यह हत्या थी। नीरज उनके पति की विरासत को ही नहीं बल्कि करण जैसे अनगिनत बेसहारा लोगों की जिंदगी को भी कुचल रहा था। उन्होंने करण के सिर पर हाथ फेरा। उनकी आवाज अब कांप नहीं रही थी। वह ठंडी और फौलादी थी। “चुप हो जाओ बेटा। जब तक मैं हूं, तुम्हारे पिताजी को कुछ नहीं होगा। कल इंसाफ होगा।”

बोर्ड मीटिंग का दिन:

अगली सुबह सावित्री टॉवर की हवा में एक अजीब सा तनाव था। आज कंपनी की तिमाही बोर्ड मीटिंग थी, जिसकी अध्यक्षता पहली बार नीरज करने वाला था। वह सुबह-सुबह अपनी महंगी गाड़ी से उतरा। उसका सूट क्रिस्प था और चेहरे पर एक विजेता की मुस्कान थी। उसने मिश्रा जी को हटाकर कर्मचारी कल्याण कोश के खातों का चार्ज अपने एक चापलूस मैनेजर को दे दिया था और आज वह बोर्ड को यह समझाने वाला था कि कैसे वह बेकार फंड को लाभदायक निवेश में बदल देगा।

सावित्री का सामना:

करण जब ऑफिस आया तो उसकी आंखें सूजी हुई थीं। वह रात भर सो नहीं पाया था। उसने मानजी सावित्री को देखा, जो हमेशा की तरह बेसमेंट के गलियारे में पोछा लगा रही थीं। करण ने एक फीकी सी मुस्कान दी। उसे कल की उस बुढ़िया की हिम्मत भरी बातें अब खोखली लग रही थीं। सावित्री ने उसे पास बुलाया। “करण बेटा, तुम आज अपनी चाय की ट्रे लेकर 14वीं मंजिल पर बोर्ड रूम के ठीक बाहर खड़े रहना। चाहे कोई तुम्हें जाने को कहे, तुम हटना मत। समझ गए?”

मीटिंग का आरंभ:

ठीक 11:00 बजे मीटिंग शुरू हुई। नीरज ने अपनी प्रेजेंटेशन शुरू की। “देवियों और सज्जनों, हमारी कंपनी को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का समय आ गया है। हमें कुछ पुराने गैर लाभकारी ख्यालों को छोड़ना होगा। जैसे कि यह कर्मचारी कल्याण कोष, जो हर साल हमारे मुनाफे पर एक बोझ है।”

वह बोल ही रहा था कि बोर्ड रूम का भारी दरवाजा खुला। करण चाय की ट्रे लिए बाहर खड़ा था। उसने देखा दरवाजे पर मिश्रा जी खड़े थे, जिन्हें कल बेइज्जत करके निकाला गया था। उनके चेहरे पर घबराहट थी लेकिन आंखों में एक अजीब सी हिम्मत थी। नीरज अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया। “मिश्रा, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की? तुम्हें कल ही निकाल दिया गया था। सिक्योरिटी! सिक्योरिटी कहां है?”

सावित्री का प्रवेश:

“सिक्योरिटी को मैंने ही रोका है,” एक शांत लेकिन भारी आवाज आई। सबकी नजरें दरवाजे पर गईं। मिश्रा जी के पीछे वही फटी साड़ी पहने, पल्लू से अपना सिर ढके, सावित्री खड़ी थीं। नीरज का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। “तुम यहां क्या कर रही हो? यह बोर्ड मीटिंग है। यह सफाई कर्मचारियों के लिए नहीं है। निकल जाओ यहां से।”

सच्चाई का खुलासा:

“वरना क्या?” नीरज। सावित्री ने धीरे से अपने सिर से पल्लू हटाया। कमरे में सन्नाटा छा गया। बोर्ड पर बैठे पुराने सदस्य, जो सावित्री देवी को सालों से जानते थे, अपनी कुर्सियों से उछल पड़े। उनके मुंह खुले के खुले रह गए। “सावित्री जी,” एक डायरेक्टर ने कांपती आवाज में कहा।

नीरज का रंग सफेद पड़ गया। उसे लगा जैसे उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो। उसकी जुबान लड़खड़ा गई। “बुआ जी, अब आप इस हालत में…”

“हां, नीरज, मैं ही हूं। तुम्हारी फटीहाल बुढ़िया, तुम्हारी अंधी सफाई वाली। मैं यहां यह देखने आई थी कि जिस लड़के को मैं अपना साम्राज्य सौंपने जा रही थी, वह जमीन पर चलने वालों को इंसान समझता भी है या नहीं।”

नीरज की हार:

नीरज का चेहरा देखने लायक था। पसीने की बूंदें उसके माथे से टपककर उसके महंगे इटालियन कॉलर पर गिर रही थीं। वह हकलाया, “बुआ जी, ये आप क्या कह रही हैं? मैंने… मैंने तो बस…”

“चुप रहो,” सावित्री की आवाज में स्टील सी ठंडक थी, जिसने पूरे बोर्ड रूम को कंपा दिया। “एक महीने से मैं तुम्हारी भलाई देख रही हूं। मैंने देखा कि तुम किस तरह उन लोगों से बात करते हो, जो इस कंपनी की असली नींव हैं। तुमने मुझे फटेहाल कहा। तुमने मुझे अपने जूतों के पास से गंदी बुढ़िया कहकर हटाया।”

सच्चाई का सामना:

उन्होंने नीरज की आंखों में सीधे देखा। “मेरी साड़ी फटी हो सकती है, नीरज, लेकिन मेरा जमीर साफ है। तुम्हारी सोच फटीहाल है। तुम्हारा दिल गरीब है, जिसे दौलत के घमंड ने इतना अंधा कर दिया है कि तुम्हें अपने सामने इंसान नहीं, सिर्फ कीड़े-मकोड़े दिखते हैं।”

वह बोर्ड मेंबर्स की तरफ मुड़ी। “आप सब गवाह हैं। यह लड़का, जिसे मैंने अपना वारिस बनाने का सोचा था, वह मेरे पति के बनाए कर्मचारी कल्याण कोश को लूटने जा रहा था। क्यों? क्योंकि उसे 2 करोड़ की स्पोर्ट्स कार खरीदनी थी।”

मिश्रा जी की ईमानदारी:

कमरे में एक खामोश विस्फोट हुआ। कई डायरेक्टर्स के चेहरे पर घिन और गुस्सा साफ दिख रहा था। और जब मिश्रा जी ने सावित्री की ओर देखा, जिन्होंने 40 साल इस कंपनी को अपना खून दिया, उन्होंने इस पाप को करने से इंकार कर दिया।

“तो इस लड़के ने उन्हें जलील करके धक्के मारकर ऑफिस से बाहर निकलवा दिया।” नीरज अब जमीन पर घुटनों के बल आ गया। “बुआ जी, मुझे माफ कर दीजिए। मुझसे गलती हो गई।”

सावित्री का अंतिम निर्णय:

“बहुत देर हो गई है, नीरज,” सावित्री ने कहा। उन्होंने दरवाजे की तरफ देखा, जहां करण कांपता हुआ ट्रे पकड़े खड़ा था। “अंदर आओ बेटा,” सावित्री ने उसे बुलाया। करण झिझकता हुआ अंदर आया। उसकी नजरें जमीन पर गड़ी थीं।

“यह ऑफिस बॉय यहां क्या कर रहा है?” नीरज ने घूर कर कहा। “यह ऑफिस बॉय नहीं है। इसका नाम करण है। इसके पिता ने हमारी फैक्ट्री में अपना पैर खोया क्योंकि तुम्हारे मैनेजमेंट ने पैसे बचाने के लिए पुरानी मशीनें नहीं बदलीं। यह लड़का इंजीनियर बनना चाहता था लेकिन सब छोड़कर यहां चाय पिलाने को मजबूर हो गया।”

करण का भविष्य:

सावित्री ने करण को अपने पास खड़ा किया और बोर्ड को संबोधित किया। “जिस कर्मचारी कल्याण कोश को नीरज बेकार और मुनाफे पर बोझ कह रहा था, उसी फंड से करण के पिता का इलाज चल रहा है। उसी फंड से इस लड़के की पढ़ाई की फीस जा रही है। तुम्हारा घमंड, नीरज, सिर्फ मिश्रा जी की बेइज्जती नहीं कर रहा था। तुम इस लड़के के पिता की सांसें और इसका भविष्य छीनने जा रहे थे।”

सावित्री ने एक पल का विराम लिया। उन्होंने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक किया, जो अब एक सफाई कर्मचारी का नहीं, बल्कि एक रानी का वस्त्र लग रहा था। “नीरज,” उन्होंने आखिरी फैसला सुनाया, “तुम इस कंपनी के वारिस बनने के लायक नहीं हो। तुम इंसानियत के लायक नहीं हो।”

नीरज का निष्कासन:

“सिक्योरिटी!” दो गार्ड्स, जो अब तक सन खड़े थे, तेजी से अंदर आए। “नीरज को अभी इसी वक्त इस बिल्डिंग से बाहर निकालो और सुनिश्चित करो कि यह दोबारा इस ऑफिस के 1 किलोमीटर के दायरे में भी नजर न आए।”

नीरज को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। “बुआ जी, आप ऐसा नहीं कर सकतीं। मैं आपका भतीजा हूं।” “तुम मेरे भाई के बेटे थे,” सावित्री ने कठोरता से कहा, “लेकिन तुमने आज वो हक भी खो दिया।”

सावित्री की जीत:

गार्ड्स ने नीरज को घसीटना शुरू कर दिया। वह चिल्लाता रहा, “मैं तुम्हें देख लूंगा। तुम सब पछताओगे।” लेकिन उसकी आवाज बंद दरवाजों के पीछे दब गई।

बोर्ड रूम में गहरा सन्नाटा पसरा था। नीरज के चीखने की आवाज अब दूर गलियारे से भी नहीं आ रही थी। सावित्री देवी वापस अपनी कुर्सी पर नहीं बैठीं। वह वहीं खड़ी रहीं, उनकी नजरें अब भी उस दरवाजे पर टिकी थीं, जहां से उनका घमंडी भतीजा घसीट कर बाहर ले जाया गया था।

मिश्रा जी को सम्मान:

वह धीरे से मिश्रा जी की तरफ मुड़ी, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कंपनी के लिए ईमानदारी से काम किया था। “मिश्रा जी, इस कंपनी की मालकिन होने के नाते मैं आपसे उस जलालत के लिए माफी मांगती हूं, जो आपको मेरे ही खून के हाथों सहनी पड़ी। आपकी ईमानदारी ही इस कंपनी की असली दौलत है।”

मिश्रा जी की बूढ़ी आंखों से आंसू बह निकले। “जी, आप यह क्या कर रही हैं?”

“मैं वही कर रही हूं जो मुझे बहुत पहले करना चाहिए था,” सावित्री ने दृढ़ता से कहा। “आप कल से फाइनेंस डायरेक्टर के तौर पर अपना काम संभालेंगे और कर्मचारी कल्याण कोष आज से पूरी तरह आपके अधिकार में होगा। इसका पैसा खर्च करने के लिए आपको किसी डायरेक्टर या सीईओ की इजाजत की जरूरत नहीं होगी।”

करण का भविष्य सुरक्षित:

फिर वह करण की तरफ मुड़ी, जो अभी तक एक कोने में सहमा हुआ खड़ा था। “करण बेटा,” सावित्री की आवाज अब एक मां की तरह नरम हो गई थी। “तुमने कहा था तुम्हारे पिता का इलाज रुक जाएगा। नहीं रुकेगा। जब तक वह ठीक नहीं हो जाते, कंपनी उनका सारा खर्च उठाएगी और तुम्हारी पढ़ाई।”

उन्होंने बोर्ड की तरफ देखा। “करण की इंजीनियरिंग की पूरी पढ़ाई का खर्च सावित्री ग्रुप उठाएगा। तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो और जब तुम एक इंजीनियर बन जाओ, तो तुम्हें इसी कंपनी की फैक्ट्री में नौकरी मिलेगी। तुम्हें उन पुरानी मशीनों को बदलना होगा ताकि जो तुम्हारे पिता के साथ हुआ, वो किसी और के साथ कभी न हो।”

आंसू और खुशी:

करण को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। वह जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया और सावित्री के पैरों से लिपटकर रोने लगा। “मांझी, आपने मुझे और मेरे परिवार को बचा लिया।”

सावित्री ने उसे उठाकर अपने गले से लगा लिया। “नहीं बेटा, तुमने मुझे बचाया। मैं तो अपनी अरबों की दौलत एक ऐसे राक्षस को देने जा रही थी, जो उसे जलाकर राख कर देता। तुमने उस दिन मुझे अपनी आधी रोटी देकर मेरी आंखें खोल दीं। तुमने मुझे याद दिलाया कि इंसान की कीमत उसके कपड़ों या उसकी कुर्सी से नहीं, उसकी दया और उसके दिल से होती है।”

निष्कर्ष:

सावित्री ने करण को अपने पास खड़ा किया और पूरे बोर्ड को अपना आखिरी फैसला सुनाया। “आज से हमारी कंपनी का सबसे बड़ा निवेश हमारी बिल्डिंग या हमारी मशीनें नहीं, बल्कि हमारे लोग होंगे। कंपनी के शुद्ध मुनाफे का 5% हिस्सा किसी भी एग्जीक्यूटिव बोनस से पहले सीधे कर्मचारी कल्याण कोश में जाएगा।”

सावित्री ने आखिरी बार उस बोर्ड रूम को देखा। आज एक फटेहाल सफाई कर्मचारी ने संगमरमर के उस ठंडे फर्श पर इंसानियत की गर्मी वापस ला दी थी। उन्होंने साबित कर दिया था कि असली अमीरी पैसे में नहीं, बल्कि उस हाथ में होती है जो जरूरत के वक्त किसी का आंसू पोंछने के लिए उठता है।

समापन:

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि असली पहचान कपड़ों या धन से नहीं, बल्कि दिल की अच्छाई से होती है। सावित्री देवी ने न केवल अपने साम्राज्य को बचाया, बल्कि समाज में इंसानियत की एक नई मिसाल भी कायम की।

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